यहां गणेशोत्सव की अलग ही पंरपरा: नहीं स्थापित की जातीं मिट्टी की मूर्तियां, रहस्य और परंपराओं का अनूठा संगम
छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिले के गांव गोपालपुर में भगवान गणेश को लेकर एक परंपरा चली आ रही है। यहां अलग से मूर्ति स्थापित नहीं की जाती।
गोपालपुर गांव में मिट्टी की गणेश प्रतिमा स्थापित नहीं की जाती
अक्षय साहू- राजनांदगांव। भगवान गणेश की पूजा पूरे देश में उत्सव की तर्ज पर धूमधाम से मनाया जा रहा है। घर-घर गणपति बप्पा विराजमान हो रहे हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिले में एक ऐसा गांव है, जहां इस उत्सव की रौनक कुछ अलग है। यहां न तो घरों में और न ही पंडालों में मिट्टी की गणेश प्रतिमा स्थापित की जाती है। आइए जानते हैं गोपालपुर गांव की इस 200 साल पुरानी परंपरा के पीछे की रहस्यमयी कहानी।
छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिले से करीब 23 किलोमीटर दूर बसा है गोपालपुर गांव। यहां की आबादी लगभग 500 है और ज्यादातर हिंदू परिवार रहते हैं, जिनकी गणेश भगवान में गहरी आस्था है। लेकिन गणेश चतुर्थी पर यहां की गलियां और घर गणपति के जयकारों से गूंजते तो हैं, मगर मिट्टी की कोई नई प्रतिमा कहीं नजर नहीं आती। वजह है, गांव में सिर्फ एक ही मंदिर है - अष्टभुज श्री गणेश का और पूरा गांव इसी में उत्सव मनाता है। यह परंपरा ब्रिटिश काल से चली आ रही है, करीब 150 से 200 साल पुरानी।
यहीं गिरी मूर्ति, फिर कोई उठा ही नहीं पाया
ग्रामीणों की मान्यता है कि, उस समय पास के शृंगारपुर गांव से राज परिवार बैलगाड़ी में गणेश और हनुमान जी की पत्थर की मूर्तियां ला रहा था। रास्ते में गोपालपुर के मुख्य मार्ग पर गणेश जी की मूर्ति अचानक गिर गई। कई कोशिशों के बाद भी उसे हिलाया नहीं जा सका। अंत में उसी जगह पर मूर्ति स्थापित कर दी गई और बाद में मंदिर बनवाया गया। ग्रामीण बताते हैं कि यह मूर्ति स्वयंभू है, यानी खुद प्रकट हुई, और इसे हिलाने की कोशिश में असफलता मिली।
राज परिवार से जुड़ी है यह कहानी
एक और चौंकाने वाली कहानी राज परिवार से जुड़ी है। ब्रिटिश शासन खत्म होने के बाद खैरागढ़ राज परिवार यहां राज करता था। एक बार राजमहल में गणेश चतुर्थी पर मिट्टी की प्रतिमा स्थापित की गई, लेकिन अगले ही दिन परिवार के एक सदस्य की मौत हो गई। ग्रामीणों का कहना है, भगवान गणपति ने खुद सपने में आकर अलग से मूर्ति स्थापित करने से मना किया था, लेकिन नियम तोड़ा गया तो हानि हुई। इसके बाद कई बार गांववासियों ने कोशिश की, लेकिन हर बार कोशिश करने वाले को नुकसान पहुंचा। एक बार तो गांव की एक महिला ने मिट्टी की मूर्ति स्थापित करने की कोशिश की, लेकिन चतुर्थी की रात ही उसकी मौत हो गई। इन घटनाओं से डरकर गांव ने यह परंपरा अपनाई कि केवल अष्टभुज गणेश मंदिर में ही पूजा होगी।
गांव में किसी अन्य देवता का मंदिर नहीं
आज गांव में किसी अन्य देवता का मंदिर नहीं है। ग्रामीणों का विश्वास है कि, यहां की हर मनोकामना पूरी होती है, इसलिए दूसरे मंदिर की जरूरत नहीं। गणेशोत्सव में 11 दिन तक पूजा-अर्चना होती है - चतुर्थी से अनंत चतुर्दशी तक। पंडाल सजाए जाते हैं, भजन-कीर्तन होते हैं, लेकिन विसर्जन की बजाय फल-फूल और अन्य सामग्री को पास के तालाब में विसर्जित किया जाता है। मूर्ति को तालाब से लाए दो बाल्टी पानी से स्नान कराया जाता है और साल भर पूजा जारी रहती है।
साल 2006 में पेश आया अजीब वाकया
एक दिलचस्प घटना 2006 की है, जब मंदिर निर्माण के दौरान मूर्ति को नीम के पेड़ के नीचे से हटाने की कोशिश की गई। 20-25 युवकों ने प्रयास किया लेकिन असफल रहे। अगले दिन सेवक गोरे लाल पटेल को सपना आया, उसके बाद मूर्ति आसानी से हिल गई और अब मंदिर में विराजमान है। गोरे लाल कहते हैं, हमारे दादा-परदादा बताते थे कि, सिंगारपुर के राजा यहां रहते थे। वे गणेश और हनुमान जी की मूर्तियां लाए, लेकिन गणेश जी यहां रुक गए।
यहीं भगवान की इच्छा
इस अनोखी परंपरा से गोपालपुर गांव न सिर्फ आस्था का प्रतीक है, बल्कि एक ऐतिहासिक रहस्य भी। ग्रामीणों का कहना है कि यह परंपरा कभी नहीं टूटेगी, क्योंकि यह भगवान की इच्छा है।