स्वामी अवधेशानंद जी गिरि- जीवन दर्शन: क्या बाह्य व्यथाओं के कारण हमारे भीतर का सुख, शांति और आनंद नष्ट हो जाता है? जानिए
Jeevan Darshan: जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद जी गिरि महाराज से गुरुवार को जीवन दर्शन में जानिए क्या बाह्य व्यथाओं के कारण हमारे भीतर का सुख, शांति और आनंद नष्ट हो जाता है?
Jeevan Darshan: जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद जी गिरि महाराज से गुरुवार को जीवन दर्शन में जानिए क्या बाह्य व्यथाओं के कारण हमारे भीतर का सुख, शांति और आनंद नष्ट हो जाता है?
हमारे जीवन में प्रतिकूल परिस्थितियां और अनचाही कठिनाइयां अपरिचित नहीं हैं। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में ऐसा समय अवश्य आता है, जब चारों ओर अंधकार, भ्रम और व्याकुलता छा जाती है। बाह्य जगत के उतार-चढ़ाव मन को विचलित कर सकते हैं, हृदय को कंपा सकते हैं और विश्वास की नींव को डगमगा सकते हैं। पर क्या वास्तव में बाह्य व्यथाओं के कारण हमारे भीतर का सुख, शांति और आनंद नष्ट हो जाता है? उत्तर है- नहीं।
हम जिस ‘सत्य’, ‘शांति’ और ‘आनंद’ की खोज बाहर करते हैं, वह सब हमारे अंतःकरण में ही विद्यमान है। यही वह परम-तत्व है, जिसे भारतीय दर्शन ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ और ‘सच्चिदानन्द रूपाय’ के रूप में अभिव्यक्त करता है। जब हम भीतर की यात्रा प्रारंभ करते हैं, तब हमें अनुभूति होती है कि जिस अटूट प्रेम, अडिग शांति और अविचल सामर्थ्य की खोज हम कर रहे थे, वह किसी वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति में नहीं, अपितु हमारे अपने आत्म-स्वरूप में ही सन्निहित है।
मन स्वभाव से ही चंचल है- यह बाह्य परिस्थितियों, इच्छाओं, अपेक्षाओं और स्मृतियों से बार-बार प्रभावित होता है। जब भी जीवन में कोई कठिनाई आती है, चाहे वह शारीरिक पीड़ा हो, संबंधों में विघटन हो या आर्थिक संकट मन असहज और भयभीत हो उठता है। लेकिन, यदि हम उसी क्षण कुछ पल ठहरें, गहरी साँस लें और अपने अंतस् की ओर दृष्टि डालें, तो वहां मौन का एक निःशब्द आकाश मिलेगा, जो इन सभी उलझनों से परे, सदा शांत और व्यापक है।
हमारे विचार ही हमारे अनुभव की दिशा तय करते हैं। यदि हम निरंतर भय, संदेह या निराशा से प्रेरित विचारों में उलझे रहें, तो वह हमारे भीतर छिपी दिव्यता को ढंक लेते हैं। परन्तु जैसे ही हम सत्य, शुभ और शुद्ध विचारों को आमंत्रित करते हैं- जैसे कि 'मैं नित्य शुद्ध, बुद्ध, मुक्त आत्मा हूं'- वैसे ही आत्म-सत्ता के द्वार धीरे-धीरे खुलने लगते हैं।
सद्विचार केवल मानसिक अभ्यास नहीं, अपितु आत्म-सत्ता की पुकार हैं। यह वह दीपक हैं, जो अज्ञानरूपी अंधकार को हरते हैं और हमें अपने मूल स्वरूप की झलक देते हैं।
शास्त्र कहते हैं- 'न जायते म्रियते वा कदाचित्'- आत्मा न जन्मती है, न मरती है। जब हम इस शाश्वत अस्तित्व का साक्षात्कार करते हैं, तब मृत्यु का भय, जीवन की अनिश्चितता और परिस्थितियों का दबाव सब व्यर्थ प्रतीत होने लगते हैं। वास्तविक आत्म-बोध का अर्थ है- स्वयं को शरीर, मन, नाम, भूमिका या सम्बन्धों से परे जानना। यह समझना कि मैं वह साक्षी हूं, जो सब कुछ देखता है, अनुभव करता है, किन्तु स्वयं किसी भी घटना से बंधा नहीं होता।
जीवन की हलचल से कुछ क्षण के लिए बाहर निकलकर मौन में बैठिए। अपने श्वास का निरीक्षण कीजिए और अनुभव कीजिए- कोई है वहां भीतर- शांत, अचल, पूर्ण- जो सदा से विद्यमान है, बस प्रतीक्षा में है कि आप उसकी उपस्थिति को जानें।
सच्चा सुख, शांति और समाधान कहीं बाहर नहीं छिपे हैं- वे हमारे भीतर ही अंतर्निहित हैं। आइये ! हम सद्विचारों की ज्योति अपने भीतर जलाएं और आत्म-स्वरूप की पहचान करें। जब आत्म-बोध जाग उठेगा, तब कोई भी विघ्न, कोई भी विपत्ति- हमें डिगा नहीं सकेगी।