स्वामी आदित्यवेश का लेख : सामाजिक उत्थान के अग्रदूत श्रद्धानंद
समाजशास्त्र का यह नियम है कि असाधारण परिस्थिति उत्पन्न होने पर महान आत्मा के हृदय में असाधारण- स्फुरण हो जाता है, असाधारण क्रियाशक्ति जो उसे समकालीन मानव-समाज से बहुत ऊँचे ले जाकर शिखर पर खड़ा कर देती है। ऐसा स्वामी जी ने कर के दिखाया। इतिहास इस बात का गवाह है कि उस दिन जनता की जीत हुई। स्वामी जी के इन सब कार्यों के लिए स्वयं गांधी जी ने स्वामी श्रद्धानंद जी को दिल्ली का दिलवाला कह कर संबोधित किया था। आजादी के आंदोलन के साथ साथ स्वामी श्रद्धानंद जी ने सामाजिक उत्थान के लिए भी कई मुहिम प्रारम्भ की। जिनका समाज में बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ा।

स्वामी आदित्यवेश
स्वामी आदित्यवेश
कई समाजशास्त्री कहते हैं कि जब हम वैयक्तिक या सामाजिक रूप से किसी भौतिक या सामाजिक विकट परिस्थिति से घिर जाते हैं, तब हममें या समाज में उस कठिन परिस्थिति, समस्या को हल करने के लिए एक असाधारण क्रिया-शक्ति, असाधारण स्फुरण उत्पन्न हो जाता है। भौतिक अथवा सामाजिक विषम परिस्थिति हमें मटियामेट न कर दे, इसलिए परिस्थिति के आह्वान, उसकी ललकार, उसके चैलेंज के प्रति जो व्यक्ति प्रतिक्रिया करने के लिए उठ खड़े होते हैं, चैलेंज का उत्तर देते हैं, वे अपने को और समाज को बचा लेते हैं। जो समाज को नया मोड़ देते हैं वे ही समाज के नेता कहलाते हैं। जब समाज किसी उलझन में पड़ जाता है तब उसमें से निकलना तो हर कोई चाहता है, हर व्यक्ति की यही इच्छा होती है कि यह संकट दूर हो, परन्तु हर कोई उस चैलेंज का सामना करने के लिए अखाड़े में उतरने को तैयार नहीं होता। विक्षुब्ध समाज का असंतोष, उसकी बेचैनी जिस व्यक्ति में प्रतिबिम्बित हो जाती है, और जो व्यक्ति उस असन्तोष का सामना करने के लिए खड़ा होता है, वही जनता की आशाओं का सरताज होता है। स्वामी श्रद्धानन्द के जीवन को इसी दृष्टि से देखा जाता है। वे समय की चुनौती का, समय की ललकार का जीता-जागता जवाब थे।
1919 के अन्त में अमृतसर में कांग्रेस का जो अधिवेशन हुआ। उसने देश की राजनीति में युग परिवर्तन कर दिया था। कांग्रेस का वह अधिवेशन बड़ा महत्वपूर्ण था। वह अधिवेशन उस समय किया गया था जब पंजाब के वक्षःस्थल पर मार्शल लॉ की संगीनों द्वारा किए हुए घाव हरे थे और जनरल डायर के हुक्म से जलियांवाला बाग में चलाई गई बन्दूकों की प्रतिध्वनि अभी शान्त नहीं हुई थी। उस समय देश के तीव्र विक्षोभ और क्रोध को प्रकट करने के लिए अमृतसर में राष्ट्रीय महासभा का वृहद् अधिवेशन बुलाया गया था। उसके स्वागताध्यक्ष स्वामी श्रद्धानंद नियुक्त हुए थे। जब यह निश्चय किया गया कि कांग्रेस का अधिवेशन अमृतसर में हो, तब सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह खड़ा हुआ कि उसके प्रबन्ध की जिम्मेदारी कौन ले। समय की कमी और कार्य की कठिनाइयां तथा अंग्रेजों के अत्याचार की दहशत को देखकर कांग्रेस के अन्य कार्यकर्ता घबरा रहे थे। आजादी के आंदोलन में आई निराशा व हताशा को तोड़ने का कार्य इस अधिवेशन के माध्यम से हुआ। सफल आयोजन के बाद आजादी के आंदोलन में गांधी युग की शुरुआत हुई। ये सब संभव हो पाया तो स्वामी श्रद्धानंद के अदम्य साहस ओर संगठन शक्ति के बल पर। उससे पहले की एक और घटना उल्लेखनीय है। आजादी के आंदोलन को मजबूत करने के लिए हिन्दू मुस्लिम एकता की बहुत आवश्यकता थी। उस समय स्वामी श्रद्धानंद दिल्ली में हिन्दू मुस्लिम एकता की सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरे। उत्तेजना के उस काल में जबकि हिन्दुओं और मुसलमानों का खून मिलकर दिल्ली की सड़कों पर बह रहा था, इस वीर आर्य संन्यासी ने मजहब या जाति-पाति का विचार किए बिना दिल्ली के नागरिकों की सेवा की थी। 4 अप्रैल, 1919 को मुसलमानों ने भी अपना नेता मानकर उन्हें भारत की सबसे बड़ी और विख्यात मस्जिद जामा मस्जिद दिल्ली के मिम्बर पर बैठाकर उनका अनुपम सम्मान किया। संसार के इतिहास में यह पहला अवसर था, जबकि एक गैर मुस्लिम को मस्जिद के मिम्बर से उपदेश देने की अनुमति दी गई थी। उन्होंने वहां से देश के लोगों से आजादी के आंदोलन में मिलकर लड़ने का आह्वान किया। ये उस समय आजादी के आंदोलन को ताकत देने की सबसे बड़ी व सार्थक पहल थी।
