परंपरा की ताकत: बालाघाट के वनांचल में आज भी जीवित है वस्तु विनिमय प्रणाली, व्यापारी खुद वनोपज खरीदने जाते हैं गांव
बालाघाट जिले के बैगा बहुल गांवों में जंगल से मिलने वाले वनोपज के बदले आज भी नमक, तेल और राशन मिल रहा है। जानिए कैसे वस्तु विनिमय प्रणाली आदिवासी जीवन को आत्मनिर्भर बना रही है।
बालाघाट जिले के वनाचल क्षेत्र आदिवासी जीवनशैली और परंपराओं के लिए जाने जाते हैं। यहां के बैगा समुदाय का जीवन आज भी जंगल, प्रकृति और परंपरागत ज्ञान से गहराई से जुड़ा हुआ है।
बालाघाट से राहुल टेभरे की रिपोर्ट। आधुनिक बाजार व्यवस्था, ऑनलाइन भुगतान और डिजिटल लेन-देन के इस दौर में भी मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले के वनांचल क्षेत्रों में एक पारंपरिक आर्थिक व्यवस्था आज भी पूरी मजबूती के साथ जीवित है। जिले के दूरस्थ आदिवासी इलाकों, विशेषकर बैगा बहुल गांवों में आज भी वस्तु विनिमय प्रणाली के माध्यम से परिवार अपनी रोजमर्रा की जरूरतें पूरी कर रहे हैं। यह व्यवस्था परंपरा, आत्मनिर्भरता और प्रकृति से जुड़े जीवन दर्शन का जीवंत उदाहरण है।
बालाघाट जिले के वनांचल क्षेत्र अपनी समृद्ध आदिवासी संस्कृति और पारंपरिक जीवनशैली के लिए जाने जाते हैं। यहां का बैगा समुदाय आज भी जंगल, प्रकृति और पीढ़ियों से चले आ रहे ज्ञान पर निर्भर है।
बाजारों की दूरी, सीमित परिवहन साधन और आर्थिक संसाधनों की कमी के कारण इन इलाकों में आधुनिक खरीद-फरोख्त की व्यवस्था पूरी तरह प्रभावी नहीं हो पाई है। ऐसे में वस्तु विनिमय प्रणाली बैगा परिवारों के लिए एक व्यावहारिक और भरोसेमंद विकल्प बनी हुई है।
वनांचल क्षेत्रों में रहने वाले बैगा समुदाय की आजीविका का मुख्य आधार जंगल है। वर्षभर वे जंगल से हिल्ला, बहेड़ा, आंवला, महुआ, तेंदूपत्ता और विशेष रूप से चिरोटा बीज जैसे वनोपज एकत्र करते हैं। इन वनोपजों का उपयोग घरेलू जरूरतों के साथ-साथ इन्हीं के बदले आवश्यक खाद्य सामग्री और रोजमर्रा के उपयोग की वस्तुएं प्राप्त करने में किया जाता है।
ग्राम जगला की बैगा महिलाओं का कहना है कि उन्हें बाजार जाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। जंगल से जो भी बीज या फल वे इकट्ठा करती हैं, वही उनकी पूंजी होती है। व्यापारी खुद गांव पहुंचते हैं और वनोपज के बदले नमक, मिर्च, हल्दी पाउडर, तेल, साबुन जैसी जरूरी सामग्री देकर चले जाते हैं। इससे उन्हें नकदी की जरूरत नहीं पड़ती और लंबी दूरी तय करने की परेशानी भी नहीं होती।
वनांचल गांवों से बाजार की दूरी कई बार 20 से 30 किलोमीटर तक होती है। पक्की सड़कों और नियमित परिवहन साधनों के अभाव में बाजार जाना समय, श्रम और पैसे—तीनों की दृष्टि से कठिन होता है। ऐसे में गांव-गांव पहुंचकर व्यापारियों द्वारा सामग्री उपलब्ध कराना बैगा परिवारों के लिए बड़ी राहत साबित हो रहा है।
स्थानीय व्यापारियों का कहना है कि यह व्यवस्था वर्षों से चली आ रही है। चिरोटा बीज और अन्य वनोपजों का मूल्य पहले से तय आकलन के आधार पर किया जाता है और उसी के अनुसार आदिवासी परिवार अपनी जरूरत की वस्तुएं चुन लेते हैं। यह प्रणाली न केवल आर्थिक रूप से उपयोगी है, बल्कि इससे व्यापारी और ग्रामीणों के बीच विश्वास और सामाजिक संबंध भी मजबूत होते हैं।
बैगा समुदाय के लोगों का मानना है कि वस्तु विनिमय प्रणाली उन्हें बाजार के बढ़ते दामों और नकदी संकट से बचाती है। वे कर्ज या बाहरी निर्भरता से दूर रहकर आत्मनिर्भर जीवन जी रहे हैं। यह व्यवस्था इस बात का प्रमाण है कि विकास और परंपरा साथ-साथ चल सकते हैं। यदि इस पारंपरिक प्रणाली को संरक्षण और समर्थन मिले, तो यह आदिवासी समाज की आर्थिक सुरक्षा को और सशक्त बना सकती है।