बिहार चुनाव 2025: 'वोट कटवा' की भूमिका में होंगे योगी के मंत्री! पढ़िए बिहार में "राजभर फैक्टर" का सबसे सटीक विश्लेषण

Bihar vidhansabha election 2025 op Rajbhar
X

सुभासपा का ध्यान हमेशा अपने समुदाय के वोट-कटवा प्रभाव का उपयोग करके गठबंधनों में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने पर रहा है।

2020 के चुनाव में, राजभर की पार्टी उपेंद्र कुशवाहा के नेतृत्व वाले गठबंधन का हिस्सा थी, जिसमें पूरे गठबंधन को महज़ 4.5% वोट मिले थे। कुशवाहा अब एनडीए में हैं और राजभर की वास्तविक शक्ति से वाकिफ हैं, इसलिए भाजपा ने जोखिम नहीं लिया।

लखनऊ : उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सहयोगी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर ने बिहार विधानसभा चुनाव में अकेले उतरने का ऐलान कर दिया है। भाजपा NDA में एक भी सीट न दिए जाने से नाराज़ राजभर का यह कदम दोनों दलों के बीच गठबंधन में गहरी खटास पैदा कर रहा है। राजभर ने अपनी पार्टी के उम्मीदवारों की सूची जारी करने की भी बात कही है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि राजभर की यह 'बगावत' केवल बिहार तक सीमित नहीं रहेगी, बल्कि इसका सीधा नकारात्मक असर उत्तर प्रदेश की राजनीति और भाजपा के अति पिछड़ा वोट बैंक पर पड़ना तय है।

बिहार में राजभर की उपेक्षा का यूपी पर सीधा असर

बिहार विधानसभा चुनाव में सीट बंटवारे से बाहर किए जाने पर ओम प्रकाश राजभर ने खुले तौर पर भाजपा पर राजनीतिक उपेक्षा का आरोप लगाया है। यह उपेक्षा भाजपा और सुभासपा के बीच के वर्तमान गठबंधन पर बड़ा प्रश्नचिह्न लगाती है। राजभर ने सीधे तौर पर बिहार भाजपा नेताओं पर केंद्रीय नेतृत्व को गुमराह करने का आरोप लगाया है, जो गठबंधन में बड़े टकराव का संकेत है। यह खटास केवल बिहार तक सीमित नहीं रहेगी, बल्कि उत्तर प्रदेश में दोनों दलों के बीच का मौजूदा गठबंधन भी इसकी चपेट में आ गया है। यह भावना यूपी में भाजपा के लिए विश्वास का संकट पैदा कर सकती है, खासकर 2027 विधानसभा चुनाव से पहले।

राजभर की 'वोट-कटवा' की भूमिका और 2020 का गणित

ओम प्रकाश राजभर का अकेले चुनाव लड़ने का निर्णय भाजपा के लिए बिहार में एक गंभीर चुनौती है। राजभर की पार्टी उन सीटों पर सेंध लगाएगी जहा अति पिछड़ी जातियों का प्रभाव है, और जहा भाजपा/जेडीयू की स्थिति मजबूत मानी जाती है।

बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में भी राजभर की पार्टी बहुजन समाज पार्टी और एआईएमआईएम जैसे दलों के साथ ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेकुलर फ्रंट का हिस्सा थी। इस मोर्चे ने भले ही अधिक सीटें न जीती हों, लेकिन इसने सीमांचल और पूर्वी बिहार की कई सीटों पर महत्वपूर्ण वोटों की कटौती की थी। राजभर का उम्मीदवार इस बार भी एनडीए के पारंपरिक अति पिछड़ा वोट को काटेगा। वोटों के इस बटवारे का सीधा लाभ विपक्षी दलों को होगा, क्योंकि कम मार्जिन वाले कई सीटों पर सुभासपा 'वोट-कटवा' की भूमिका निभाकर एनडीए की हार सुनिश्चित कर सकती है। राजभर का यह कदम भाजपा पर भविष्य के गठबंधनों में उन्हें अधिक सम्मान देने का दबाव बनाएगा।

2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी ने अपनी राष्ट्रीय पहचान बनाने और अति पिछड़ा वर्ग के बीच अपनी पैठ दर्ज कराने के उद्देश्य से महज़ पांच सीटों पर चुनाव लड़ा था। ओम प्रकाश राजभर ने इन सीटों का चयन विशेष रणनीति के तहत किया था, जहा उनका मुख्य राजभर, भर और राजवंशी वोट बैंक मौजूद है। सुभासपा ने जो पाँच सीटें चुनी थीं, उनमें राजपुर (बक्सर ज़िला), ढाका (पूर्वी चंपारण ज़िला), नालंदा (नालंदा ज़िला), अरवल (अरवल ज़िला) और सासाराम (रोहतास ज़िला) शामिल थीं। यह चुनाव लड़ने का फैसला इस बात पर केंद्रित था कि ये सभी सीटें या तो पूर्वी उत्तर प्रदेश से सटे ज़िलों में आती हैं या वहा अति पिछड़ा वर्ग की आबादी अच्छी खासी है, जहा सुभासपा ज़मीनी स्तर पर अपनी राजनीतिक मौजूदगी दर्ज करा सके।

