मुलायम सिंह यादव: पहलवानी के अखाड़े से सत्ता के शिखर तक, उत्तर प्रदेश की राजनीति का निर्णायक चेहरा

मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश की पहली 'गठबंधन युग' की राजनीति के मुख्य शिल्पकार थे। उन्होंने विभिन्न विचारधाराओं के नेताओं को एक मंच पर लाने की कला में महारत हासिल की थी, कांशीराम के साथ गठजोड़ हो या कांग्रेस का समर्थन लेना। उनकी यह क्षमता उन्हें क्षेत्रीय से ऊपर उठाकर एक राष्ट्रीय स्तर का रणनीतिकार बनाती थी, जिसने कई बार दिल्ली की सत्ता के समीकरणों को प्रभावित किया।

Updated On 2025-10-10 11:35:00 IST

मुलायम सिंह यादव को मरणोपरांत पद्म विभूषण (2023) से सम्मानित किया गया। उनके निधन से भारतीय राजनीति में एक युग का अंत हो गया।

लखनऊ डेस्क : इटावा के सैफई गांव में 22 नवंबर 1939 को एक साधारण किसान सुघर सिंह और मूर्ति देवी के घर जन्मे मुलायम सिंह यादव का जीवन भारतीय राजनीतिक इतिहास में संघर्ष और सामाजिक न्याय की एक महत्वपूर्ण गाथा है। अपने शुरुआती दिनों में सैफई के अखाड़े में कुश्ती का अभ्यास करने वाले इस युवक ने शायद ही कभी सोचा होगा कि वह एक दिन उत्तर प्रदेश की राजनीति के सर्वोच्च मंच पर पहुँचकर बड़े-बड़े राजनीतिक दिग्गजों को चुनौती देंगे। अपनी सहजता, किसानों से गहरे जुड़ाव और राजनीतिक कौशल के कारण उन्हें आम जनता के बीच जल्दी ही 'नेताजी' के नाम से पहचान मिली।

10 अक्टूबर को समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव की पुण्यतिथि है। इस अवसर पर उनके पैतृक गांव सैफई में उन्हें श्रद्धांजलि दी जा रही है। समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव सहित पार्टी के तमाम बड़े नेता और कार्यकर्ता सैफई पहुँचे हुए हैं, जहाँ वे 'नेताजी' को याद कर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं।

मुलायम सिंह यादव ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही पूरी की। उन्होंने राजनीति विज्ञान में स्नातक और स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल की और फिर शिक्षक के रूप में अपना करियर शुरू किया। वर्ष 1963 में वह करहल के जैन इंटर कॉलेज में अध्यापक बने। अध्यापन के दौरान ही वे छात्र राजनीति में सक्रिय हुए और भारतीय समाजवाद के पुरोधा राम मनोहर लोहिया और राज नारायण जैसे नेताओं से गहराई से प्रभावित हुए। लोहिया के विचारों से प्रेरणा लेकर उन्होंने महसूस किया कि समाज के पिछड़े, शोषित और वंचित वर्गों को अधिकार दिलाने के लिए राजनीतिक सत्ता अनिवार्य है।

उनका राजनीतिक सफर 1967 में जसवंतनगर विधानसभा सीट से पहली बार विधायक चुने जाने के साथ शुरू हुआ। इस जीत के बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। देश में 1975 में लगी इमरजेंसी के दौरान उन्हें 19 महीने जेल में भी रहना पड़ा, लेकिन इस अनुभव ने उनके राजनीतिक संकल्प को और मजबूत किया। वर्ष 1977 में जनता पार्टी की लहर में वे मात्र 38 वर्ष की आयु में राम नरेश यादव सरकार में सहकारिता मंत्री बने। इस दौरान उन्होंने एक कुशल प्रशासक के रूप में अपनी छवि स्थापित की, जो किसानों और पिछड़े वर्गों के हितों को प्राथमिकता देता था।

