High court order: बिजली निगम के कच्चे कर्मचारियों को 6 सप्ताह में करें पक्का

हरियाणा बिजली निगम में करीब 30 साल से काम कर रहे कच्चे कर्मचारियों को बड़ी राहत हाईकोर्ट से मिली है। उन्हें 6 सप्ताह में नियमित करने के आदेश हुए हैं।

Updated On 2025-09-10 17:48:00 IST

पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने सीआईएफएस कांस्टेबल की याचिका की खारिज। 

High court order : हरियाणा के बिजली निगमों में लंबे समय से कार्यरत कच्चे कर्मचारियों को लेकर पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने बुधवार को ऐतिहासिक फैसला सुनाया। अदालत ने सरकार को स्पष्ट निर्देश दिया है कि छह सप्ताह के भीतर ऐसे सभी कर्मचारियों की सेवाओं को नियमित किया जाए, जो वर्षों से निगमों में तैनात हैं। हाईकोर्ट ने चेतावनी भी दी कि अगर आदेश का पालन नहीं हुआ तो राज्य सरकार के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही शुरू की जाएगी। इस फैसले से करीब 3,500 कर्मचारियों को राहत मिलने की उम्मीद है, जो पिछले कई दशकों से संविदा, तदर्थ या अस्थायी आधार पर काम कर रहे हैं। इनमें से कुछ कर्मचारी वर्ष 1995 से लगातार सेवा दे रहे हैं। अदालत ने टिप्पणी की कि कर्मचारियों को न्याय पाने के लिए तीन दशकों में 9 बार मुकदमेबाजी का सहारा लेना पड़ा, जो सरकार की नीतिगत असफलता को दर्शाता है।

सरकार को शोषण का अधिकार नहीं

जस्टिस हरप्रीत सिंह बराड़ ने फैसले में कहा कि राज्य एक संवैधानिक नियोक्ता है और उसे यह अधिकार नहीं है कि वह स्वीकृत पदों की कमी या शैक्षणिक योग्यता की कमी का बहाना बनाकर कर्मचारियों का शोषण करे। अदालत ने साफ कहा कि जब कर्मचारी लगातार वर्षों से सेवा दे रहे हैं और निगम उनके बिना काम नहीं चला सकता, तो उन्हें अस्थायी ठेके पर रखना असंवैधानिक है।

2005 से भी हुए थे पक्ष में आदेश

याचिकाकर्ताओं ने अदालत में दलील दी कि 2005 में हाईकोर्ट ने उनके पक्ष में आदेश दिए थे और मार्च 2025 में भी उनके मामले पर पुनर्विचार करने का निर्देश दिया गया था। इसके बावजूद सरकार ने मई 2025 में यह कहकर दावा खारिज कर दिया कि नियमित पद उपलब्ध नहीं हैं। अदालत ने इस तर्क को अस्थायी और बहाना करार देते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट पहले ही स्पष्ट कर चुका है कि सरकार प्रशासनिक बाधाओं का इस्तेमाल कर कर्मचारियों को नियमित करने से नहीं रोक सकती।

प्रशासनिक लापरवाही पर सख्त टिप्पणी

हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि हरियाणा और पंजाब में लंबे समय से तदर्थवाद की प्रवृत्ति चल रही है, जिसमें सरकारें जानबूझकर नीतियां बनाकर अदालती आदेशों को दरकिनार करती रही हैं। अदालत ने कहा कि दशकों तक दैनिक वेतनभोगी और अनुबंध पर काम करने वाले कर्मचारियों से स्थायी काम लेना न केवल उनके अधिकारों का हनन है बल्कि यह समानता और सम्मान की संवैधानिक गारंटी का उल्लंघन भी है।

राज्य बजट संतुलन के नाम पर हक नहीं छीन सकता

जस्टिस बराड़ ने टिप्पणी की कि राज्य सरकार केवल एक बाजार भागीदार नहीं, बल्कि संवैधानिक नियोक्ता है। ऐसे में बजट संतुलन बनाने के लिए उन कर्मचारियों पर बोझ डालना, जो बुनियादी और नियमित काम कर रहे हैं, अनुचित है। उन्होंने कहा कि प्रशासनिक उदासीनता, जानबूझकर की गई देरी और लापरवाही जैसी प्रवृत्तियां जनता के न्याय व्यवस्था पर विश्वास को कमजोर करती हैं।

कर्मचारियों के पक्ष में महत्वपूर्ण निर्देश

अदालत ने अपने फैसले में कहा कि यदि छह सप्ताह के भीतर सरकार कर्मचारियों को नियमित करने का आदेश जारी नहीं करती है तो याचिकाकर्ताओं को अपने सहकर्मी वीर बहादुर के समान लाभ मिलेंगे। वीर बहादुर को पिछले साल नियमित किया गया था। इस स्थिति में याचिकाकर्ताओं को न केवल वरिष्ठता का लाभ मिलेगा बल्कि बकाया वेतन और अन्य सुविधाएं भी उपलब्ध कराई जाएंगी।

7 बिंदुओं पर सरकार को दिशा-निर्देश

फैसले के अनुपालन और भविष्य में ऐसी स्थितियों से बचने के लिए अदालत ने सभी राज्य संस्थाओं और विभागों को 7 प्रमुख निर्देश जारी किए। इनमें नियमित भर्ती प्रक्रिया को समय पर पूरा करने, संविदा कर्मचारियों की स्थिति स्पष्ट करने, और न्यायिक आदेशों की अनदेखी न करने पर जोर दिया गया है।

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