स्वामी अवधेशानंद गिरि- जीवन दर्शन: सच्चा सुख और ज्ञान बाहरी वस्तुओं में नहीं, उस अविनाशी सत्य में है, जो हमारी आत्मा का आधार

jeevan darshan: जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज के 'जीवन दर्शन' स्तम्भ में आज जानिए -मुण्डकोपनिषद् १.१.६ के मंत्र का महत्व, जो वेदान्त के मूल सिद्धान्तों को संक्षेप में व्यक्त करता है।

Updated On 2025-06-05 13:33:00 IST

स्वामी अवधेशानंद गिरि- जीवन दर्शन

यद् तद् अद्रेश्यम् अग्राह्यम् अगोत्रम् अवर्णम् अचक्षुःश्रोत्रं तद् अपाणिपादम्।
नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मं तद् अव्ययं यद् भूतयोनिं परिपश्यन्ति धीराः।

-मुण्डकोपनिषद् १.१.६

jeevan darshan: मुण्डकोपनिषद्, वेदान्त दर्शन का एक अनमोल रत्न, भारतीय आध्यात्मिक चिन्तन की गहनता को प्रकट करता है। यह न केवल ब्रह्म के स्वरूप को निरूपित करता है और न केवल दार्शनिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, अपितु आध्यात्मिक साधना का एक सशक्त आधार भी प्रस्तुत करता है।

यह मंत्र ब्रह्म के निर्गुण, निराकार, सर्वव्यापी और अविनाशी स्वरूप का साहित्यिक और दार्शनिक चित्रण करता है, जो वेदान्त के मूल सिद्धान्तों को संक्षेप में व्यक्त करता है। इस निबन्ध में, हम इस श्लोक के गहन अर्थ, वेदान्ती दृष्टिकोण, और इसके आधुनिक सन्दर्भ में प्रासंगिकता की पड़ताल करेंगे, इसे साहित्यिक और आध्यात्मिक दृष्टि से विश्लेषित करते हुए।

मंत्र का प्रारम्भ “यद् तद् अद्रेश्यम् अग्राह्यम्” से होता है, जो ब्रह्म को इन्द्रियों और बुद्धि की पकड़ से परे बताता है। यहाँ “अद्रेश्यम्” और “अग्राह्यम्” शब्द ब्रह्म की उस प्रकृति को रेखांकित करते हैं, जो भौतिक दृष्टि और तार्किक चिन्तन की सीमाओं से मुक्त है। ब्रह्म न तो नेत्रों से देखा जा सकता है, न ही मन से पूर्णतः समझा जा सकता है। यह वेदान्त का वह मूलभूत सिद्धान्त है, जो सत्य को इन्द्रियगम्य संसार से परे स्थापित करता है।

“अगोत्रम् अवर्णम्” के माध्यम से मंत्र यह स्पष्ट करता है कि ब्रह्म किसी वंश, जाति, या भौतिक रूप से बँधा नहीं है। वह रंग, आकार और गुणों से रहित है। यह निर्गुणता वेदान्त में ब्रह्म को माया और संसार के भेद से मुक्त बताती है। “अचक्षुःश्रोत्रं तद् अपाणिपादम्” ब्रह्म के अभौतिक स्वरूप को और गहराई से प्रस्तुत करता है। उसके पास इन्द्रियाँ, हाथ, या पैर नहीं हैं, फिर भी वह सर्वशक्तिमान है। यह एक साहित्यिक विरोधाभास (Paradox) है, जो ब्रह्म की असीमता को दर्शाता है- वह बिना अंगों के कार्य करता है, बिना इन्द्रियों के जानता है। यह वेदान्ती दृष्टिकोण हमें यह समझाता है कि सच्चा सत्य भौतिकता के बन्धनों से परे है।

नित्य, सर्वगत और सुसूक्ष्म मंत्र का मध्य भाग ब्रह्म को “नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मम्” के रूप में वर्णित करता है। यहाँ “नित्यम्” और “अव्ययम्” ब्रह्म की शाश्वतता और अविनाशिता को रेखांकित करते हैं। वह समय, परिवर्तन और क्षय से अछूता है। यह साहित्यिक रूप से उस अनन्त सत्य का चित्रण है, जो सृष्टि के उत्पत्ति-स्थिति-लय चक्र से परे है।

