स्वामी अवधेशानंद गिरि- जीवन दर्शन: आइये, 'विश्व श्रमिक दिवस' पर हम यह संकल्प लें कि श्रम और श्रमिक दोनों की गरिमा की रक्षा करेंगे

swami avadheshanand giri Jeevan Darshan: 'प्रत्येक वर्ष 1 मई को मनाया जाने वाला 'विश्व श्रमिक दिवस' हमें यह स्मरण कराता है कि समाज और राष्ट्र के निर्माण में श्रमिकों की भूमिका अनिवार्य और अमूल्य है।' जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज से 'जीवन दर्शन' में जानिए कि आज के यांत्रिक और व्यस्त जीवन में क्या श्रमिकों के केवल आर्थिक हितों की बात करना पर्याप्त है?
श्रम मानव जीवन का मूल आधार है। यह न केवल जीविका का साधन है, अपितु आत्म-गौरव, आत्म-निर्भरता और सामाजिक समरसता का मूल स्तंभ भी है। श्रमिक वह शक्ति है, जो राष्ट्र की नींव को दृढ़ता प्रदान करती है। परन्तु यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस श्रम से समाज, उद्योग और राष्ट्र की उन्नति सम्भव होती है, उसी श्रम को प्रायः उचित सम्मान और मानवीय दृष्टिकोण से नहीं देखा जाता। श्रम केवल शारीरिक परिश्रम तक सीमित नहीं है। इसमें मानसिक, बौद्धिक, भावनात्मक और चेतनात्मक सहभागिता भी सम्मिलित है। जब कोई व्यक्ति अपने कार्य में केवल शरीर ही नहीं, बल्कि मन, बुद्धि, चित्त और चेतना का समन्वय करता है, तब वह श्रम साधना का रूप ले लेता है। ऐसा श्रम न केवल उत्पादक होता है, बल्कि नवोन्मेष, संवेदना और आत्मिक तृप्ति का स्रोत भी बनता है।
उत्कृष्ट परिणाम प्राप्त करने हैं, तो हमें अपने श्रमिकों को केवल संसाधन के रूप में नहीं, एक भावनात्मक इकाई के रूप में देखना होगा। श्रमिकों की कुशलता, मानसिक दृढ़ता और संस्थान के प्रति जुड़ाव- ये सभी परिणामों की गुणवत्ता को सीधे प्रभावित करते हैं। यदि श्रमिक मानसिक रूप से सशक्त होंगे, तो वे नई दृष्टि, नवाचार और समर्पण के साथ कार्य करेंगे।
आज के यांत्रिक और व्यस्त जीवन में श्रमिकों के केवल आर्थिक हितों की बात करना पर्याप्त नहीं है। हमें उनके शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य की भी चिंता करनी चाहिए। कार्यस्थल पर सम्मान, सुरक्षा, संवाद और सहभागिता का वातावरण श्रमिकों को न केवल उत्साही बनाता है, बल्कि संस्थान की प्रगति में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
प्रत्येक वर्ष 1 मई को मनाया जाने वाला 'विश्व श्रमिक दिवस' हमें यह स्मरण कराता है कि समाज और राष्ट्र के निर्माण में श्रमिकों की भूमिका अनिवार्य और अमूल्य है। यह दिवस केवल एक औपचारिकता न होकर, एक आत्म-चिन्तन का अवसर होना चाहिए कि हम अपने श्रमिकों को कितना सम्मान देते हैं, उनकी कितनी सुनते हैं और उन्हें किस हद तक विकास की प्रक्रिया में सहभागी बनाते हैं।
श्रम केवल जीविका नहीं, एक साधना है- जिसमें परिश्रम, आत्म-गौरव, योगदान और सृजन का भाव समाहित होता है। यदि हम अपने श्रमिकों को समुचित सम्मान, सुरक्षा और सशक्तिकरण प्रदान करें, तो न केवल संस्थाएँ, बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्र प्रगति के शिखर को छू सकता है। इस 'श्रमिक दिवस' पर आइये ! हम यह संकल्प लें कि हम श्रम और श्रमिक- दोनों की गरिमा की रक्षा करेंगे और उन्हें एक समृद्ध, सशक्त और सम्मानजनक जीवन प्रदान करने में अपनी भूमिका निभायेंगे।