स्वामी श्रद्धानंद किस प्रकार चुनौती का सामना करते थे, इसके एक नहीं अनेक उदाहरण हैं। रोलेट एक्ट के विरोध में जब पूरे देश में आंदोलन चल रहा था तो महात्मा गांधी को गिरफ्तार कर लिया गया। उस समय दिल्ली में स्वामी श्रद्धानंद ने इसके विरोध में बहुत बड़ी जनसभा का आयोजन किया। भीड़ जुलूस के रूप में लाल किले की ओर बढ़ी। स्वामीजी के नेतृत्व में जब जनता का जुलूस दिल्ली के घंटाघर की तरफ बढ़ता जा रहा था, तब गोरे सिपाहियों ने जुलूस को रोकने ने के लिए गोली चलाने की धमकी दी थी। यह धमकी उनके लिए भारत माता की बलिवेदी पर अपने को कुर्बान कर देने की ललकार थी। साधारण मिट्टी के लोग उस धमकी को सुनकर ही तितर-बितर हो जाते, परन्तु श्रद्धानन्द ही थे जिसने छाती तानकर गोरों को गोली चलाने के लिए ललकारा। समाजशास्त्र का यह नियम है कि असाधारण परिस्थिति उत्पन्न होने पर महान आत्मा के हृदय में असाधारण- स्फुरण हो जाता है, असाधारण क्रियाशक्ति जो उसे समकालीन मानव-समाज से बहुत ऊंचे ले जाकर शिखर पर खड़ा कर देती है। ऐसा स्वामीजी ने कर के दिखाया। इतिहास इस बात का गवाह है कि उस दिन जनता की जीत हुई। उनके कार्यों के लिए स्वयं गांधीजी ने स्वामी श्रद्धानंद को दिल्ली का दिलवाला कहकर संबोधित किया था।
आजादी के आंदोलन के साथ स्वामी श्रद्धानंद ने सामाजिक उत्थान के लिए कई मुहिम शुरू की। जिनका समाज में बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ा। 1890 में देश में आर्य समाज के द्वारा पहले महिला महाविद्यालय की स्थापना उन्होंने जालन्धर में लाला देवराज के साथ मिलकर की। 1889 में सद्धर्म प्रचारक साप्ताहिक पत्रिका निकाली जो पहले उर्दू में फिर हिंदी में प्रकाशित की गई। प्राचीन शिक्षा प्रणाली की पुनर्स्थापना के लिए 1902 में गुरुकुल कांगड़ी की नींव रखी। 1911 में गुरुकुल कुरुक्षेत्र व 1916 में गुरुकुल इंद्रप्रस्थ की स्थापना की। 6 दिसम्बर 1913 को भागलपुर के चतुर्थ हिंदी सम्मेलन में संबोधित करते हुए हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने का आह्वान किया। 1919 के कांग्रेस अधिवेशन में पहली बार स्वागताध्यक्ष का भाषण हिंदी में हुआ। इसी में उन्होंने अस्पृश्यता निवारण मुहिम चलाने का निवेदन किया। जिसे कांग्रेस ने अपने एजेंडा में शामिल भी किया। 1921 में दलितों की समानता का आंदोलन दलितोद्धार शुरू किया। 1922 में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गए। 1923 में दिल्ली में शुद्धि सभा की स्थापना। 23 दिसम्बर 1926 को एक मतान्ध युवक ने स्वामी श्रद्धानंद की गोलियां मारकर हत्या कर दी। इस घटना के बारे में जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा उस साल 1926 के आखिरी में हिंदुस्तान घृणा व रोष से कांप उठा था। जिस पुरुष ने गोरखों व अंग्रेजों की संगीनों के सामने अपनी छाती खोल दी थी उस महान योद्धा को चारपाई पर बीमारी की अवस्था में एक धर्मांध व्यक्ति ने कत्ल कर दिया।
स्वामी श्रद्धानंद ने पूरे जीवनभर चुनौतियों का सामना किया तथा उन्होंने समाज के सामने सर्वप्रथम स्वयं को उदाहरण बनाकर प्रस्तुत किया। आज आजादी के अमृत महोत्सव पर उनको याद करते हुए उनके बलिदान दिवस पर उनके कार्यों को आगे बढ़ाने का संकल्प लेंगे तो ही उनको सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित कर पाएंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)