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ओमकार चौधरी का लेख: नाम बदल दो फास्ट टैग का

जिस समय फास्ट टैग को अनिवार्य किया गया था, तब केन्द्रीय मंत्री नितिन गड़करी ने यह दावे किए थे कि वाहन टोल प्लाजा पर फर्राटा भरते हुए निकल जाएंगे। हकीकत यह है कि कुछ को छोड़कर अधिकांश टोल प्लाजा पर अब भी लंबी-लंबी लाइन लग रही हैं और जो लोग सवाल उठाते हैं, उन्हें टोल प्लाजा के प्रबंधकों की अभद्रता का सामना करना पड़ रहा है। इनके गैर पेशेवराना रवैये से फास्ट टैग व्यवस्था साल भर के भीतर ही पूरी तरह दम तोड़ चुकी है।

ओमकार चौधरी का लेख: नाम बदल दो फास्ट टैग का
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किसी टोल प्लाजा पर यदि सौ के करीब गाड़ियां चार-चार लाइन में एक किलोमीटर तक खड़ी हों तो इसे टोल प्लाजा संचालकों की विफलता, नाकामी और लोगों को परेशान करने की प्रवृत्ति माना जाएगा या नहीं। और यदि लोग गाड़ियों से उतरकर आगे पहुंचकर विरोध जाहिर करें और उनसे कैफ़ियत तलब करें कि फास्ट टैग के बावजूद उन्हें आधा-आधा घंटे तक लाइन में खड़े होने के लिए क्यों विवश किया जा रहा है और टोल प्लाज़ा संचालक और प्रबंधक उनके साथ गाली-गलौज और धमकी देने पर देने आमादा हो जाएं तो ऐसे लोगों के खिलाफ हाइवे अथोरिटी को सख्त कार्रवाई करनी चाहिए या नहीं। क्या ऐसे लोगों को टोल प्लाजा की व्यवस्थाएं दी जानी चाहिए, जो प्रधानमंत्री मोदी और परिवहन मंत्री नितिन गड़करी के उन प्रयासों को पलीता लगाने का काम कर रहे हैं जो वो सड़कों पर यात्रियों के आवागमन को सुविधाजनक बनाने में जुटे हैं। वस्तुस्थिति यह है कि फास्ट टैग को अनिवार्य किए हुए एक साल भी पूरा नहीं हुआ है और यह व्यवस्था पूरी तरह निरर्थक सिद्ध कर दी गई है। इस व्यवस्था को विफल करने वाले कोई और नहीं, टोल प्लाजा ही है।

जिस समय चौड़ी सड़कों के हाइवे और एक्सप्रेस वे बनाने की मुहिम शुरू की गई थी, तब एक वर्ग ने लोगों से भारी भरकम टोल टैक्स लिए जाने को अव्यावहारिक और बेतुका बताया था। उनका तर्क था कि यह तो सरकार की जिम्मेदारी है कि वह लोगों के लिए बाधा रहित और तेज गति की यात्रा की व्यवस्था करे। इसका चार्ज क्यों वसूला जा रहा है, परंतु सरकार तब संसद में प्रस्ताव ले आई और उसे क़ानूनी रूप दे दिया गया। देशभर में जो भी हाइवे एक्सप्रेस वे बने हैं उन पर लोगों से टोल टैक्स वसूला जाता है। जो बन रहे हैं, उन पर भी वसूला जाएगा, परंतु जिस मक़सद से ये हाइवे और एक्सप्रेस वे बनाए गए हैं या बनाए जा रहे हैं, क्या वह पूरा हो पाया है। कह सकते हैं कि वाहन तेज गति से दौड़ने लगे हैं। लोग पहले के मुकाबले जल्दी अपने गंतव्यों तक पहुंचने लगे हैं, परंतु वाहनों की भीड़ इस कदर बढ़ गई है कि दुर्घटनाएं भी बढ़ी हैं और स्पीड भी उतनी नहीं रह गई है।

सबसे बड़े सिरदर्द बन गए हैं टोल प्लाजा। जहां अकुशल कर्मचारी तैनात किए जा रहे हैं ताकि उन्हें कम वेतन देकर काम चला लिया जाए। उन्हें कंप्यूटर और सर्वर ठीक से हैंडल तक करने नहीं आते। पहले उन्हें सीखने की छूट दी जाती है। उनकी काम करने की स्पीड इतनी खराब होती है कि एक-एक वाहन को कई-कई मिनट का समय लग जाता है। कभी वो मशीन की खराबी बताते हैं कभी सर्वर के बैठने का बहाना बनाते हैं। कभी कोई दूसरा बहाना बनाकर आने जाने वालों को चुप कराने की कोशिश करते हैं। अकुशल कर्मचारियों, खराब क्वालिटी के कंप्यूटर्स, प्रबंधकों की सब चलता है की लापरवाह आदतों ने टोल प्लाजा को यात्रियों के लिए बहुत बड़े स्पीड ब्रेकर बनाकर रख दिया है।

