केजरीवाल के हारने की पूरी कहानी: AAP के खिलाफ MMS ने कर दिया काम... दिल्ली हारकर कांग्रेस बन गई बाजीगर

MMS vs AAP: दिल्ली में आम आदमी पार्टी की हार के कई कारण है, लेकिन एमएमएस फैक्टर को सबसे अधिक अहम माना जा रहा है। जानिये MMS फैक्टर क्या है, जिसके आगे केजरीवाल की पार्टी को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा।

By :  Amit Kumar
Updated On 2025-02-09 17:41:00 IST
अरविंद केजरीवाल।

MMS vs AAP: दिल्ली विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने 48 सीटें हासिल कर 27 साल बाद जोरदार वापसी की है। वहीं, अन्ना हजारे के आंदोलन से उपजी आम आदमी पार्टी को सिर्फ 22 सीटें मिली हैं। ऐसे में राजनीतिक विश्लेषक इस हार-जीत का अलग-अलग तरीकों से आंक रहे हैं। इस बीच आम आदमी पार्टी भी हार के कारणों पर मंथन करेगी। अरविंद केजरीवाल ने कहा है कि विपक्ष के नाते आगे भी दिल्ली की जनता के बीच रहकर उनके मुद्दों को पुरजोर तरीके से उठाया जाएगा।

वहीं, कांग्रेस भी दावा कर रही है कि भले ही इस चुनाव में खाता नहीं खुला, लेकिन अगले चुनाव में कांग्रेस और बीजेपी के बीच जोरदार टक्कर होगी। इन सियासी दावों के बीच आपको MMS फैक्टर के बारे में बताते हैं, जिसे दिल्ली में आप की हार की बड़ी वजह माना जा रहा है। तो चलिये बताते हैं कि MMS फैक्टर क्या है...

आप ने एमएमएस फैक्टर को अनदेखा किया

राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो एमएमएस यानी मध्यम वर्ग, मुस्लिम वर्ग और सेक्यूलर फैक्टर की अनदेखी आम आदमी पार्टी ने की है। केजरीवाल ने मुस्लिम बहुल इलाकों में चुनाव प्रचार नहीं किया। दंगा पीड़ित मुस्तफाबाद जैसे इलाकों में रहने वाले लोग अरविंद केजरीवाल से जवाब चाहते थे, लेकिन आरोप था कि उन्होंने अनदेखी की। ऐसे में आम आदमी पार्टी को नुकसान हुआ।

वहीं दूसरी तरफ केजरीवाल लगातार मुफ्त रेवड़ियों का नारा देता रहे, लेकिन टूटी सड़कों और पेयजल किल्लत से लेकर वायु प्रदूषण तक की समस्याओं से जूझ रहे मध्यम वर्ग में संतुलन बनाने में नाकाम रहे। तीसरा फैक्टर सेक्यूलर बनने का रहा। केजरीवाल ने हाल में पंडितों और पुजारियों के लिए 18 हजार रुपये प्रति माह मानदेय देने का वादा किया, लेकिन आरोप लगाया कि उन्होंने मौलवी मौलानाओं को राशि तक नहीं दी। ऐसे में यह तीनों फैक्टर आप के खिलाफ काम कर गए।

कांग्रेस ने DM फॉर्मूले पर लगाया था दांव

इस चुनाव में कांग्रेस के पास कुछ भी हारने के लिए नहीं था। 2015 और 2020 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली। जबकि 2015 में आप को 67 और बीजेपी को 3 और 2020 के चुनाव में आप को 62 और बीजेपी को 8 सीटें मिली थी। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि इस चुनाव में कांग्रेस हर हाल में आम आदमी पार्टी को हराना चाहती थी। इसके लिए दलित मुस्लिम कार्ड खेला था। उम्मीद थी कि कम से कम 10 सीटों पर आप और कांग्रेस के बीच मुकाबला होता, जिससे केजरीवाल की पार्टी हार सकती है। नतीजा कांग्रेस ने जो सोचा, वहीं धरातल पर सच साबित हुआ।

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि अब कांग्रेस आगे भी मजबूती से दिल्ली की जनता के मुद्दे उठाएगी ताकि संगठन में उत्साह बढ़े और आने वाला चुनाव मजबूती से लड़ा जा सके। इसके अलावा इंडी गठबंधन के सहयोगी दल भी कांग्रेस पर सीटों के बंटवारे को लेकर अनावश्यक दबाव न डाल सके।

बीजेपी ने खेला यह दांव

बीजेपी की बात करें तो शुरुआत में केजरीवाल सरकार के कथित घोटालों को लेकर चुनाव प्रचार शुरू किया, लेकिन बाद में गलती का अहसास हुआ कि जनता को प्रभावित करने वाले मुद्दों को सबसे ज्यादा उठाने होंगे। ऐसे में वायु प्रदूषण से लेकर यमुना प्रदूषण और टूटी सड़कों से लेकर जल घोटाले तक हर मुद्दा प्रमुखता से उठाया गया। इसके अलावा, आरएसएस के सहयोग से डोर टू डोर मीटिंग कर जनता को दिल्ली के हितों से अवगत कराया। बची कूची कसर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने मध्यम वर्ग को आयकर से राहत देकर दे दी।

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जानकारों का कहना है कि 12 लाख तक की आय को इनकम टैक्स फ्री करने से करीब दिल्ली के मतदान में 3 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। अगर ऐसा न होता, तो बीजेपी की सीटें कम हो सकती थी क्योंकि मध्यम वर्ग मतदान से दूरी बना सकता था। बहरहाल, आम आदमी पार्टी ने भले ही दिल्ली चुनाव को धर्मयुद्ध की संज्ञा दी थी, लेकिन इस महायुद्ध को जीतने का हर बाण बीजेपी के तरकस में था।

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