स्वामी अवधेशानंद गिरि- जीवन दर्शन: जिंदगी में वास्तविक उन्नति का सच्चा मार्ग क्या है?

Swami Avdheshanand Giri ji maharaj Jeevan Darshan, Life Philosophy
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स्वामी अवधेशानंद जी गिरि- जीवन दर्शन: क्या बाह्य व्यथाओं के कारण हमारे भीतर का सुख, शांति और आनंद नष्ट हो जाता है?
Jeevan Darshan: जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज से आज 'जीवन दर्शन' में जानिए कि जिंदगी में वास्तविक उन्नति का सच्चा मार्ग क्या है?

swami avadheshanand giri Jeevan Darshan: 'यह समझना आवश्यक है कि आलोचना सदैव शत्रुता या ईर्ष्या का परिणाम नहीं होती, विशेषकर जब वह अपने स्नेहीजनों से आती है।' जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज से आज 'जीवन दर्शन' में जानिए कि जिंदगी में वास्तविक उन्नति का सच्चा मार्ग क्या है?

संस्कृति में माता-पिता और गुरुजनों को ईश्वर के समकक्ष माना गया है। शास्त्रों में स्पष्ट कहा गया है- 'मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव।' अर्थात् माता, पिता और आचार्य (गुरु) को देवता के समान आदर और श्रद्धा का भाव रखना चाहिए। यही भाव जीवन में आत्मोन्नति का पथ सहज रूप से प्रशस्त करता है। जीवन के विभिन्न पड़ावों पर माता-पिता एवं गुरुजन न केवल हमारा मार्गदर्शन करते हैं, अपितु हमारी न्यूनताओं को भी इंगित करते हैं।

जब जेष्ठजन हमारी आलोचना करते हैं, तो हमें विचलित या व्याकुल नहीं होना चाहिए, बल्कि उसे आत्म-सुधार का एक अमूल्य अवसर मानना चाहिए। आलोचना के पीछे उनका उद्देश्य केवल हमारी प्रगति और हमारे व्यक्तित्व का परिष्कार होता है। वे हमारे भीतर छिपी दुर्बलताओं को पहचानते हैं और उन्हें दूर करने हेतु हमें प्रेरित करते हैं।

प्रायः हम स्वयं अपने दोषों को पहचानने में असमर्थ होते हैं। हमारी दृष्टि में अपने गुण अधिक और दोष अल्प प्रतीत होते हैं। ऐसे में जब हमारे प्रियजन हमारी आलोचना करते हैं, तो वह दर्पण के समान कार्य करती है- जो हमें हमारी वास्तविक स्थिति दिखाती है। जिस प्रकार दर्पण देखकर हम अपने बाह्य स्वरूप को संवारते हैं, उसी प्रकार आलोचना सुनकर हम अपने आंतरिक स्वरूप को निखार सकते हैं।

यह समझना आवश्यक है कि आलोचना सदैव शत्रुता या ईर्ष्या का परिणाम नहीं होती, विशेषकर जब वह अपने स्नेहीजनों से आती है। इसलिए हमें आलोचना को कृतज्ञता भाव से स्वीकार करना चाहिए, न कि अपमान या अवमानना के रूप में। यह दृष्टिकोण हमें आत्म-निरीक्षण की ओर उन्मुख करता है और धीरे-धीरे हमारे भीतर चमत्कारिक सुधार एवं रूपांतरण की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है।

आत्म-निरीक्षण का ऐसा अभ्यास अत्यंत आवश्यक है। जो व्यक्ति अपने जीवन की त्रुटियों को स्वयं पहचान कर सुधार लेता है, वही वास्तविक साधक और सफल व्यक्ति बनता है। आलोचना से घबराकर यदि हम पलायन करेंगे तो जीवन में प्रगति असंभव हो जाएगी। इसके विपरीत, यदि हम आलोचना को सहर्ष स्वीकार कर उसे अपने विकास का साधन बनाएंगे, तो निःसंदेह हमारा व्यक्तित्व और जीवन दोनों दिव्य गुणों से सुशोभित होंगे। अतः माता-पिता एवं गुरुजनों के प्रति भगवदीय भाव रखना, उनकी आलोचनाओं को प्रेमपूर्वक ग्रहण करना और आत्म-निरीक्षण द्वारा सतत् आत्म-सुधार करना ही जीवन में वास्तविक उन्नति का सच्चा मार्ग है।

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