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Health Alert: बाहर का खाना न सिर्फ ना केवल हेल्थ और परफॉर्मेंस को प्रभावित कर रहा है बल्कि कंपनियों और देश की ईकोनॉमी को भी भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। एक रिपोर्ट-
  • डॉक्टरों का कहना है कि स्ट्रीट फूड्स या जंक फूड्स खाने की हैबिट से शरीर की इम्यूनिटी कम हो जाती है और लोग संक्रमण का आसानी से शिकार होकर बार-बार बीमार पड़ते हैं।
  • अनुमान है कि एंप्लॉइज में आउटडोर फूड्स खाने की हैबिट से देश-दुनिया में प्राइवेट कंपनियों को हर साल करीब 142 अरब डॉलर से ज्यादा का नुकसान होता है।

संध्या सिंह. घर के बने हेल्दी-न्यूट्रिशस फूड्स के बजाय बाहर के स्पाइसी, रेडी-टू-ईट और जंक फूड्स खाने की हैबिट देश-दुनिया में लगातार बढ़ रही है। बड़े शहरों में रहने वाले स्टूडेंट्स और वर्किंग यंगस्टर्स में इसका क्रेज कुछ ज्यादा ही है। लेकिन यह हैबिट ना केवल हेल्थ और परफॉर्मेंस को प्रभावित करती है, इससे कंपनियों और देश की ईकोनॉमी को भी भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। 

बिहार के दिवाकर और हरियाणा के रजत दिल्ली में रूम शेयर कर रहते हैं, क्योंकि दोनों अपने-अपने प्रदेशों से उच्च शिक्षा के लिए यहां आए हैं। दोनों ने कमरे में सिर्फ चाय पीने और नूडल्स बनाने का ही इंतजाम कर रखा है। उनके साथ बजट की कोई समस्या नहीं है।

दरअसल, ये दोनों खाना बनाने में अपना वक्त जाया नहीं करना चाहते या फिर कह लीजिए कि ये दोनों ग्लोबल जनरेशन के हैं और पश्चिमी देशों के युवाओं की तरह पकाओ कम, खाओ ज्यादा की जीवनशैली पर भरोसा करते हैं। लेकिन यह अकेले दिवाकर और रजत की बात ही नहीं है और ना ही महज राजधानी दिल्ली का किस्सा है। सच तो यह है कि आज के दौर में देश के सभी महानगरों में स्टडी या जॉब के सिलसिले में अकेले रह रहे अधिकांश युवाओं का यही हाल है।

युवाओं को भाता है बाहर का खाना

देश भर के बड़े शहरों में विशेषकर युवाओं के बीच पकाओ कम, खाओ ज्यादा (रेडी-टू-ईट या आउटडोर ईटिंग) की जीवनशैली तेजी से अपने पांव पसार रही है। हॉस्टल, पेइंग गेस्ट्स और अकेले रहने वाले छात्र ही नहीं, बड़े शहरों की काम-काजी लोग भी इसी ढर्रे पर चल पड़े हैं। इनकी भी यही कोशिश रहती है कि वीकेंड और छुट्टियों को छोड़कर सुबह का नाश्ता और रात का खाना भी घर पर ना पकाना पड़े तो बेहतर है। इसीलिए 21वीं सदी के इस तीसरे दशक में भारतीयों द्वारा हर साल घर के बाहर इतना खाया जा रहा है, जितना पिछली सदी में पूरे एक दशक में भी नहीं खाया जाता था। मतलब यह कि पिछली सदी के अंतिम दशक के मुकाबले भारतीयों की घर के बाहर खाने की आदत में दस गुना की बढ़ोत्तरी हुई है। यह बहुत बड़ी बढ़ोत्तरी है।

इसलिए बढ़ रहा रेडीमेड फूड्स का क्रेज

आउटडोर रेडीमेड फूड्स की पॉपुलैरिटी के पीछे कई वजहें हैं। दरअसल, आज की तारीख में लोग सोचते हैं बाहर खाने से एक तो घर में खाना बनाने का झंझट खत्म होगा, साथ ही उनकी काम की गुणवत्ता और उत्पादकता बढ़ेगी, क्योंकि इन दोनों के लिए उन्हें पर्याप्त समय मिलेगा, जो समय खाना बनाने में खर्च हो जाता है। यही वजह है कि महानगरों में वर्किंग लोगों के बीच भी अब घर से खाना ना ले जाने की हैबिट तेजी से बढ़ रही है।

