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पंचमी के शुभ अवसर पर मां बम्लेश्वरी को सोने का मुकुट अर्पित किया गया। इसकी लागत लगभग 35 लाख रुपए बताई जा रही है। जो पूरे नवरात्र में भक्तों के लिए आकर्षण का केंद्र बना हुआ है।

राजा शर्मा-डोंगरगढ़। चैत्र नवरात्र का आज पांचवा दिन है। आज नव दुर्गा के कात्यायनी स्वरूप की पूजा की जाती है। इसी शुभ अवसर में आज मां बमलेश्वरी ट्रस्ट समिति एवं भक्तों के सहयोग से माता जी को लगभग 450 ग्राम सोने से बनी मुकुट भेंट की गई। इसकी लागत लगभग 35 लाख रुपए बताई जा रही है, जो पूरे नवरात्र में भक्तों के लिए आकर्षण का केंद्र बना हुआ है।

माता के दरबार में लाखों की संख्या में देश विदेश से दर्शनार्थी आते हैं। कुछ अपनी मनोकामना पूरी होने पर तो कुछ मनोकामना लेकर माता के दरबार में अपनी हाजरी लगाते हैं। मनोकामना पूरी होने पर श्रद्धालु ज्योति कलश की स्थापना करवाते हैं तो कुछ पैदल चलकर या घुटनों के बल माता के दरबार पहुंचते हैं। 

मंदिर परिसर में उपलब्ध हैं कई सुविधाएं 

मां बमलेश्वरी ट्रस्ट समिति की नई बॉडी जब से पद ग्रहण की तब से माता के दरबार में कुछ न कुछ नया देखने को मिल रहा है। पहले माता के दरबार को सोने से सुसज्जित किया गया, फिर रोपवे में एयर कंडीशनर वेटिंग हॉल, फिर 100 बिस्तरों का सर्व सुविधा युक्त अस्पताल तैयार किया गया। मां बमलेश्वरी ट्रस्ट समिति द्वारा संचालित अस्पताल में हर महीने की 15 तारीख को आखों का निशुल्क ऑपरेशन और लेन्स प्रत्यारोपण किया जाता है। इसमें बाहर से आए आंखों के विशेषज्ञ लेन्स प्रत्यारोपण का काम करते हैं।

लंबी चढ़ाई के बाद होता है माता का दर्शन 

माता का दरबार प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण है। पहाड़ी पर विराजमान मां बम्लाई के दर्शन के लिए लगभग 1000 से ज्यादा सीढ़ियां चढ़कर जाना होता है। बीच-बीच में श्रद्धालुओं के बैठने की व्यवस्था की गई है। ऊपर तक बाजार लगा हुआ है। वहीं ऊपर जाने के लिए रोप वे की भी सुविधा मिलती है। सुरक्षा के लिए मंदिर परिसर में सुरक्षाबल भी तैनात रहते हैं। मंदिर समिति और पुलिस 24 घंटे सेवाएं देती हैं। जैसे-जैसे दर्शनार्थी ऊपर चढ़ते हैं मन आनंदित हो उठता है। इतनी लंबी चढ़ाई के बाद भक्तजन माता की छवि देखकर धन्य महसूस करते हैं। 

मां बम्लेश्वरी मंदिर का इतिहास

मां बम्लेश्वरी मंदिर का इतिहास 2200 वर्ष पुराना है। डोंगरगढ़ शहर पहले कामावती नगरी के नाम से जाना जाता था। डोंगरगढ़ की पहाड़ी 2 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यहां पर मां बम्लेश्वरी के दर्शन के लिए  लगभग 1 हजार से ज्यादा सीढ़ियों को पार करके या रोपवे की मदद से ऊपर जाते हैं।

राजा कामसेन ने बनवाया भव्य मंदिर 

मंदिर निर्माण की बात करें तो राजा कामसेन ने अपने तपोबल से मां बगलामुखी को प्रसन्न किया और उनसे विनती की कि, वे उनके राज्य की सबसे ऊंची पहाड़ी पर विराजमान हों और सबका कल्याण करें। लेकिन अत्यधिक जंगल और दुर्गम रास्ता होने के कारण भक्त माता का दर्शन नहीं कर पा रहे थे। तब राजा कामसेन ने माता बम्लेश्वरी से विनती की और कहा कि, पहाड़ी के नीचे विराजमान हों। माता ने राजा की विनती सुन कर छोटी मां बम्लेश्वरी और मंझली मां रणचंडी के रूप में विराजमान हुईं। वही दूसरी ओर कुछ इतिहासकारों का यह भी कहना है की मां बम्लेश्वरी का इतिहास उज्जैन से भी जुड़ा हुआ हैं । राजा विक्रमादित्य भी यहां पहले शासक रह चुके हैं राजा विक्रमादित्य भी मां बगलामुखी के बड़े उपासक रहे हैं।

सच्चे मन से मांगी मन्नत पूरी करती हैं मां बम्लेश्वरी 

मान्यता है कि, जो भक्त मां बम्लेश्वरी के दरबार पहुंचकर सच्चे मन से मन्नत मांगते हैं तो उनकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती है। जो ऊपर पहाड़ों पर नहीं पहुंच पाते वे छोटी मां बम्लेश्वरी और मां रणचंडी का दर्शन कर लाभ प्राप्त कर सकते हैं। जनश्रुति है कि, जिन दंपतियों को संतान सुख नहीं होता यदि वे सच्चे मन से माता रानी का दर्शन करते हैं तो मां उनकी मनोकामना पूर्ण करती है। जिन श्रद्धालुओं की मनोकामना पूरी होती है वे मां को धन्यवाद ज्ञापित करने के लिए अपने निवास स्थान से पैदल चलकर मां के दरबार पहुंचते हैं। कई लोग घुटनों के बल जाते हैं, तो कुछ जस गीत गाते हुए या मैय्या का जयकारा लगाते हुए जाते हैं। 

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