फादर्स डे स्पेशल: नेत्रहीन होने के बावजूद बच्चों को बनाया स्वावलम्बी, पढ़िए... एक प्रेरक पिता की कहानी
फादर्स डे के अवसर पर हम आपको मिलवा रहे हैं ऐसे ही एक प्रेरक पिता से संतोष चढ़ोकर, जो नेत्रहीन होने के बावजूद एक उत्कृष्ट शिक्षक, कुशल प्राचार्य और सबसे बढ़कर एक आदर्श पिता हैं।
विकलांग शिविर भवन
रामचरित द्विवेदी- मनेन्द्रगढ़। पिता सिर्फ एक परिवार का सहारा नहीं होते, वे वह जड़ हैं, जिन पर पूरे जीवन की इमारत खड़ी होती है। फादर्स डे के अवसर पर हम आपको मिलवा रहे हैं ऐसे ही एक प्रेरक पिता से संतोष चढ़ोकर, जो नेत्रहीन होने के बावजूद एक उत्कृष्ट शिक्षक, कुशल प्राचार्य और सबसे बढ़कर एक आदर्श पिता हैं।
बचपन में ही खो गई रोशनी, लेकिन नहीं हारा हौसला
1960 में मध्यप्रदेश के बैतूल जिले में जन्मे संतोष चढ़ोकर अपने तीन भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। दुर्भाग्यवश, जन्म के दो-तीन वर्षों के भीतर ही उन्होंने अपनी आंखों की रोशनी खो दी। उस समय ना तकनीक थी, ना विशेष सुविधाएं। लेकिन उनके पिता ने हालात से हार नहीं मानी। उन्होंने संतोष को महाराष्ट्र के एक दिव्यांग विशेष विद्यालय में दाखिला दिलवाया और यहीं से शुरू हुआ उनका आत्मनिर्भरता का सफर। संतोष चढ़ोकर ने दृढ़ निश्चय और मेहनत के साथ न केवल बी.ए. की डिग्री हासिल की, बल्कि विशेष शिक्षकों के लिए विशेष प्रशिक्षण भी लिया। वे कहते हैं, दृष्टि नहीं है तो क्या हुआ, सोचने और समझने की शक्ति तो है, उसी से मैंने जीवन को संवारा है।
25 वर्षों से बना रहे हैं समाज के लिए रोशनी की मिसाल
लगभग 25 वर्षों से श्री चढ़ोकर मनेन्द्रगढ़ के आमाखेरवा स्थित नेत्रहीन एवं विकलांग शिक्षण-प्रशिक्षण विद्यालय में बतौर प्राचार्य सेवाएं दे रहे हैं। उन्होंने ना सिर्फ दिव्यांग बच्चों को शिक्षित किया। बल्कि, उन्हें आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता के रास्ते पर चलना सिखाया। उनके विद्यार्थी आज कई जगहों पर सम्मानजनक जीवन जी रहे हैं।
एक सामान्य युवती ने चुना जीवनसाथी
श्री चढ़ोकर की सकारात्मक सोच और आत्मविश्वास से प्रभावित होकर एक सामान्य युवती ने उन्हें जीवनसाथी के रूप में चुना। विवाह के बाद उन्होंने एक बेटे और एक बेटी को जन्म दिया। समाज की सामान्य सोच के विपरीत, उन्होंने दोनों बच्चों का पालन-पोषण ठीक उसी तरह किया जैसे कोई भी देख सकने वाला सक्षम पिता करता है। आज उनके दोनों बच्चे आत्मनिर्भर हैं और अपने-अपने जीवन में सफल हैं।
एक मुलाकात में बोले संतोष, मैं भी सामान्य जीवन जीता हूँ
एक मुलाकात के दौरान जब उनसे पूछा गया कि क्या कभी उन्हें अपनी नेत्रहीनता का दुख हुआ, तो उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया। मुझे कभी नहीं लगा कि मैं किसी से कम हूँ। मेरी आंखें भले न हों, लेकिन मेरा आत्मविश्वास और हौसला ही मेरी असली शक्ति हैं। मैं भी आप सब की तरह एक सामान्य जीवन जी रहा हूं। एक पिता के रूप में, एक शिक्षक के रूप में और एक नागरिक के रूप में।
फादर्स डे पर समाज को सिखाया जीवन का पाठ
आज जब हम ‘पिता’ शब्द को सम्मान देने का दिन मना रहे हैं, तो श्री संतोष चढ़ोकर जैसे लोगों की कहानी हमें यह सिखाती है कि एक पिता का कर्तव्य केवल भरण-पोषण तक सीमित नहीं होता। वह प्रेरणा देता है, राह दिखाता है और अपने बच्चों को हर कठिनाई में संबल बनकर खड़ा रहता है। श्री चढ़ोकर न सिर्फ अपने परिवार के लिए, बल्कि समाज के लिए भी एक जीवंत प्रेरणा हैं। उनका जीवन बताता है कि कमी कोई भी हो, अगर संकल्प मजबूत हो तो सफलता निश्चित है।