कई शहरों की यही कहानी

देश की वित्तीय राजधानी मुंबई में तो लोगों की इस आदत के चलते डब्बे वालों का कारोबार भी बहुत प्रभावित हुआ है। इस सदी की शुरुआत में मुंबई में 7 लाख से ज्यादा डब्बे वाले थे, जो हर दिन 50 लाख से ज्यादा लोगों को उनके दफ्तरों में, उनके घरों से लाकर गर्मा-गर्म खाना पहुंचाया करते थे। अब पूरे मुंबई में कुल 25 से 30 हजार के बीच ही डब्बे वाले बचे हैं, जो करीब 2 से 2.5 लाख लोगों के घरों से खाना लेकर लंच में उन तक पहुंचाते हैं। मुंबई में ही नहीं दिल्ली, नोएडा, गुरुग्राम या बैंगलुरु, पुणे, भोपाल, इंदौर और रायपुर में भी अब दोपहर में एंप्लॉइज जरूरी नहीं है कि घर से लाया टिफिन ही खाएं। घर के बाहर खाने की आदत तेजी से बढ़ रही है, क्योंकि लोगों ने अब घर में खाना बनाना काफी कम कर दिया है।

फूड कोर्ट-स्ट्रीट में लगता है जमावड़ा

आउटडोर फूड हैबिट ट्रेंड बढ़ने की एक वजह यह भी है कि इन दिनों काम-काज के जो नए केंद्र विकसित हो रहे हैं, उनके इर्द-गिर्द बड़े पैमाने पर फूड कोर्ट्स और फूड स्ट्रीट भी बन रहे हैं। यही वजह है कि लंच हो या डिनर लोग घर की बजाय बाहर ही खाना ज्यादा पसंद करते हैं। बर्गर, फ्रेंचफ्राई, नूडल्स, छोले-भटूरे, डोसे, परांठे, नान-कोरमा, बिरयानी, राजमा-राइस, फ्राइड चिकन, एग रोल, मोमोज, हॉट डॉग, पिज्जा जैसे बीसियों किस्म के खाने तेजी से भारतीयों के बीच में पॉपुलर हो रही हैं। वर्किंग एरियाज में दोपहर होते ही, फूड आउटलेट्स में लोगों की भारी भीड़ जमा हो जाती है। खाने वालों में युवा तो होते ही हैं, अधेड़ और बुजुर्ग भी अच्छी-खासी संख्या में दिख जाते हैं। दोपहर में एक से दो के बीच लगभग पूरे देश में ऑफिसेस में लंच का ट्रेंड है। इसलिए यह किसी एक शहर का भी नजारा नहीं है, देश के किसी भी बड़े, मझोले या छोटे शहर में भी इस तरह का नजारा देखा जा सकता है। हां, छोटे और मझोले शहरों में वैसी भीड़ नहीं होती, जैसे मेट्रो सिटीज में होती है।

बहुत मायने रखती है फूड हैबिट

अपने देश में सामान्य वर्किंग पीरियड 8 घंटे है। बड़े और व्यस्त शहरों में घर से काम के लिए बाहर निकलने से लेकर वापस आने तक की प्रक्रिया में यह कई बार 12 घंटे तक खिंच जाता है। ऐसे में काम-काजी लोग अपने भोजन का तकरीबन आधा हिस्सा बाहर ही करते हैं। कम से कम चार बार के भोजन में एक बार का मुख्य भोजन तो उनका बाहर ही होता है। अगर कहीं कोई आईटी प्रोफेशनल, मीडिया या अनिश्चित आवर्स वाले जॉब में है या पति-पत्नी दोनों काम-काजी हैं तो हो सकता है दो बार का भोजन बाहर ही निबटाना पड़े। ऐसे में काम के दौरान लिया गया भोजन सिर्फ सेहत के चलते ही नहीं कई दूसरी वजहों से भी बहुत महत्वपूर्ण है।

