CJI डीवाई चंद्रचूड़ बोले: कोर्ट को मंदिर और जजों को भगवान कहना बेहद खतरनाक, जनता के सेवक हैं जज

CJI DY Chandrachud
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CJI DY Chandrachud(CJI) डीवाई चंद्रचूड़ (DY Chandrachud) ने कहा कि कोर्ट की मंदिर और जजों की तुलना भगवान से करना बेहद खतरनाक है। जज जनता के सेवक होते हैं।

CJI DY Chandrachud: सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस (CJI) डीवाई चंद्रचूड़ (DY Chandrachud) ने जजों की तुलना भगवान से करने पर बड़ी बात कही है। सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा है कि कोर्ट की मंदिर से और जजों की तुलना भगवान से करना बेहद खतरनाक है। जजों का काम लोगों के हितों की रक्षा करना है। सीजेआई ने कोलकाता में नेशनल ज्युडिशियल एकेडमी के रिजनल कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए यह बात कही।

कोर्ट को मंदिर कहे जाने पर मैं संकोच महसूस करता हूं
सीजेआई ने कहा कि अक्सर हमें, योर ऑनर, लॉर्डशिप, लेडीशिप कह कर बुलाया जाता है। लोगों का कोर्ट को इंसाफ का मंदिर बताना बेहद खतरनाक है। अगर हम खुद को मंदिर के देवताओं को समझने लगे तो यह यह एक बेहद गंभीर जोखिम होगा। सीजेआई ने कहा कि जब भी कोर्ट रूप को न्याय का मंदिर कहा जाता है तो मैं संकोच महसूस करता हूं। क्याेंकि इससे ऐसा लगता है कि जज कोर्ट के भगवान हैं। सीजेआई ने कहा कि संविधान में कहीं भी 'संवैधानिक नैतिकता' शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया। संविधान में सिर्फ इसके लिए नैतिकता शब्द का इस्तेमाल किया गया है।

संविधान में मौरेलिटी के प्रावधानों के बारे में बताए
सीजेआई ने कहा कि संविधान में मौरेलिटी फ्रेज का इस्तेमाल मौलिक अधिकारों पर रोक लगाने के लिए किया गया है। संविधान में फ्रीडम ऑफ स्पीच एंड एक्सप्रेशन पर आर्टिकल 19 (1) (ए) और आर्टिकल 19 (2) पर मौरेलिटी समेत विभिन्न आधार पर रोक लगाने की इजाजत दी गई है। ठीक इसी प्रकार संविधान में मौरेलिटी के आधार पर फ्रीडम ऑफ एसोसिएशन पर भी रोक लगाने की इजाजत दी गई। ऐसे में देखे जाए तो आर्टिकल 19 (1) और आर्टिकल 19 (4) संवँधानिक नैतिकता या कांस्टीट्यूशन मौरेलिटी लोगों के मौलिक अधिकारों पर रोक लगाने के लिए है। क्या हम जब संवैधानिक नैतिकता की बात करते हैं, तो इसी पर बात की जानी चाहिए़?

मैं जजों की भूमिका दोबारा स्थापित करना चाहूंगा
सीजेआई ने जुडिशियल एकेडमी के ट्रेनिंग ले रहे जुडिशियल अफसरों से कहा कि मैं जजों की भूमिका को जनता के सेवक के तौर पर दोबारा स्थापित करना चाहूंगा। जब आप खुद को सेवा करने वाले शख्स के तौर पर देखते हैं, तो आप दूसरों के बारे में जजमेंटल नहीं होते। आप अपने अंदर करुणा, सहानुभूति और दूसरों के साथ न्याय करने की धारणा लाते हैं।

सजा सुनाते वक्त जजों में होनी चाहिए करुणा भाव
सीजेआई ने कहा कि किसी को क्रिमिनल केस में सजा सुनाते वक्त भी जज के अंदर एक करुणा का भाव होना चाहिए,क्योंकि आखिरकार एक इंसान को सजा दी जा रही है। संवैधानिक नैतिकता की ये अवधारणाएं न सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के जजों, बल्कि, हाईकोर्ट और डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के जजों के लिए भी अहम है। आम लोगों की न्यायापालिका में सबसे अहम और पहली भागीदारी डिस्ट्रिक्ट जुडिशियरी से ही शुरू होती है।

न्यायपालिका के कामकाज में हो तकनीक का इस्तेमाल
सीजेआई ने कहा कि न्यायपालिका के कामकाज में तकनीक का इस्तेमाल होना चाहिए। आम लोगों में कोर्ट के आदेशों को समझने में भाषा सबसे बड़ी बाधा है। तकनीक हमें इस बात का समाधान दे सकता है। कोर्ट के ज्यादातर आदेश अंग्रेजी में लिखे होते हैं। तकनीक ने हमें कोर्ट ऑर्डर को ट्रांसलेट करने में मदद की है। हम करी 51, 000 हजार ऑर्डर को दूसरी भाषाओं में ट्रांसलेट कर रहे हैं।

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