समाजवादी पार्टी का गठन और मुख्यमंत्री का कार्यकाल

1980 के दशक में मुलायम सिंह यादव का राजनीतिक कद तेजी से बढ़ा। वह लोक दल के प्रदेश अध्यक्ष बने और 1985 तथा 1989 में पुनः विधायक चुने गए। उनकी राजनीतिक यात्रा का सबसे बड़ा मुकाम तब आया जब 1989 में जनता दल की लहर में वह पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। यह पहला अवसर था जब एक मजबूत समाजवादी पृष्ठभूमि के नेता ने यूपी की कमान संभाली। अपने पहले कार्यकाल में उन्होंने किसान कल्याण और पिछड़ा वर्ग आरक्षण पर विशेष ध्यान केंद्रित किया।

हालांकि, 1991 में जनता दल के विघटन के कारण उनकी सरकार गिर गई। इसके बाद, 4 अक्टूबर 1992 को उन्होंने समाजवादी पार्टी की स्थापना की, जो आज भी उत्तर प्रदेश की राजनीति की एक प्रमुख शक्ति है।

1993 में उन्होंने बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन कर विधानसभा चुनाव लड़ा और भाजपा को सत्ता से बाहर रखा। इस गठबंधन के समर्थन से वह दूसरी बार मुख्यमंत्री बने। इस कार्यकाल में उन्होंने अल्पसंख्यकों के बीच विश्वास कायम करने और विकास योजनाओं पर विशेष जोर दिया। 2003 में तीसरी बार मुख्यमंत्री बनकर उन्होंने अपनी राजनीतिक स्थिरता और जनता के बीच गहरी पैठ को सिद्ध किया। अपने तीनों कार्यकालों के दौरान, उनकी प्राथमिकता हमेशा सामाजिक न्याय, पिछड़े वर्गों का उत्थान और किसान हितों की रक्षा रही।

अयोध्या कार्य सेवकों पर गोली चलने का आदेश और 'मुल्ला मुलायम' की संज्ञा

मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक जीवन का सबसे जटिल और विवादास्पद पहलू 1990 का अयोध्या घटनाक्रम है। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने 30 अक्टूबर और 2 नवंबर 1990 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद की ओर बढ़ रहे कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश दिया। उन्होंने तर्क दिया कि यह फैसला देश की संवैधानिक व्यवस्था और सांप्रदायिक सौहार्द की रक्षा के लिए आवश्यक था।

इस फैसले के परिणामस्वरूप, एक ओर मुस्लिम समुदाय और यादव-मुस्लिम चुनावी समीकरण में उनका आधार अभूतपूर्व रूप से मजबूत हुआ। वहीं दूसरी ओर, उन्हें हिंदू संगठनों और वोटरों की तीव्र नाराजगी का सामना करना पड़ा। उनके विरोधियों ने उन्हें 'मुल्ला मुलायम' की संज्ञा दी। यह घटना उनके राजनीतिक करियर के साथ स्थायी रूप से जुड़ गई और इसने उत्तर प्रदेश की राजनीति में ध्रुवीकरण को गहरा किया। यह फैसला आज भी उनके राजनीतिक इतिहास का एक अविस्मरणीय और निर्णायक हिस्सा माना जाता है।

केंद्र की राजनीति और प्रधानमंत्री पद की दौड़

मुलायम सिंह यादव का प्रभाव केवल उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं रहा। उन्होंने केंद्र की राजनीति में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1996 में, संयुक्त मोर्चा सरकार के गठन के दौरान उन्होंने देश के रक्षा मंत्री का पद संभाला। रक्षा मंत्री के रूप में उन्होंने कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए, लेकिन केंद्र सरकार की अल्पकालिक अस्थिरता के कारण उन्हें वापस उत्तर प्रदेश की राजनीति में लौटना पड़ा।

मुलायम सिंह यादव कई बार देश के प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में शामिल रहे और इस पद के करीब पहुँचे। 1996 में, जब संयुक्त मोर्चा सरकार बन रही थी, तब उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए प्रबल दावेदार माना जा रहा था। हालांकि, अन्य दलों के समर्थन और राजनीतिक समीकरणों के कारण वह यह पद प्राप्त नहीं कर पाए। उनका सात बार लोकसभा (1989 से 2019 तक) और दस बार विधानसभा में जीत का रिकॉर्ड उनकी अपार राजनीतिक शक्ति और जनता के बीच गहरी स्वीकार्यता को दर्शाता है।