होममेड फूड्स हैं बेस्ट

समझदारी इसी में है कि मॉडर्न या ग्लोबल बनने के चक्कर में कम बनाकर ज्यादा खाने की हैबिट का शिकार ना हों। इसका फायदा नहीं, नुकसान ही नुकसान है। इसलिए जहां तक हो सके घर का बना खाना खाएं, बाहर का खाना कभी-कभार ही खाएं और उससे पहले जूस, लस्सी, छाछ, सूप, नारियल पानी, नीबू पानी पी लें या सलाद खा लें। फिर कम से कम मसालेदार और ऐसा भोजन खाएं, जो रेशेदार हो। बाहर खाया जाने वाला खाना बहुत तला-भुना कतई ना हो। यह हैबिट आपके हेल्थ के साथ-साथ आपकी प्रोफेशनल लाइफ, कंपनी और देश के लिए भी बेहतर रहेगी।

हेल्थ-परफॉर्मेंस पर पड़ता है असर

जंक फूड्स और आउटडोर फूड हैबिट के कई नुकसान हैं। आधे पौन घंटे के लंच टाइम में ही फूड ऑर्डर देने, फिर जल्दी-जल्दी खाने और कोल्ड ड्रिंक या चाय निपटाने के बाद इन लोगों में टाइम से ऑफिस पहुंचने की हड़बड़ी होती है। इसके बाद तीन से पांच घंटे ऑफिस में काम करने के दौरान अधिकतर को झपकी, सुस्ती, उबासी आने की शिकायत रहती है। बहुतों को लगता है कि इससे उनकी उत्पादकता तो कम होती ही है, फैसले लेने की क्षमता भी प्रभावित होती है। कइ लोग लंच के बाद की मीटिंग में पर्याप्त ऊर्जावान और चुस्त नहीं दिखते और तनाव महसूस करते हैं। ऐसी फूड हैबिट वाले लोगों में कब्ज, अपच और गैस की शिकायत होना कॉमन है। कई तो साल में एकाध बार फूड प्वाइजनिंग का शिकार भी हो जाते हैं। डॉक्टरों का कहना है कि इस तरह के खान-पान से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है और शरीर हल्के-फुल्के बदलाव, संक्रमण का आसानी से शिकार हो बार-बार बीमार पड़ता है।

संस्थान-देश की ईकोनॉमी पर पड़ता है असर

कई शोध बताते हैं कि वर्किंग आवर्स के दौरान आप किसका बनाया, कहां, क्या, कैसे, कब कितना खा रहे हैं, इसका असर आपकी हेल्थ, परफॉर्मेंस पर ही नहीं आपकी कंपनी के मुनाफे और देश की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता है। इसी के मद्देनजर अमेरिका समेत कई यूरोपीय देशों में बहुतेरी कंपनियों ने वर्कप्लेस फूड डिलीवरी कराने का अभियान चला रखा है। वहां तो वे नामी शेफ द्वारा तैयार, अलग-अलग एंप्लॉइज की सेहत और उनके मोटापे आदि को देखते हुए उसके अनुकूल भोजन परोस रहे हैं। लेकिन हमारे यहां लोग आधुनिक होने या ज्यादा से ज्यादा कमाने के कारण आउटडोर या रेडीमेड फूड हैबिट को अपनाकर अपनी सेहत से खिलवाड़ कर रहे हैं।

कर्मचारियों की इस तरह अपने खान-पान में बरती जा रही लापरवाही के कारण, अनुमान है कि निजी कंपनियों को हर साल करीब 142 अरब डॉलर से ज्यादा की चपत लग रही है। काम-काज के दौरान बाहर से भोजन करने के चलते बढ़ते मोटापे और इस तरह के खान-पान से पैदा हुई दूसरी तरह की कई बीमारियों के चलते 390 लाख कार्यदिवसों, 630 लाख डॉक्टर्स विजिट, 2390 लाख रिस्ट्रिक्टिड छुट्टियों का नुकसान उठाना पड़ रहा है, जिसकी वजह से कंपनियों को प्रत्येक कर्मचारी पर 450 से 2500 डॉलर सालाना तक अतिरिक्त खर्च करना पड़ रहा है।

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