स्वामी अवधेशानंद गिरि- जीवन दर्शन: मनुष्य जीवन का परम उद्देश्य केवल भौतिक सम्पन्नता नहीं, अपितु...
Jeevan Darshan: जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज से आज 'जीवन दर्शन' में जानिए 'मनुष्य जीवन के उसके दिव्य लक्ष्य' के बारे में।
swami avadheshanand giri Jeevan Darshan: आज 'जीवन दर्शन' में जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज से जानिए- 'मनुष्य जीवन के उसके दिव्य लक्ष्य' के बारे में।
सनातन धर्म में मनुष्य को मात्र देहधारी प्राणी नहीं, अपितु 'अमृतस्य पुत्राः वयम्...' कहा गया है। इसका अर्थ है कि हम सबकी अन्तर्निहित सत्ता अनंत, अपराजेय और दिव्य है, क्योंकि परमात्मा का अंश हम सबमें विद्यमान है। परन्तु अज्ञान के आवरण में लिप्त होकर हम अपनी इस दिव्यता को भूल बैठे हैं और इन्द्रिय-मन की लौकिक व्यग्रता में उलझ कर रह गए हैं।
मनुष्य जीवन का परम उद्देश्य केवल भौतिक सम्पन्नता नहीं, अपितु उस दिव्य अंश का साक्षात्कार करना है, जो हमें 'सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म...' का आधार बना देता है। यह तब ही संभव है, जब हम अपने भीतर उपजे संशय और भ्रांतियों का समाधान ढूंढ़े। इस मार्ग में गुरु-शास्त्र की महत्ता अति-महत्वपूर्ण है। गुरु वह प्रकाश-स्तम्भ हैं, जो हमें 'तमसो मा ज्योतिर्गमय ...' के आह्वान से प्रेरित करते हैं, अर्थात् अज्ञान के अंधकार से मुक्त होकर ज्ञान के प्रकाश की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देते हैं।
गुरु-शास्त्र के सान्निध्य में रहकर स्वाध्याय और साधना-अनुशासन हमें जीवन के उच्चतम लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु सक्षम बनाते हैं। सत्संग, चिन्तन और ध्यान-समाधि द्वारा मन की व्यग्रताएँ व अवरोध दूर होते हैं, जिससे आत्मानुभूति की साधना सुगम होती है। यदि हम जीवन में धैर्य, नियम, तप और सत्यनिष्ठा से इस साधना पथ पर अग्रसर हों, तो संशय-भ्रांतियों का नाश अवश्य सम्भव है।
भारतीय दर्शन ने चार पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष निर्धारित किए हैं, जिनमें मोक्ष पुरुषार्थ ही सर्वोच्च और परमात्मा-प्राप्ति का द्वार है। जब हम 'अमृतस्य पुत्राः वयम् ...' की दिव्यता का स्मरण करेंगे, गुरु-शास्त्र की प्रेरणा से 'तमसो मा ज्योतिर्गमय...' का आह्वान सच करेंगे, तब 'सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म...' का अनुभव हमारे जीवन को पूर्णता प्रदान करेगा। ऐसे महान पुरुषार्थ में ही मनुष्य जीवन की वास्तविक धन्यता और अमरत्व निहित है।
अतः आइये ! हम अपने भीतर के आत्म-स्वरूप को पहचानें, गुरु-शास्त्र के आलोक में निरन्तर साधना करें और मनुष्य जीवन को उसके दिव्य लक्ष्य- आत्मानुभूति, ब्रह्म-साक्षात्कार और मोक्ष से समृद्ध बनायें। यही हमारे अस्तित्व का सर्वोच्च अर्थ एवं परम दिव्य पुरुषार्थ है।