“विभुं सर्वगतम्” ब्रह्म की सर्वव्यापकता को व्यक्त करता है। वह प्रत्येक कण में, प्रत्येक प्राणी में, और प्रत्येक स्थान में व्याप्त है। यह विचार काव्यात्मक रूप से सृष्टि की एकता को दर्शाता है- सब कुछ ब्रह्म में समाहित है, और ब्रह्म ही सब कुछ है। “सुसूक्ष्मम्” ब्रह्म की सूक्ष्मता को उजागर करता है, जो उसे सामान्य चेतना से अगम्य बनाता है। यह सूक्ष्मता साहित्यिक दृष्टि से एक सुन्दर प्रतीक है- वह इतना सूक्ष्म है कि वह बुद्धि की पकड़ से परे है, किन्तु इतना विशाल कि वह समस्त सृष्टि को अपने में समेटे हुए है।

सृष्टि का मूल कारण इस मंत्र में ब्रह्म को “भूतयोनिम्” कहा गया है, अर्थात् वह सृष्टि का मूल स्रोत है। यह वेदान्ती दृष्टिकोण सृष्टि के कारण और कार्य के सम्बन्ध को स्पष्ट करता है। ब्रह्म वह कारण है, जिससे समस्त प्राणी और विश्व की उत्पत्ति होती है। यह विचार साहित्यिक रूप से एक गहन दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है- जैसे एक बीज से वृक्ष उत्पन्न होता है, वैसे ही ब्रह्म से यह विश्व प्रकट होता है, किन्तु वह स्वयं उस प्रकट विश्व से अछूता रहता है।

धीराः आत्म-ज्ञान का मार्ग !

मंत्र का अंतिम भाग, “परिपश्यन्ति धीराः”, वेदान्त के आध्यात्मिक पक्ष को उजागर करता है। यहाँ “धीराः” उन बुद्धिमान और धैर्यशील साधकों को संदर्भित करता है, जो आत्म-चिन्तन, ध्यान और सद्गुरु के मार्गदर्शन से ब्रह्म को जान पाते हैं। यह साहित्यिक रूप से एक प्रेरक सन्देश है- सच्चा ज्ञान बाह्य सांसारिक उपलब्धियों में नहीं, बल्कि आत्मा के भीतर की खोज में निहित है। धीर पुरुष वह है, जो माया के आवरण को हटाकर, निर्गुण सत्य का साक्षात्कार करता है।

इस मंत्र का साहित्यिक सौन्दर्य इसकी संक्षिप्तता और गहनता में निहित है। प्रत्येक शब्द एक प्रतीक है, जो ब्रह्म की असीमता को व्यक्त करता है। “अद्रेश्यम्”, “सुसूक्ष्मम्”, और “सर्वगतम्” जैसे शब्द काव्यात्मक रूप से एक ऐसे सत्य का चित्रण करते हैं, जो विरोधाभासों से परिपूर्ण है- वह सूक्ष्म और विशाल, अदृश्य और सर्वव्यापी, निर्गुण और सृष्टि का कारण है। यह साहित्यिक विरोधाभास पाठक को गहन चिन्तन की ओर प्रेरित करता है।

आधुनिक सन्दर्भ में प्रासंगिकता !

आधुनिक युग में, जहाँ भौतिकवाद और उपभोक्तावाद हावी है, यह मंत्र हमें आत्म-निरीक्षण और आध्यात्मिक साधना की ओर प्रेरित करता है। यह हमें सिखाता है कि सच्चा सुख और ज्ञान बाहरी वस्तुओं में नहीं, बल्कि उस अविनाशी सत्य में है, जो हमारी आत्मा का आधार है। विज्ञान और तकनीक के इस युग में, जहाँ हम बाहरी विश्व को समझने में व्यस्त हैं, यह मंत्र हमें अपने भीतर की यात्रा की ओर प्रेरित करता है।

मुण्डकोपनिषद् का यह मंत्र वेदान्त दर्शन का सार है। यह ब्रह्म के निर्गुण, निराकार, और सर्वव्यापी स्वरूप को साहित्यिक और दार्शनिक रूप से प्रस्तुत करता है। यह मंत्र न केवल एक आध्यात्मिक मार्गदर्शक है, बल्कि एक काव्यात्मक कृति भी है, जो मानव मन को सत्य की खोज की ओर प्रेरित करता है। यह हमें यह स्मरण कराता है कि सच्चा ज्ञान आत्मानुभव से प्राप्त होता है, और केवल धीर पुरुष ही उस परम सत्य का साक्षात्कार कर सकते हैं। इस प्रकार, यह मंत्र न केवल वेदान्ती चिन्तन का आधार है, बल्कि मानव जीवन के लिए एक शाश्वत प्रेरणा भी है।

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