पंचायत चुनाव में भी अकेले उतरने का बड़ा जोखिम

बिहार में हुई राजनीतिक तल्खी का सीधा असर उत्तर प्रदेश के आगामी पंचायत चुनावों पर भी देखने को मिल सकता है। यह संभावना प्रबल है कि ओम प्रकाश राजभर, यदि गठबंधन से बात नहीं बनती है, तो उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव में भी अकेले लड़ने का फैसला कर सकते हैं।

राजभर की पार्टी का संगठन जमीनी स्तर पर सक्रिय है और अति पिछड़ों में उनकी पैठ भाजपा के ग्रामीण वोट आधार को नुकसान पहुचा सकती है। भाजपा के लिए यह एक बड़ी चुनौती होगी, क्योंकि पंचायत चुनावों में यह फूट उसके जमीनी संगठन को कमजोर कर सकती है। इस तरह, बिहार विधानसभा चुनाव का विवाद उत्तर प्रदेश में गठबंधन को अस्थिर करके भाजपा के लिए एक आंतरिक और चुनावी दोनों तरह का संकट पैदा कर रहा है।

राजभर की पिछली हकीकत और भाजपा की मौजूदा रणनीति

​2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) ने ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेकुलर फ्रंट गठबंधन के तहत हिस्सा लिया था, जहा ओम प्रकाश राजभर की पार्टी को महज़ पाँच सीटें मिली थीं। इस पूरे गठबंधन का प्रदर्शन निराशाजनक रहा और इसे कुल 4.5% के आसपास ही वोट मिल पाया था। इस गठबंधन का नेतृत्व उस वक्त उपेंद्र कुशवाहा कर रहे थे, जो अब स्वयं भारतीय जनता पार्टी के साथ एनडीए के एक महत्वपूर्ण घटक दल के रूप में शामिल हैं। उपेंद्र कुशवाहा को राजभर की पार्टी की ज़मीनी हकीकत और वोट आधार का सटीक आकलन है। ऐसे में, भाजपा बिहार विधानसभा चुनाव में किसी भी प्रकार का अनावश्यक जोखिम लेने के मूड में नहीं है, और यही वजह है कि उसने सुभासपा द्वारा मांगी गई 29 सीटों की लिस्ट को दरकिनार कर दिया। हालाँकि, भाजपा की यह सतर्कता राजभर की नाराज़गी को नियंत्रित नहीं कर पाई है। राजभर का अकेले चुनाव लड़ने का फैसला अब भी भाजपा के लिए नुकसानदेह है, क्योंकि वह अति पिछड़ा वोट बैंक में सेंध लगाकर एनडीए की जीत के अंतर को कम कर सकते हैं।

बिहार की राजनीति में 'राजभर फैक्टर'- क्या कहती जातीय गणना की रिपोर्ट?

बिहार सरकार द्वारा अक्टूबर 2023 में जारी किए गए जाति आधारित गणना के विस्तृत आकड़ों के हिसाब से राज्य की राजनीतिक गलियारों में ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के लिए सियासी हिसाब किताब कुछ खास नहीं है। रिपोर्ट के अनुसार, राजभर समुदाय की कुल आबादी 2 लाख 24 हज़ार 722 दर्ज की गई है, जो बिहार की 13.07 करोड़ की विशाल जनसंख्या का महज़ 0.1719 प्रतिशत है।

हालांकि आकड़ों में कम संख्या होने के बावजूद, राजभर वोट बैंक का राजनीतिक महत्व बना हुआ है क्योंकि यह अत्यंत पिछड़ा वर्ग (EBC) श्रेणी का हिस्सा है, जिसकी कुल हिस्सेदारी राज्य में 36 प्रतिशत से अधिक है। यह वोट बैंक मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश से सटे सीमावर्ती जिलों, जैसे बक्सर, सासाराम और पूर्वी चंपारण में केंद्रित है। यह भौगोलिक एकाग्रता राजभर को कुछ विधानसभा सीटों पर किंगमेकर की भूमिका निभाने की शक्ति देती है, जहाँ जीत-हार का अंतर अक्सर बहुत कम रहता है। सुभासपा का ध्यान हमेशा अपने समुदाय के वोट-कटवा प्रभाव का उपयोग करके गठबंधनों में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने पर रहा है, जैसा कि उन्होंने 2020 के विधानसभा चुनाव में भी किया था।

WhatsApp Button व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें WhatsApp Logo

Tags

Next Story