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युगों-युगों से अगर भारतीय जनमानस के हृदय में श्रीराम प्रतिष्ठित हैं तो इसकी अनेक वजहें हैं। उन्होंने अपनी लौकिक लीलाओं में ऐसे उच्च आदर्श, ऐसे जीवनमूल्य स्थापित किए जो संपूर्ण विश्व के मानव इतिहास में दुर्लभ है। एक राजा, पुत्र, पति, भाई, मित्र के रूप में ही नहीं मर्यादाओं का पालन करने वाले पुरुषोत्तम के रूप में भी वो पूजे जाते हैं। 

Ram Navami special: भगवान राम का जन्म चैत्र शुक्ल नवमी तिथि को कर्क लग्न में अयोध्या के राजा दशरथ के घर हुआ था। श्रीराम के जन्म के प्रयोजन के बारे में तुलसीदास जी ने लिखा है कि जब पृथ्वी पर दुराचारियों का अत्याचार बढ़ा और धर्म की हानि होने लगी तब भगवान शिव कहते हैं-
राम जनम के हेतु अनेका। परम विचित्र एक तें एका।।
जब-जब होई धरम की हानि। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी।।
तब-तब प्रभु धरि विविध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।

अर्थात राम के जन्म के अनेक प्रयोजन थे। उनका जन्म धरती पर बढ़ रहे अधर्म और पाप को समाप्त करने के लिए हुआ था। जब-जब धरती पर अधर्म बढ़ेगा प्रभु अलग-अलग रूपों में अवतरित होते रहेंगे।

रामकथा के रूप अनेक
राम ईश्वरीय अवतार होते हुए भी भारतीय मानस में बिल्कुल सहज-सरल हो उतरते हैं। तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस’ से पहले भी श्रीराम जन-जन के मन में व्याप्त थे। लोकगीतों, भजनों, कथाओं के माध्यम से रामकथा घर-घर में उपस्थित थी। तुलसी के ग्रंथ ने राम की इस सामाजिक उपस्थिति को नया आधार दिया। आमजन अपने प्रभु राम को दोहे, छंद, चौपाई और सवैया के माध्यम से जानने-गुनगुनाने लगे। ‘रामचरितमानस’ की रचना के बाद अनेक कवियों और लेखकों ने इसे आधार बनाकर अपनी-अपनी दृष्टि एवं समझ के अनुसार रामकथा का वर्णन कर गद्य एवं काव्य ग्रंथों की रचना की। 

भारत की सभी मुख्य भाषाओं में रामकथा पर आधारित कोई न कोई महत्वपूर्ण काव्य ग्रंथ उपलब्ध है। असमिया में ‘माधवकली रामायण’, बंगाली में ‘कृतिवास रामायण’ उड़िया में ‘बलरामदास रामायण’ लिखी गई। इसके अलावा मराठी में ‘भावार्थ रामायण’, कन्नड़ में ‘तोरवे रामायण’, तमिल में ‘कंबन रामायण’ और मलयालम में ‘रामचरितम’ लिखी गई। राम का व्यक्तित्व इतना विराट है कि इतने ग्रंथ लिखे जाने के बाद भी हर बार कुछ न कुछ अव्याख्यायित रह जाता है।

भारतीय संस्कार में सम्मिलित 
हमारे देश-समाज में भौतिक जीवन जीने के जो नियम बने हुए हैं, वो हमारी आध्यात्मिक चेतना से अलग नहीं हैं। कहने का अर्थ है अध्यात्म के माध्यम से जिस आत्मोत्कर्ष को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है, वह भौतिक जीवन में भी अपने आदर्शों और मूल्यों के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। जिसका प्रत्यक्ष और सशक्त प्रमाण है, श्रीराम और उनका सांसारिक जीवन। अपने मानवीय रूप में दशरथ के पुत्र और अयोध्या के राजा होने के बावजूद वह भगवान के रूप में पूजे गए। उनके नाम की महिमा इतनी व्यापक है कि जन-जन के बीच उसका प्रयोग मंत्र की तरह होता है। सिर्फ राम नाम की नैया के सहारे असंख्य भक्तों के भवसागर पार हो गए। साधकों ने सिद्धियां प्राप्त कर लीं। आराधकों ने जीवन सार्थक बना लिया। इस तरह राम, समाज के साथ संस्कार बन सदियों से चले आ रहे हैं।

