मुगल साम्राज्य की आखिरी निशानी: शाही दरबार की शान रहा महल खंडहर में तब्दील, गुमनामी के अंधेरे में खो गई इमारत

Zafar Mahal: दिल्ली के महरौली में स्थित जफर महल एक समय में शाही दरबार की शान हुआ करता था। हालांकि आज इस किले का कोई वर्चस्व नहीं रह गया है। ये किला पूरी तरह से गुमनामी में चला गया है।

Updated On 2025-07-04 19:45:00 IST

जफर महल।

Zafar Mahal: दिल्ली अपने आप में ही बहुत से इतिहास संजोए बैठा है। इसने महाभारत काल से लेकर आधुनिक काल तक का सफर तय किया है। दिल्ली सल्तनत की राजधानी बनी, जिस पर खिलजी, तुगलक, सैयद और लोदी जैसे कई वंशों ने राज किया।

अगर मुगल काल की बात करें, तो 1526 में बाबर ने दिल्ली में मुगल साम्राज्य की स्थापना की। 1639 में शाहजहां ने शहाजहानाबाद की स्थापना की, जिसे आज पुरानी दिल्ली के नाम से जाना जाता है। इसके बाद दिल्ली सन् 1857 तक मुगल साम्राज्य की राजधानी रही। मुगल साम्राज्य के दौरान की बहुत सी ऐतिहासिक इमारतें आज भी दिल्ली में बड़े रुतबे के साथ खड़ी हैं। इनमें से कई तो खंडहर भी हो चुकी हैं।

लाल किला, कुतुब मीनार और हुमायूं के मकबरे की भव्यता तो दिल्ली ही नहीं देश विदेश के लोगों में भी मशहूर है। वहीं महरौली की संकरी गलियों में एक ऐसा किला भी है, जो मुगल साम्राज्य की आखिरी निशानी है। इस किले का नाम जफर महल है। ये कभी शाही दरबार की शान हुआ करता था, लेकिन अब ये खंडहरों में तब्दील हो चुका है। आइए जानते हैं कि ये भव्य किला गुमनामी क अंधेरे में कैसे खो गया?

साउथ दिल्ली के महरौली में जफर महल स्थित है, जिसे मुगल काल की आखिरी स्मारकीय संरचना के रूप में जाना जाता है। इसका निर्माण 18वीं शताब्दी में मुगल सम्राट अकबर शाह द्वितीय ने शुरू कराया था। हालांकि इसे पूरा बहादुर शाह जफर ने कराया। बहादुरशाह जफर ने इसे गर्मियों में रहने के लिए बनवाया था। उस दौरान पर महरौली के घने जंगल और शांत वातावरण गर्मियों में शाही परिवार के लिए आदर्श हुआ करते थे।

इस महल की संरचना में मुगलों और यूरोपीय वास्तुकला का अनोखा मिश्रण दिखता है। ये तीन मंजिला इमारत लाल बलुआ पत्थर से बनी है। इसमें एक भव्य प्रवेश द्वार और बड़ा सा छज्जा है। महल के पास ही हजरत कुतुबुद्दीन बख्तियार की दरगाह भी है। इस दरगाह के कारण ये इमारत शाही और आध्यात्मिक महत्व का केंद्र बन गया।

कहा जाता है कि ये महल केवल गर्मियों में रहने के लिए नहीं थी बल्कि उस दौर की संस्कृति और परंपराओं का प्रतीक भी माना जाता है। इतिहासकार राणा सफवी ने लिखा कि जफर महल 'फूलवालों की सैर' जैसे समारोहों का गवाह रहा। ये समारोह हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक हुआ करता था। इस समारोह के दौरान लोग दरगाह और आसपास के मंदिरों में फूल चढ़ाया करते थे और इसका केंद्र जफर महल हुआ करता था।

महल के परिसर में एक छोटा सा कब्रिस्तान भी मौजूद है, जहां मुगलं के कई सदस्यों की कब्र हैं। बहदुर शाह जफर की भी इच्छा थी कि उन्हें भी यहीं दफनाया जाए। हालांकि ऐसा हो नहीं सका।

दरअसल, 1857 में भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हुआ और बहादुर शाह जफर एक कवि और शायर भी थे। वे इस स्वतंत्रता संग्राम के प्रतीक बने लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें विद्रोह का दोषी ठहरा दिया और 7 अक्टूबर 1858 को में दिल्ली से रंगून भेज दिया। रंगून को वर्तमान में यंगून के नाम से जाना जाता है, जो म्यांमार में स्थित है।

बहादुर शाह जफर को एक बैलगाड़ी में रंगून लेकर जाया गया। उनके साथ ब्रिटिश सैनिकों की एक टुकड़ी भी थी। 1862 में रंगून में ही उनकी मौत हो गई। शुरुआत में उनकी कब्र को अचिन्हित छोड़ दिया गया, लेकिन 20वीं शताब्दी में वहां एक मजार बन गई, जो आज तीर्थस्थल के रूप में मशहूर है। इस तरह उनकी जफर महल में दफ्न होने की ख्वाहिश अधूरी ही रह गई।

आज जफर महल पूरी तरह से खंडहर हो चुका है। इस किले की दीवारें टूट चुकी हैं और चारों तरफ घास और जंगली पौधे हैं। स्थानीय लोग यहां क्रिकेट और जुआ खेलने आते हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के दस्तावेजों में इस किले की जानकारी काफी नहीं हैं, जिसके कारण इसका नवीनीकरण मुश्किल हो गया है। 

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