शारदीय नवरात्रि शुरू: छत्तीसगढ़ में है जंवारा बोने की अनूठी परंपरा, जानते हैं जस गीतों की क्या है परंपरा

छत्तीसगढ़ में नवरात्रि पर्व में जंवारा बोने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। देवी जस गीत गाकर नौ दिनों तक पारंपरिक रूप से पूजा- अर्चना की जाती है।

Updated On 2025-09-22 15:16:00 IST

छत्तीसगढ़ में हैं जंवारा बोने की अनूठी परंपरा

तरुणा साहू- रायपुर। शारदीय नवरात्रि में माँ शक्ति के नौ रूपों की आराधना की जाती है। देशभर में इस पर्व को अलग- अलग रूप में मनाया जाता है। ऐसे ही छत्तीसगढ़ में भी नवरात्रि में 'जंवारा' बोकर विशेष पारंपरिक रूप में मनाया जाता है। सदियों से चली यह परंपरा प्रकृति से जुड़ी हुई है। यहां के शीतला मंदिरों से लेकर प्रमुख मंदिरों में भी जंवारा रखा जाता है। आइये जानते हैं 'जंवारा' और इससे जुड़ी परंपरा के बारे में...

छत्तीसगढ़ में चैत्र नवरात्रि और शारदीय नवरात्रि को पारंपरिक अंदाज में मनाया जाता है। दोनों ही नवरात्रि में यहां 'जंवारा' बोने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। जंवारा को नवरात्रि के प्रथम दिवस माता के मंदिर या घर में ज्योति स्थापित कर 'जंवारा' बोया जाता है। इसे विशेष रूप से 'शीतला मंदिरों' में भी रखा जाता है। इस दौरान अखंड ज्योति कलश की भी स्थापना की जाती है।


क्या है जंवारा
जंवारा गेहूं या जौ का बीज होता है इसे नवरात्रि के प्रथम दिवस बांस की टोकरी (झेंझरी) और कलश में मिट्टी डालकर बोया जाता है। चार- पांच दिन के बाद बीज पौधे के रूप में विकसित हो जाते हैं, इसे ही 'जंवारा' कहा जाता है। जंवारा पर्व अच्छे फसल की कामना के लिए मनाया जाता है और जंवारा का स्वरूप उस वर्ष के मौसम व फसल की अच्छी- बुरी पैदावार का संकेत देता है।

देवी को प्रसन्न करने के लिए गाते हैं जस गीत
रन बन रन बन हो, तुम खेलव दुलरवा, रन बन रन बन हो...यह एक जस गीत है जिसे नौ दिनों तक भक्ति भाव से गाया जाता है। इसके माध्यम से लोग देवी की महिमा का बखान करते हुए उन्हें प्रसन्न करते हैं। नवरात्र पर्व के नवमी के दिन पूजा- अर्चना यज्ञ अनुष्ठान की जाती है। इसके बाद दशमी के दिन महिलाएं या पुरुष जंवारा को सिर में रखकर आकर्षक झांकी के साथ सामूहिक रूप से स्थानीय नदी और तालाबों में विसर्जित करते हैं। इस दौरान जंवारा विसर्जन गीत गाया जाता है।


ये है छत्तीसगढ़ के प्रमुख देवी मंदिर
मां महामाया का मंदिर बिलासपुर जिले के रतनपुर में स्थित है जो देवी के महालक्ष्मी रूप को समर्पित है। यह प्राचीन मंदिर देश के 52 शक्ति पीठों में से एक है। इस मंदिर की स्थापना 11वीं शताब्दी में राजा रत्नदेव प्रथम ने की थी। मां महामाया को दक्षिण कोसल क्षेत्र की आराध्य देवी होने के कारण कोसलेश्वरी के रूप में भी जाना जाता है। नवरात्रि में हर साल मां के दर्शन करने के लिए भक्त दूर- दूर से पहुंचते हैं।


मां बम्लेश्वरी मंदिर, डोंगरगढ़
मां बम्लेश्वरी देवी राजनांदगांव जिले के डोंगरगढ़ में स्थित पहाड़ी पर 16 सौ फीट की ऊंचाई पर विराजमान है। वहीं पहाड़ी के नीचे छोटी मां बम्लेश्वरी विराजमान है। अपने 2 हजार वर्ष से भी अधिक पुराने इस मंदिर का इतिहास मध्य प्रदेश के उज्जैन से जुड़ा है। माना जाता है कि, मां बमलेश्वरी को उज्जैन के प्रतापी राजा विक्रमादित्य की कुलदेवी है। गर्भगृह में मातारानी का स्वरूप बगलामुखी है मां के इस रूप को मां दुर्गा का रूप माना जाता है। यह मंदिर देशभर के श्रद्धालुओं के लिए आस्था का केंद्र है।


दंतेश्वरी मंदिर, दंतेवाड़ा
मां दंतेश्वरी बस्तर क्षेत्र की आराध्य और कुलदेवी है। मान्यता है कि, इस स्थान पर मां सती के दांत गिरे थे इसलिए इसका नाम दंतेवाड़ा और माता को दंतेश्वरी के रूप में पूजा जाने लगा। माता का यह मंदिर 52 शक्तिपीठों में से एक है जिसका निर्माण 14वीं शताब्दी में माना जाता है। दंतेश्वरी मंदिर मुख्य रूप से बस्तर दशहरा का प्रमुख केंद्र है माता के प्रति आदिवासी समाज के लोगों की गहरी आस्था है।


मां चंद्रहासिनी, चंद्रपुर
मां चंद्रहासिनी का मंदिर जांजगीर-चांपा जिले के चंद्रपुर में छोटी पहाड़ी पर विराजमान है। महानदी के और माण्ड नदी तट पर बसा यह मंदिर 52 शक्तिपीठों में से एक है। इस मंदिर के परिसर में कृष्ण लीला, चीरहरण, महिषासुर वध, अर्धनारीश्वर और अन्य देवी- देवताओं की मूर्तियां स्थापित है। नवरात्रि पर हर साल यहां मेले का आयोजन किया जाता है।


देवी कुदरगढ़ी, सूरजपुर
सूरजपुर जिले के कुदरगढ़ में स्थित देवी कुदरगढ़ी मां बगेश्वरी के रूप को समर्पित है। यह प्राचीन मंदिर एक पहाड़ी की चोटी पर है जहां दूर- दूर से भक्त मातारानी के दर्शन करने के लिए पहुंचते हैं। मान्यताओं के अनुसार, भक्त अपनी मनोकामना पूर्ति के लिए मंदिर की परिक्रमा करते हैं। साथ ही मनोकामना पूरी होने पर देवी को बकरी के खून चढ़ाया जाता है।



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