International Surajkund Fair: पिता-पुत्र पथरीले टुकड़ों को तराश कर कलाकृतियों को कर रहे जीवंत

Artists performing at Surajkund fair
X
सूरजकुंड मेले में अपनी प्रस्तुति देते कलाकार। 
हरियाणा के फरीदाबाद में चल रहे 37वें अंतरराष्ट्रीय सूरजकुंड मेले में शिल्पकार भगवान पंवार व उनके पुत्र प्रहलाद पंवार की बनाई गई कलाकृतियां लोगों को खूब भा रही हैं।

Faridabad: 37वें अंतरराष्ट्रीय सूरजकुंड मेले में देश के कोने-कोने से आए शिल्पकार अपनी अनोखी कलाकृतियों से दर्शकों का ध्यान आकर्षित कर रहे हैं। ऐसा सामान जिन्हें लोग व्यर्थ समझकर कोई तवज्जो नहीं देते, शिल्पकार उसे अपने हुनर से तराश कर जीवंत कर लाखों रुपए कमा रहे हैं। इन्हीं शिल्पकारों में महाराष्ट्र के परभनी जिला से आए शिल्पकार भगवान पंवार और उनके पुत्र प्रहलाद पंवार भी शामिल हैं। जिनके द्वारा बनाई गई कलाकृतियां लोगों को खूब भा रही हैं। ये शिल्पकार पंचम सदी की प्रचलित कंकड़ कला को अपने हुनर के माध्यम से देश के कोने कोने में पहुंचाकर उसे पहचान दिला रहे हैं। बता दें कि कंकड़ कला को पेबल आर्ट के नाम से भी जाना जाता है। प्राचीन काल में पत्थरों को तराशे बगैर ही विभिन्न प्रकार की मूर्तियां बनाई जाती थी। यह कला अब देश में लगभग लुप्त हो चुकी है, लेकिन भगवान पंवार व उनके बेटे प्रहलाद पंवार अपने परिवार सहित पुन: इस कला को जीवंत बनाने में लगे हुए हैं।

थीम सोचकर बनाते हैं कलाकृतियां

शिल्पकार प्रहलाद पंवार ने बताया कि पेबल आर्ट (कंकड़ कला) पंचम सदी की कला मानी जाती है। उस समय में पत्थरों को तराशने आदि की सुविधा नहीं थी। राजा महाराजा अपने शिल्पकारों से पत्थरों की अलग-अलग प्रकार की आकृतियां सजावट के लिए बनवाते थे। वह देश के विभिन्न हिस्सों में प्रवाहित नदियों और सागर के किनारे जाकर वहां से छोटे-छोटे पत्थरीले टुकड़ों को इकट्ठा करते हैं। इसके पश्चात वह एक थीम सोचकर पत्थरों को बिना तोड़े ही तराश कर आकृतियों का रूप देते हैं। नदियों से निकलने वाले कंकड़-पत्थरों को जोड़कर बनाई गई कलाकृतियां ही पेबल आर्ट (कंकड़ कला) कहलाती है।

कलाकृतियां बनाकर पंवार परिवार हुआ आर्थिक रूप से मजबूत

बीएससी हार्टिकल्चर से पढ़ाई करने वाले शिल्पकार प्रहलाद पंवार ने बताया कि पहले वह इस कला को शौकिया किया करते थे। महाराष्ट्र राज्य के जिला परभनी में स्थित गांव वजूर के पास से गोदावरी नदी से वह कंकड़ बीनकर लाते और घर में बैठकर गोंद के माध्यम उसे विभिन्न स्वरूपों में जोड़कर आकृतियां बनाते थे। इस कला से बनाई आकृतियों की मांग बढ़ने पर उन्होंने अपनी मां रूकमणी पंवार और धर्मपत्नी मोहिनी को भी इसी शिल्पकला से जोड़कर परिवार की आमदनी का जरिया बना लिया। अब वह अपने आस-पास की एक दर्जन से अधिक महिलाओं को इस कला से जोड़कर आत्मनिर्भर बना चुके हैं। खास बात यह है कि कंकड़ कला में उपयोग किए जाने वाले पत्थरों को न तो तरासा जाता है और न ही उनकी तोड़फोड़ की जाती है। कंकड़-पत्थरों के प्राकृतिक स्वरूप से आकृतियां तैयार की जाती है। यह आकृतियां सजावट और उपहार देने में काम आती हैं।

रामायण के पात्रों की थीम पर भी बनाते हैं आकृति

शिल्पकार प्रहलाद ने बताया कि उनके द्वारा कंकड़ कला से बनाई गई छत्रपति शिवाजी की शासन प्रणाली और महात्मा गांधी के नमक आंदोलन की आकृति सबसे अधिक चर्चित रही हैं। यह कला देश से लुप्त हो चुकी थी। उनका कहना है कि देश में वह अकेले ऐसे शिल्पकार हैं, जो पंचम सदी की कंकड़ कला को पुनर्जीवित कर रहे हैं। अब वह रामायण के पात्रों की थीम पर पत्थरों के जरिए आकृति बनाने में जुटे हुए हैं। इसी कला के माध्यम से पंवार की आमदनी 75 हजार से एक लाख रुपए तक पहुंच गई है।

WhatsApp Button व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें WhatsApp Logo
Next Story