टोल प्लाजा पर अचानक चलती हुई लाइन को कब बंद कर दिया जाएगा, और वाहन चालकों को दूसरी लंबी लाइन में लगने का इशारा कर दिया जाएगा, कोई नहीं कह सकता। जो वाहन चालक पहले से ही लंबी लाइन में लगे हुए हैं और बीस-तीस मिनट से अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे हैं, वो पास वाली लाइन बंद कर दिए जाने से आने वाले वाहनों को अपनी लाइन में नहीं घुसने देते। अक्सर उनमें इसे लेकर झगड़े, गाली-गलौज और मारपीट तक देखी जाती है। ऐसे में सबसे अहम सवाल यह खड़ा होता है कि हाइवे अथोरिटी ने टोल प्लाजा पर फास्ट टैग की जो व्यवस्था की है, उससे क्या फायदा हुआ है। जब फास्ट टैग को अनिवार्य किया गया था तब दावे किए गए थे कि वाहन चालक बिना रुके तेज गति से निकल जाएंगे। अगर नितिन गड़करी खुद इन टोल प्लाजा का दौरा करें तो उन्हें पता चलेगा कि वहां किस कदर अव्यवस्था और अराजकता की स्थिति है। वाहन चालक टोल प्लाजा पर तेज गति से निकलने के बजाय बीस-बीस, तीस-तीस मिनट तक जाम जैसी स्थिति में फंसे रहने को विवश कर दिए जाते हैं और जब लोगों का धैर्य जवाब दे जाता है और वो इनके प्रबंधकों की कैफ़ियत तलब करते हैं तो उन्हें धमकाने की कोशिश होती है।

यहां सबसे अहम प्रश्न यह है कि हाइवे और एक्सप्रेस वे बनाने और उन पर टोल प्लाजा के जरिए लोगों से वसूली के लिए फास्ट टैग की जो व्यवस्था की गई थी, वह फलीभूत क्यों नहीं हो रही। यानी लोगों की परेशानी कम होने का नाम क्यों नहीं ले रही। क्या हाइवे अथोरिटी ने ऐसे लोगों के हाथों में टोल प्लाजा की बागडोर सौंप रखी है, जो बिल्कुल भी पेशेवर नहीं हैं। जो व्यवस्था को बाधा रहित रखने को लेकर बिल्कुल गंभीर नहीं हैं। क्या इन लोगों को इसलिए टोल प्लाजा का प्रबंधन दे दिया गया है कि वो जान पहचान के लोग हैं। उनकी काबिलियत को नहीं आंका गया। लोग पैसा भी भर रहे हैं। जिस सुविधा के लिए जेब ढीली कर रहे हैं, वह भी नहीं मिल रही? यानी उनका टाइम उतना ही बर्बाद हो रहा है, जितना टूटी-फूटी संकरी सड़कों पर चलकर हो रहा था। तब इन हाइवे, एक्सप्रेस वे और भारी भरकम टैक्स-टोल वसूली का उन्हें क्या फायदा हुआ।

फास्ट टैग से हो सकता है, सरकार को फायदा हुआ हो। सीधा पैसा उसके खाते में जाना शुरू हो गया हो, परंतु इसका हाइवे-एक्सप्रेस वे गुजरने वाले लोगों की परेशानी में रत्ती भर भी कमी नहीं आई है। लंबी-लंबी लाइन में उन्हें पहले भी लगना पड़ता था। अब भी कुछ टोल प्लाजा को छोड़कर अधिकांश पर वही हाल है। और यह दिक्कतें तब तक रहने वाली हैं, जब तक हाइवे अथॉरिटी कुशल कर्मचारियों, अधिकारियों और प्रबंधकों की तैनाती इन टोल प्लाजा पर नहीं कर देती है। जब तक सर्वर और कंप्यूटर्स को चाक चौबंद नहीं कर देती है। जब तक इन टोल प्लाजा पर तैनात कर्मचारियों और प्रबंधकों में पेशे और दायित्वों के प्रति संवेदनशीलता का भाव नहीं होगा। इनके इस रवैये से किसी और की नहीं, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और परिवहन मंत्री नितिन गड़करी की ही छवि खराब हो रही है, जिन्होंने फास्ट टैग व्यवस्था शुरू करते समय बड़े-बड़े दावे किए थे कि गाड़ियां फर्राटा भरती हुई टोल प्लाजा से निकल जाएगी। उन्हें वहां घटों खड़े रहने की मुसीबत से छुटकारा मिल जाएगा। ज्यादातर टोल प्लाजा का रवैया जस का तस है। यदि नितिन गड़करी दस-पांच टोल प्लाजा का औचक निरीक्षण कर लें तो असलियत उनके सामने आ जाएगी कि वहां टायलेट से लेकर दूसरी जगह किस कदर गंदगी है। पीने के पानी तक की व्यवस्था नहीं है। मेडिकल सुविधा नहीं है और अब भी ट्रकों, बसों, गाड़ियों की लंबी-लंबी लाइन लोगों की सिरदर्दी बढ़ा रही हैं।

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