Suspense-Thriller Movies: फिल्मी पर्दे पर दर्शकों ने कहानियों में अलग-अलग रंग देखे हैं। उन्हीं में से एक रंग है फिल्म के अंत का रोमांच बनाकर रखना। शुरुआती दौर में इन फिल्मों के क्लाइमेक्स को इतना रोचक बनाया जाता था कि दर्शक समझ नहीं पाते कि ऐसा कैसे संभव है? ऐसी फिल्मों का अंत कुछ ऐसा होता था, जो देखने वालों को चौंका देता था।
ये कहानियां कुछ ऐसे रची जाती थीं कि दर्शक उसके आकर्षण में फंस जाते थे। वे कहानी के ट्विस्ट की असलियत समझ नहीं पाते और जब राज खुलता तो ऐसा पात्र संदेहों से घिरा मिलता, जिस पर किसी की नजर नहीं जाती थी। सस्पेंस फिल्मों में चौंकाने वाले इस तरह के अंत का दौर अभी खत्म नहीं हुआ है।
नया नहीं थ्रिलर का क्रेज
पुराने दौर से लेकर अब तक कई थ्रिलर फिल्में आती रही हैं, लेकिन सभी दर्शकों को बांधने में सफल नहीं हो पाईं। याद वही फिल्में रहती हैं, जिन्होंने अपनी स्क्रिप्ट और डायरेक्शन का जादू दिखाया। पुरानी फिल्मों में ‘तीसरी मंजिल’, ‘ज्वेल थीफ’, ‘इत्तेफाक’, ‘गुमनाम’ और आज के दौर की ‘ए वेडनस-डे’, ‘बदला’, ‘हमराज’, ‘100 डेज’ के बाद आयुष्मान खुराना की फिल्म ‘अंधाधुन’ और अजय देवगन की दोनों ‘दृश्यम’ ऐसी ही फिल्में हैं, जिनके क्लाइमेक्स ने दर्शकों को चौंकने पर मजबूर कर दिया था।
‘अंधाधुन’ ने तो एक नया ट्रेंड बना दिया। इसमें एक अंधे आदमी का किरदार काफी रहस्यमय था। फिल्म की कहानी इसी के आस-पास घूमती है। इस पूरी फिल्म में अच्छा-खासा सस्पेंस बनाकर रखा गया।
विजय आनंद ने की शुरुआत
फिल्म इतिहास के पन्ने पलटे जाएं, तो हिंदी फिल्मों में मर्डर मिस्ट्री और सस्पेंस फिल्मों की शुरुआत का श्रेय विजय आनंद को जाता है। उन्होंने ‘तीसरी मंजिल’ और ‘ज्वेल थीफ’ उस दौर में बनाने की हिम्मत की, जब दर्शकों को ऐसी कहानियों का अंदाजा भी नहीं था। पर, विजय आनंद ने दर्शकों पर अपना जादू चलाया और उनकी ऐसी कई फिल्में पसंद की गईं। उन्होंने ऐसे कई प्रयोग किए, जो सस्पेंस से लबरेज थे।
दर्शकों को भाती हैं ऐसी फिल्में
फिल्मों में सस्पेंस और थ्रिलर हमेशा ही दर्शकों की पसंदीदा जॉनर रही हैं। उन्हें ऐसी सस्पेंस फिल्में ही ज्यादा पसंद आती हैं, जिसके अंत के बारे में सारे अनुमान गलत निकलें। फिल्म के क्लाइमेक्स में ऐसा शख्स सामने आए, जिसका दर्शकों ने अनुमान भी नहीं लगाया हो! ऐसी ही फिल्में दर्शकों को बांधने वाली होती हैं। इसीलिए दर्शक सस्पेंस, थ्रिलर और मर्डर मिस्ट्री देखना पसंद करते हैं।
अलग-अलग होते हैं जॉनर
हालांकि ये तीनों ही अलग-अलग शैलियां हैं। थ्रिलर फिल्मों में एक्शन होता है, लेकिन सस्पेंस नहीं। उनमें सस्पेंस की घटनाएं होती हैं, जिनका राज धीरे-धीरे खुलता रहता है। सस्पेंस फिल्म में न तो रहस्य जरूरी है और न एक्शन। इनमें चौंकाने वाले सीन ज्यादा होते हैं, जो दर्शक को सोचने का मौका भी नहीं देते। मिस्ट्री और सस्पेंस थ्रिलर फिल्में एक जैसी नहीं होती हैं। दोनों का ट्रीटमेंट अलग-अलग होता है।
