शहादत दिवस पर विशेष: छत्तीसगढ़ के प्रथम शहीद- वीर नारायण सिंह, अत्याचार के विरुद्ध उठी बुलंद आवाज की अनूठी कहानी

छत्तीसगढ़ के वर्तमान बलौदा बाजार जिले के सोनाखान में जन्में अमर शहीद वीरनारायण सिंह ने कहा था- मां, मैं लौटूंगा नहीं… पर तुम्हारी धरती को बचा जाऊँगा।

Updated On 2025-12-10 12:27:00 IST

शहीद वीर नारायण सिंह स्मारक  

कुश अग्रवाल- बलौदा बाजार। छत्तीसगढ़ की धरती जन संघर्षों और वीरों की गाथाओं से अटी पड़ी है। इन्हीं वीर सपूतों में सबसे अग्रणी नाम है—शहीद वीर नारायण सिंह का, जिन्हें प्रदेश का प्रथम शहीद माना जाता है। आज 10 दिसंबर को उनका शहादत दिवस मनाया जाता है। इस अवसर पर उनकी जीवनगाथा और बलिदान को याद करते हुए प्रदेशभर में श्रद्धांजलि कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।

1795 में जन्मा एक क्रांतिकारी व्यक्तित्व
वीर नारायण सिंह का जन्म बलौदा बाज़ार जिले के घने जंगलों से घिरे सोनाखान में एक जमींदार परिवार में हुआ। पिता रामराय और बिंझावार समुदाय की सांस्कृतिक जड़ें उनके व्यक्तित्व में न्याय, नेतृत्व और जनसेवा के संस्कार बचपन से ही रोपित कर गईं। स्थानीय ग्रामीण उन्हें संरक्षक, मसीहा और साहसी नेतृत्वकर्ता के रूप में देखते थे।

अकाल और अन्याय के खिलाफ खड़ा हुआ एक नायक
सन् 1856 में छत्तीसगढ़ भीषण अकाल की चपेट में था। जनता भूख से तड़प रही थी, जबकि व्यापारी अपने गोदामों में अनाज छिपाए बैठे थे। गरीबों की पीड़ा सहन न कर पाने पर वीर नारायण सिंह ने पहले व्यापारियों से अनाज मांगा, इंकार मिलने पर जनता की रक्षा के लिए गोदाम कब्जे में लेकर अनाज गरीबों में वितरित कर दिया। यह ऐतिहासिक कदम उनके जनविद्रोह की शुरुआत बना। 

अंग्रेजों से टक्कर—गिरफ्तारी और साहसिक फरारी
उनकी बढ़ती लोकप्रियता से भयभीत अंग्रेज अधिकारियों ने 24 अक्टूबर 1856 को उन्हें गिरफ्तार कर रायपुर जेल में डाल दिया। लेकिन स्वतंत्रता की लौ उनके भीतर प्रज्ज्वलित थी। साथियों की सहायता से उन्होंने सुरंग बनाकर जेल से एक साहसिक पलायन कर दिखाया, जिसने उन्हें जनता का नायक और अंग्रेजों के लिए चुनौती बना दिया।

अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संग्राम की तैयारी
जेल से मुक्त होकर वे सोनाखान लौटे और आदिवासी समाज को संगठित कर सशस्त्र आंदोलन खड़ा किया। उन्होंने करीब 500 लोगों की बंदूकधारी सेना तैयार की, जो अंग्रेजों पर छापामार शैली में हमला कर उन्हें भयभीत करती रही। कुरु पाठ की दुर्गम पहाड़ियों को केंद्र बनाकर उन्होंने अंग्रेज शासन के दाँत खट्टे कर दिए।

विश्वासघात और पुनः गिरफ्तारी
रणनीति और वीरता का सामना न कर पाने पर अंग्रेजों ने स्थानीय मुखबिरों की मदद से उन्हें दोबारा गिरफ्तार कर लिया। मुकदमा चलाकर 9 दिसंबर 1857 को अंग्रेज न्यायाधीश सी. एलियट ने उन्हें फांसी की सजा सुनाई।


10 दिसंबर 1857—अमर बलिदान का दिन
अगले ही दिन 10 दिसंबर को रायपुर के ऐतिहासिक जय स्तंभ चौक में उन्हें फांसी दे दी गई। उनकी शहादत से भयभीत अंग्रेजों ने उनके शव को छह दिनों तक फांसी पर लटकाए रखा और अंत में उसे तोप से बांधकर उड़ा दिया। फांसी से पहले उनकी अंतिम पंक्ति—

'मुझे गर्व है कि, मैं अपनी धरती के लिए मर रहा हूं' आज भी छत्तीसगढ़ की आत्मा में गूंजती है।

सम्मान और स्मृति
1987 में भारत सरकार ने 60 पैसे का डाक टिकट जारी कर उन्हें राष्ट्रीय सम्मान दिया। वहीं छत्तीसगढ़ सरकार ने रायपुर के अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम का नाम शहीद वीर नारायण सिंह अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम रखकर उन्हें शत–शत नमन किया। प्रत्येक वर्ष 10 दिसंबर को सोनाखान में जिला प्रशासन द्वारा दो दिवसीय कार्यक्रम आयोजित कर उनकी पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है।

शहादत की सीख
वीर नारायण सिंह का बलिदान सिखाता है कि अन्याय, दमन और अत्याचार के विरुद्ध खड़े होना ही सच्ची देशभक्ति है। उनकी वीरता, संघर्ष और बलिदान की गाथा हमेशा आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी।

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