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हरियाणा के नारनौल में देशी फ्रिज यानि मटकों की डिमांड भी बढ़ी हुई है। कमाल की बात है कि अब नारनौल एवं आसपास के कुम्हार मिट्टी नहीं मिलने के कारण मिट्टी के बर्तन बनाने में असमर्थ हो गए हैं। अब अलवर जैसे क्षेत्र से मिट्टी के बर्तन लाकर इन्हें बेचने में लगे हुए हैं।

Narnaul: चढ़ते पारे के साथ ही इन दिनों देशी फ्रिज यानि मटकों की डिमांड भी बढ़ी हुई है। बिना बिजली के प्राकृतिक रूप से पानी को ठंडा बनाने वाले मटकों के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ा हुआ है। यही वजह है कि लोग भी देशी फ्रिज कहे जाने वाले मटकों को खरीद हैं, लेकिन कमाल की बात है कि अब नारनौल एवं आसपास के कुम्हार मिट्टी नहीं मिलने के कारण मिट्टी के बर्तन बनाने में असमर्थ हो गए हैं। अब अलवर जैसे क्षेत्र से मिट्टी के बर्तन लाकर इन्हें बेचने में लगे हुए हैं।

गर्मी के साथ ही मटकों की बढ़ गई डिमांड

गौरतलब है कि मई का महीना शुरू होते ही दक्षिण हरियाणा का तापमान लगातार बढ़ रहा है। तपिश बढ़ने से देसी फ्रिज यानी मिट्टी के मटकों की मांग में भी तेजी आ गई है। बदलते समय के साथ मिट्टी के मटकों की बनावट, रंग, आकार और डिजाइन में भी कई बदलाव आए हैं, जो ग्राहकों को काफी आकर्षित करते हैं। नारनौल शहर में अनेक ऐसे परिवार हैं, जो आजादी के पहले से मिट्टी के बर्तन यानि मटके वगैरा बना रहे हैं। मटके में रखा पानी शीतल होने के साथ स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है। इसके चलते मटकों की सेल में काफी बढ़त दर्ज हो रही है। इस बार पिछले साल की तुलना में गर्मी अधिक पड़ने से मटकों की बिक्री का बाजार भी गर्म है।

यह कहते हैं पवन प्रजापत

अपने पिता के साथ कुम्हार का काम करने वाले कैलाश नगर निवासी पवन प्रजापत ने बताया कि मटका बनाने में काफी मेहनत लगती है। इसके लिए सबसे पहले मिट्टी को छाना जाता है। फिर गीला करके खूब रोंदा जाता है। पहले ये काम हाथ से होता था, लेकिन अब मशीनों की मदद से रौंदना आसान हो गया है और जल्दी भी हो जाता है। मिट्टी रौंदने के बाद उसे चाक पर चढ़ाने के लिए हाथों से खूब गूंथा जाता है और फिर मिट्टी को चाक पर आकार दिया जाता है। अब बिजली से चलने वाले चाक आ गए हैं। इसलिए एक दिन में 50 से 60 मटके तैयार कर लेते हैं। मिट्टी को आकार देने के बाद मटकों को हल्की हवा और छांव में सुखाया जाता है। हल्का सूखने के बाद उन पर कलाकारी और रंग किए जाते हैं। फिर मटकों को भट्टी में पकाया जाता है।

मिट्टी नहीं मिलने से काम-धंधा चौपट

मिट्टी के बर्तन यानि मटके आदि बनाने के लिए पहले मिट्टी दोंगली गांव के जोहड़ से मिल जाती थी। वहां की मिट्टी सर्वोत्तम मिट्टी होती थी, लेकिन अब वहां मिट्टी मिलना बंद हो गई है। अन्य जगहों पर भी मिट्टी नहीं मिल पा रही। मिट्टी नहीं मिलने से कुम्हारों का काम-धंधा ही चौपट हो गया है। इस कारण मिट्टी के बर्तन बनाने का धंधा छूटता जा रहा है। अब नारनौल के कुम्हार अलवर जिले से मिट्टी के बर्तन लाकर यहां बेचने लगे हैं। किराया-भाड़ा एवं मजदूरी लगाकर यह काफी महंगा पड़ने लगा है।

मटके का पानी पीने के लाभ

-मटके के पानी में पोषक तत्व और मिनिरल्स होते हैं। -शरीर में ग्लूकोज को बनाए रखता है व सन-स्ट्रोक से बचाता है। -पाचन और मेटाबॉलि'म में सुधार लाता है। -मिट्टी में एंटी-इंफ्लेमेटरी तत्व पाए जाते हैं। -शरीर का दर्द, ऐंठन और सूजन की समस्या कम होती है। -आर्थराइटिस जैसी बीमारी में भी आराम मिलता है। -गैस की समस्या में राहत पहुंचाता है। -ऑयरन की कमी को दूर किया जा सकता है।

मिट्टी के बर्तनों के रेट: प्रति यूनिट 

छोटा मटका : 70 रुपए  छोटी हांडी : 60 रुपए बड़ा मटका : 100 रुपए छोटी झाझर : 100 रुपए बड़ी झाझर : 120 रुपए टोंटी वाला बड़ा मटका : 150 रुपए टोंटी वाला छोटा मटका : 120 रुपए झाल : 250 रुपए सुराही : 150 रुपए कलश : 30/40 रुपए मिट्टी का तव्वा : 30 रुपए मिट्टी का तव्वा स्टैंडवाला : 50 रुपए बुगनी/गुल्लक : 20, 30, 70 रुपए गमला : 60 रुपए परिंडा/सिकौरा : 30-100 रुपए मटके का स्टैंड : 40 रुपए

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