राजनीतिक विरासत का हस्तांतरण और पारिवारिक संघर्ष

मुलायम सिंह यादव का एक अप्रत्यक्ष लेकिन दूरगामी फैसला 2012 में सामने आया। समाजवादी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिलने के बाद भी, उन्होंने स्वयं मुख्यमंत्री बनने के बजाय अपने पुत्र अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी, जिससे उन्होंने अपनी राजनीतिक विरासत का स्पष्ट हस्तांतरण कर दिया।

हालांकि, 2016-2017 के दौरान उनके बेटे अखिलेश यादव और उनके भाई शिवपाल सिंह यादव के बीच हुए गहरे विवाद ने पार्टी और परिवार में बड़ी टूट पैदा कर दी। यह विवाद उस समय और बढ़ गया जब अखिलेश यादव ने पार्टी अध्यक्ष पद संभाला और मुलायम सिंह यादव को 'संरक्षक' की भूमिका में आना पड़ा। इस पारिवारिक कलह का सीधा असर पार्टी के चुनावी प्रदर्शन पर पड़ा। इन उतार-चढ़ावों के बीच, उनकी दूसरी पत्नी साधना गुप्ता का निधन भी उनके लिए एक व्यक्तिगत क्षति थी।

वर्तमान परिदृश्य और नेताजी की अमिट विरासत

10 अक्टूबर 2022 को 82 वर्ष की आयु में मुलायम सिंह यादव का निधन हो गया। उनके निधन से उत्तर प्रदेश ने एक ऐसे नेता को खो दिया, जिसने दलित-पिछड़ा वर्ग की राजनीति को एक निर्णायक मोड़ दिया।

आज, उनकी विरासत को उनके बेटे अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष के रूप में आगे बढ़ा रहे हैं, और सपा उत्तर प्रदेश की राजनीति में प्रमुख विपक्षी दल बनी हुई है। मुलायम सिंह यादव की सबसे बड़ी राजनीतिक सफलता समाजवादी पार्टी का गठन करना और पिछड़े, वंचित एवं अल्पसंख्यक वर्गों को संगठित करके उन्हें राजनीतिक शक्ति प्रदान करना था। उन्होंने राज्य की राजनीति को उच्च वर्ग के प्रभुत्व से निकालकर सामाजिक न्याय के मुद्दों पर केंद्रित किया। भले ही उनके जीवन पर परिवारवाद और अयोध्या घटनाक्रम के विवाद रहे हों, लेकिन किसानों, मजदूरों और पिछड़ों के लिए उनका समर्पण, उनकी सरलता और गठबंधन की राजनीति में उनकी दक्षता उन्हें भारतीय राजनीति का एक अद्वितीय और अमिट अध्याय बनाती है।

मुलायम सिंह यादव, जिन्हें सभी दलों में सम्मान प्राप्त था, एक ऐसे नेता थे जिनकी स्वीकार्यता केवल उनके समर्थक वर्गों तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि भाजपा सहित विरोधी दलों और हर वर्ग के बीच भी थी। उन्हें हमेशा 'अपनी बात का धनी' व्यक्ति माना जाता था, जिसने उनकी सादगी और विश्वसनीयता को बढ़ाया।

​उन्होंने अपने संगठन और सरकार दोनों में सामाजिक समरसता को महत्व दिया। समाजवादी राजनीति का केंद्र बिंदु होने के बावजूद, मुलायम सिंह ने अपनी सरकारों में क्षत्रिय, ब्राह्मण और सामान्य वर्ग के तमाम बड़े नेताओं को समान रूप से मंत्री पद देकर सभी वर्गों को साथ लिया।

​राजनीतिक दूरदर्शिता और व्यक्तिगत संबंधों को महत्व देने वाले मुलायम सिंह के सभी दलों के नेताओं के साथ अत्यंत सौहार्दपूर्ण संबंध थे। इसका सबसे बड़ा प्रमाण 2019 में लोकसभा में दिया गया उनका बयान था। अपने अंतिम कार्यकाल के दौरान, उन्होंने सार्वजनिक रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पुनः प्रधानमंत्री बनने का आशीर्वाद दिया था, जो उनकी उच्च राजनीतिक परिपक्वता और व्यक्तिगत सम्मान की भावना को दर्शाता है।​ इन सभी गुणों ने मुलायम सिंह यादव को उत्तर प्रदेश की राजनीति का एक अद्वितीय और सर्वमान्य नेता बनाया।


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