खबर का असर: पेड़ काटने वाले अज्ञात आरोपियों के खिलाफ केस दर्ज, तलाश में जुटी डॉग स्क्वाड की टीम
सेमरसोत अभयारण्य में पेड़ों की कटाई मामले में अज्ञात आरोपियों के खिलाफ केस दर्ज कर लिया गया है। डॉग स्क्वाड की मदद से लकड़ी तस्करों को ढूंढा जा रहा है।
हरिभूमि डॉट कॉम में खबर प्रकाशित होने के बाद हरकत में आया वन विभाग
कृष्ण कुमार यादव - बलरामपुर। छत्तीसगढ़ के बलरामपुर जिले के सेमरसोत अभयारण्य से पेड़ों की कटाई का मामला सामने आया था। यहां पर तस्कर रात के अंधेरे का फायदा उठाकर धड़ल्ले से तस्करी कर रहे थे। इसके बाद मामले में हरिभूमि डॉट कॉम में प्रमुखता से खबर प्रकाशित की गई थी। वहीं अब इस खबर का बड़ा असर हुआ है। मामले में वाइल्ड लाइफ डीएफओ और एसडीओ ने संज्ञान लिया है। मौके पर अफसर सेमरसोत अभयारण्य पहुंचे हुए हैं।
अवैध कटाई के मामले में अज्ञात के विरुद्ध भारतीय वन अधिनियम 1927 एवं वन्यप्राणी संरक्षण अधिनियम के तहत मामला दर्ज कर लिया है। लकड़ी तस्करों को ढूंढने तमोर पिंघला टाइगर रिजर्व से डॉग स्क्वाड बुलाया गया है। वहीं काटे गए 4 साल पेड़ों की लकड़ी को निस्तार डीपो बलरामपुर लाया गया है।
क्या है पूरा मामला
सेमरसोत अभयारण्य में रात के अंधेरे में साल और सागौन के विशाल पेड़ों की कटाई कर लकड़ी की तस्करी खुलेआम चल रही है। स्थिति फिल्म ‘पुष्पा’ की कहानी जैसी लगती है, फर्क सिर्फ इतना है कि यह सब रील नहीं, बल्कि रियल जंगलों को निगल रहा सच है। एनएच-343 के किनारे बसे इन जंगलों में हो रही लगातार कटाई के बावजूद विभाग का मौन ग्रामीणों के मन में नए सवाल खड़े कर रहा है।
साल, सागौन तस्करी का नया अड्डा
ग्राम कंडा के जंगलों में रात होते ही एक अलग ही हलचल शुरू हो जाती है। ग्रामीण बताते हैं कि अंधेरे का फायदा उठाकर तस्कर आधुनिक लकड़ी काटने वाली मशीनों से बड़े-बड़े सागौन के पेड़ों को गिरा रहे हैं। कटे हुए पेड़ों के ठूंठ यह साफ बताते हैं कि पिछले कुछ ही दिनों में जंगल का बड़ा हिस्सा उजाड़ दिया गया है।
ग्रामीणों के लिए ‘दातून’ भी अपराध, पर तस्करों को खुली छूट
अभ्यारण्य क्षेत्र में वनोपज संग्रह को लेकर कड़े नियम लागू हैं। ग्रामीण बताते हैं कि उन्हें जंगल से साधारण दातून तक लाने की अनुमति नहीं है, और ऐसा करने पर वन अमला तुरंत कार्रवाई करता है। लेकिन उन्हीं जंगलों में रात के अंधेरे में बड़े-बड़े सागौन के पेड़ काटे जा रहे हैं और विभाग के जिम्मेदार अधिकारी मौन हैं। यही कारण है कि ग्रामीणों के बीच वन विभाग की भूमिका को लेकर गंभीर अविश्वास है। उन्हें लगता है कि इतने बड़े स्तर पर पेड़ों की कटाई किसी न किसी मिलीभगत के बिना संभव नहीं हो सकती।
जंगल हमने बचाया, सुविधा किसी ने नहीं दी- ग्रामीणों की पीड़ा
कंडा के ग्रामीणों की पीड़ा सिर्फ पेड़ों की कटाई तक सीमित नहीं है। उनका कहना है कि उन्होंने वर्षों तक इन जंगलों को बचाए रखा, लेकिन उनके गांव में आज तक बिजली जैसी मूलभूत सुविधा भी नहीं पहुंची। कई पीढ़ियाँ इसी आशा में बीतीं कि प्रकृति की सुरक्षा करने वालों को सरकार भी कुछ सुविधा देगी, पर ऐसा नहीं हुआ।
कटाई की जानकारी है पर रोक नहीं पाते- वनकर्मी
अभ्यारण्य क्षेत्र के एक वनकर्मी ने स्वीकार किया कि लकड़ी की कटाई की जानकारी उन्हें है, लेकिन वे इसे रोकने में सक्षम नहीं हैं। कारण यह बताया गया कि गांव में उनका सरकारी आवास नहीं है, और उन्हें रोज़ाना मुख्यालय बलरामपुर से आना-जाना पड़ता है। उनका कहना था कि तस्कर रात में सक्रिय हो जाते हैं और जब तक वे मौके पर पहुँचते हैं, तब तक कटाई और तस्करी दोनों पूरी हो चुकी होती हैं। यह स्वीकारोक्ति साफ दिखाती है कि क्षेत्र में प्रभावी निगरानी तंत्र का अभाव है और तस्कर इसी का फायदा उठा रहे हैं।
संवर्धन पर काम जारी- अधिकारी
स्थानीय अधिकारियों ने दावा किया कि वे पेड़ों के संवर्धन पर काम कर रहे हैं और कटाई रोकने के लिए गश्त भी बढ़ाई गई है। लेकिन जमीनी हकीकत इन दावों से बिल्कुल विपरीत है। ग्रामीण बताते हैं कि जंगल में न तो संवर्धन गतिविधियाँ दिखती हैं और न ही गश्त। विभाग की यह चुप्पी और कागजी कार्रवाई की संस्कृति यह दर्शाती है कि समस्या केवल तस्करों की नहीं है, बल्कि व्यवस्था में भी गंभीर कमियाँ हैं।