KIFF 2025: भीड़ की हिंसा पर खामोशी में छुपी एक चीख है ‘ग्वावा–ए मॉब लिंचिंग’
मूक लघु फ़िल्म ‘ग्वावा–ए मॉब लिंचिंग’ 17 दिसंबर 2025 को खजुराहो अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव में प्रदर्शित होगी। जानिए कहानी, संदेश और निर्देशक का नजरिया।
मूक लघु फ़िल्म ‘ग्वावा–ए मॉब लिंचिंग’ 17 दिसंबर 2025 को खजुराहो अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव में प्रदर्शित होगी
KIFF 2025: शब्द कभी-कभी भावनाओं का बोझ उठाने में असमर्थ हो जाते हैं। ऐसी ही खामोशी को अपनी सबसे बड़ी ताकत बनाकर सामने आती है मूक लघु फ़िल्म ‘ग्वावा–ए मॉब लिंचिंग’ (Guava-Mob Lynching), जो 17 दिसंबर 2025 को 11वें खजुराहो अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव में प्रदर्शित की जाएगी। सिर्फ 14 मिनट की यह फ़िल्म निर्देशक राहुल शर्मा (राहुल्य) की संवेदनशील दृष्टि और ‘स्वर रंग फ़िल्म्स’ की सामाजिक प्रतिबद्धता का सशक्त उदाहरण है।
भूख, बेबसी और भीड़ का उन्माद
फ़िल्म की कहानी एक ऐसे व्यक्ति के इर्द-गिर्द बुनी गई है, जिसकी दुनिया धीरे-धीरे बिखर चुकी है। पत्नी मृत्युशैया पर है, छोटी बेटी भूख से बेहाल और जेब पूरी तरह खाली। इलाज में सब कुछ खर्च हो चुका है। मजबूरी उसे सार्वजनिक स्थान से थोड़ा-सा खाना उठाने के लिए विवश कर देती है। लेकिन यह क्षणिक निर्णय उसकी ज़िंदगी का आख़िरी फैसला बन जाता है। क्रोधित भीड़ उसे चोर समझ लेती है और बिना सच जाने, बिना सवाल किए, कानून अपने हाथ में लेकर उसकी जान ले लेती है।
संवादहीन सिनेमा की मार्मिक शक्ति
‘ग्वावा–ए मॉब लिंचिंग’ में कोई संवाद नहीं है, लेकिन हर दृश्य बोलता है। कैमरा चेहरे की पीड़ा, आँखों की भयभीत चमक और भीड़ के उन्मादी हाव-भाव को इस तरह पकड़ता है कि दर्शक भीतर तक झकझोर जाता है। फ़िल्म की खामोशी दर्शकों को सोचने के लिए मजबूर करती है—क्या हम सच में सुरक्षित समाज में जी रहे हैं, या सिर्फ़ भीड़ का हिस्सा बनते जा रहे हैं?
संगीत जो आत्मा को छू जाए
फ़िल्म का बैकग्राउंड स्कोर राग ‘मियां की तोड़ी’ पर आधारित है, जिसे अंतरराष्ट्रीय सितार वादिका सुश्री स्मिता नागदेव ने स्वयं रचा है। सितार और तबले की गूंज दृश्य के साथ मिलकर एक ऐसा भावलोक रचती है, जहाँ पीड़ा, करुणा और असहायता शब्दों के बिना ही व्यक्त हो जाती है। यह संगीत केवल पृष्ठभूमि नहीं, बल्कि फ़िल्म का एक जीवंत पात्र बन जाता है।
सीमित साधन, गहरी बात
कम संसाधनों में बनी यह फ़िल्म अपने प्रभाव में किसी बड़े बजट की फिल्म से कम नहीं लगती। मानव गरिमा, ग़लत सूचना, अफ़वाहों और कानून को अपने हाथ में लेने की प्रवृत्ति जैसे मुद्दों पर यह फ़िल्म एक सार्वभौमिक संदेश देती है, जो भाषा और सीमाओं से परे जाकर हर समाज से संवाद करती है।
निर्देशक की मूक पुकार
निर्देशक राहुल शर्मा (राहुल्य) के अनुसार, “‘ग्वावा–ए मॉब लिंचिंग’ हमारे समय की एक मूक चीख है। हर भीड़ हिंसा की घटना के पीछे एक इंसान, एक परिवार और एक अधूरी कहानी होती है। हम चाहते थे कि दर्शक सिर्फ़ देखें नहीं, बल्कि महसूस करें।”
गांव से वैश्विक मंच तक
फ़िल्म की शूटिंग मध्य प्रदेश के शाहपुर और कोठार गांव (बेरसिया तहसील) में हुई है। स्थानीय ग्रामीणों के सहयोग को सम्मान देने के लिए फ़िल्म की विशेष स्क्रीनिंग गांव में आयोजित की गई—एक ऐसा भावनात्मक क्षण, जब परदे पर दिखाई गई कहानी और ज़मीन की हकीकत आमने-सामने थीं।
क्यों ज़रूरी है यह फ़िल्म
आज के दौर में, जब त्वरित निष्कर्ष और सोशल मीडिया से फैली अफ़वाहें हिंसा को जन्म दे रही हैं, ‘ग्वावा–ए मॉब लिंचिंग’ हमें रुककर सोचने को कहती है। यह फ़िल्म सहानुभूति, संवैधानिक न्याय और मानवता के मूल्यों की एक शांत लेकिन प्रभावशाली अपील है।