आदर्श व्यक्तित्व 
यह बात सर्वविदित है कि किसी श्रेष्ठ समाज की स्थापना के लिए एक सामाजिक आदर्श की आवश्यकता पड़ती है। एक ऐसा आदर्श, जो जीवन के हर क्षेत्र में उचित मानदंड स्थापित कर सके। हमारे देश में राम के जीवन को इसी आदर्श रूप में देखा जाता है। हमारी सामासिक संस्कृति पर राम का प्रभाव अमिट है। उन्होंने अपने कार्यों से सत्य, निष्ठा, त्याग, साहस और नीति के ऐसे मानक स्थापित किए, जो सदियों बाद भी अनुकरणीय बने हुए हैं। अपनों की संतुष्टि के लिए अपने समस्त सुखों का त्याग, तपस्वी वेष में रावण जैसे अहंकारी और महाबली राक्षस की सेना पर चढ़ाई, बाली के अत्याचार से सुग्रीव की रक्षा, अहिल्या का उद्धार, लंका विजित कर विभीषण को राज्य सौंपना जैसे अनेक कार्यों से उन्होंने एक आदर्श व्यक्तित्व को गढ़ा। राम जैसा आदर्श व्यक्तित्व किसी और सभ्यता संस्कृति में दुर्लभ है। इसीलिए भारतीय समाज में राम के आदर्श सर्वोच्च माने गए हैं। 

राम राज्य की परिकल्पना
राम के व्यक्तिगत जीवन ही नहीं उनकी शासन व्यवस्था को भी आदर्श रूप में देखा जाता है। जब भी एक सुखद राज्य की बात की जाती है तो रामराज्य की परिकल्पना की जाती है। एक ऐसा राज्य, जहां राजा प्रजा के बीच कोई भेद न हो। दोनों एक ही राज धर्म, सामाजिक नियम और नैतिक रीतियों से परिचालित होते हों। प्रजा के सुख के आगे राजा का सुख कुछ भी न हो। बल्कि प्रजा के सुख में ही राजा अपना कल्याण देखे। जहां सामाजिक, आर्थिक विभेद न हो। दारिद्रय, शोषण, अन्याय असमानता न हो। राजा बनने के बाद राम ने अपनी प्रजा के सुख के लिए हर संभव उपाय किया। 

सबके राजा राम
श्रीराम जन-जन के राजा थे। नगरवासियों, वनवासियों, पिछड़ों, आदिवासियों सबने उन्हें अपने मन मंदिर में बैठाया और राम ने सबको अपने हृदय में स्थान दिया। शबरी के झूठे बेर खाकर, निषादराज की मित्रता स्वीकार करके उन्होंने सामाजिक विभेद और जाति-पाति के बंधनों को खारिज किया। इसीलिए राम निर्बल के बल और अभागों के भाग्यविधाता हैं। तुलसीदास के शब्दों में कहें तो-

सुमिरि सनेह सों तू नाम राम राय को/संबल निसंबल को, सखा असहाय को/भाग है अभागे हूं को, गुन गुनहीन को/गाहक गरीब को दयालु दानि दीन को/ कुल अकुलीन को सुन्यो है बेद साखि है/ पांगुरे को हाथ पांव अंधेरे को आखि है/माय-बाप भूखे को आधार निराधार को। ऐसे दृढ़, करुणामयी, धीर, गंभीर चरित्र वाले श्रीराम युगों-युगों तक भारतीय समाज की आस्था और विश्वास के केंद्र में बने रहेंगे।

सरस्वती रमेश

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