सस्पेंस फिल्मों में राज धीरे-धीरे खुलते हैं पर, मिस्ट्री फिल्मों में सिर्फ एक राज होता है, जिस पर से फिल्म के अंत में पर्दा उठता है। पूरी कहानी अनजान हत्यारे की खोज पर आधारित होती है। संदेह के लिए कई पात्रों को निशाने पर रखा जाता है। कभी फिल्म के नायक, नायिका या सबसे शरीफ पात्र के भी कातिल होने के हालात निर्मित किए जाते हैं। यानी दर्शकों को बांधने और उनका ध्यान बांटने के लिए कई हथकंडे रचे जाते हैं। दर्शकों को भी वही सस्पेंस फिल्में ज्यादा पसंद आती हैं, जो उन्हें चौंका दें। ‘तीसरी मंजिल’, ‘ज्वेल थीफ’, ‘कत्ल’ के बाद ‘गुप्त’ ऐसी ही रोचक फिल्में थीं, जिसके अंत का अंदाजा अनुमान से अलग था।
ये फिल्में रही हैं चर्चित
रामगोपाल वर्मा की ‘कौन’ को बॉलीवुड की बेस्ट साइकोलॉजिकल थ्रिलर फिल्म कहा जाता है। यह पूरी फिल्म घर में बंद एक लड़की (उर्मिला मातोंडकर) की कहानी है, जो अजनबी (मनोज बाजपेयी) से बचने की कोशिश में रहती है। लेकिन, फिल्म का क्लाईमेक्स दर्शकों के होश उड़ा देता है। इसी तरह की फिल्म ‘फोबिया’ भी थी, जिसमें राधिका आप्टे ने काम किया। यह फिल्म ऐसी लड़की की कहानी है, जो बाहर निकलने से डरती है और खुद को घर में बंद कर लेती है। उसका डर ही फिल्म का क्लाइमेक्स है।
सस्पेंस जॉनर पर बनी कई फिल्में
बॉबी देओल, काजोल और मनीषा कोइराला की ‘गुप्त’ बेहतरीन सस्पेंस थ्रिलर फिल्म थी। इसमें अंत तक किसी का ध्यान नहीं जाता और खलनायिका काजोल निकलती है। विद्या बालन की ‘कहानी’ और ‘कहानी-2’ दोनों ही फिल्में दर्शकों को अंत तक कुर्सी से बांधकर रखती हैं। किसी को भी अंदाजा नहीं होता कि आखिर में क्या होगा? ‘बदला’ को भी मर्डर मिस्ट्री फिल्म माना जाता है। इसे अंत तक देखने के बाद ही समझ आता है कि आखिर फिल्म कहां पहुंचती है?
हाल के वर्षों में आई सस्पेंस फिल्मों में ‘दृश्यम’ सीरीज सबसे अच्छी मानी जा सकती है। इसमें अपराधी सामने होता है, लेकिन न तो पुलिस उसे पकड़ पाती है और न दर्शकों को समझ आता है कि उसने ये सब किया कैसे होगा? इस फिल्म में कोई मार-धाड़ नहीं है और न कोई रहस्य। हत्यारा सबके सामने होता है, किंतु अपनी चतुराई से बचता रहता है। कोई ठोस सबूत न होने से पुलिस भी अंत तक उस पर हाथ नहीं डाल पाती। इसमें सस्पेंस और इमोशन का ऐसा घालमेल किया गया है कि फिल्म देखने वाले भी हत्यारे के पक्ष में नजर आते हैं। वे भी नहीं चाहते कि अपराधी पकड़ा जाए।
आज भी पसंद की जाती हैं ये फिल्में
इन्हें भी किया दर्शकों ने पसंद: यहां ऊपर जिन फिल्मों का जिक्र किया गया उनके अलावा कुछ और फिल्में जैसे-‘मेरा साया’, ‘धुंध’, ‘अपराधी कौन’, ‘कब क्यों और कहां’, ‘खिलाड़ी’, ‘वो कौन थी’, ‘डिटेक्टिव व्योमकेश बक्शी’, ‘मनोरमा सिक्स फीट अंडर’, ‘भूल-भुलैया’, ‘एक चालीस की लास्ट लोकल’,’जानी गद्दार’, ‘अगली’, ‘तलवार’ ऐसी ही फिल्में थीं, जिनका जादू दर्शकों पर जमकर चला।
प्रस्तुति- हेमंत पाल