बनारसी साड़ी: गंगा की लहरों से वैश्विक गलियारों तक, बुनकरों के पसीने और रेशम के शाही सफ़र की मुकम्मल दास्तां

गंगा की लहरों से वैश्विक गलियारों तक, बुनकरों के पसीने और रेशम के शाही सफ़र की मुकम्मल दास्तां
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बनारसी साड़ी महज एक परिधान नहीं, बल्कि सदियों पुरानी एक ऐसी विरासत है।

बनारसी साड़ी सदियों पुरानी एक शाही विरासत है, जिसकी शुरुआत मुगल काल में भारतीय और फारसी कला के संगम से हुई।

वाराणसी : बनारस की पहचान सिर्फ उसके घाटों और मंदिरों से ही नहीं, बल्कि यहां की गलियों में गूंजती 'खट-खट' की आवाजों से भी है, जो रेशम के धागों को एक शाही लिबास में तब्दील कर देती हैं।


बनारसी साड़ी महज एक परिधान नहीं, बल्कि सदियों पुरानी एक ऐसी विरासत है जिसने मुगलों के वैभव से लेकर आधुनिक फैशन शो तक अपनी धाक जमाए रखी है।

आज यह उद्योग अरबों का टर्नओवर कर रहा है और लाखों परिवारों की आजीविका का मुख्य आधार बना हुआ है। उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले से निकलने वाला यह उत्पाद आज वैश्विक बाजार में भारत की सांस्कृतिक पहचान का सबसे बड़ा ध्वजवाहक बनकर उभरा है।


बनारसी साड़ी का गौरवशाली इतिहास और इसकी पौराणिक शुरुआत

बनारसी साड़ी का इतिहास भारत की प्राचीन सभ्यता जितना ही पुराना और गहरा माना जाता है। ऋग्वेद जैसे प्राचीन ग्रंथों में 'हिरण्य द्रापी' का उल्लेख मिलता है, जिसे विद्वान सोने के धागों से बुने हुए वस्त्र या आज की बनारसी साड़ी का पूर्वज मानते हैं।


पौराणिक कथाओं के अनुसार, जब बुद्ध ने महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था, तब उनके शरीर को काशी के रेशमी वस्त्रों में लपेटा गया था, जो इस बात का प्रमाण है कि ईसा पूर्व छठी शताब्दी में भी यहां वस्त्र उद्योग फल-फूल रहा था।


हालांकि, आधुनिक बनारसी साड़ी के मौजूदा स्वरूप की नींव मुगल काल के दौरान पड़ी। सम्राट अकबर के शासनकाल में फारस और मध्य एशिया से आए कुशल कारीगरों ने बनारस के स्थानीय बुनकरों के साथ मिलकर कला का एक नया संगम पेश किया।


इन कारीगरों ने भारतीय बुनाई की तकनीकों में फारसी फूलों के पैटर्न, बेल-बूटे और शिकार के दृश्यों को शामिल किया, जिसे आज हम दुनिया भर में 'किंखाब' या बनारसी कला के रूप में जानते हैं।


बाजार मूल्य का विश्लेषण: राजाओं की रियासत से आम आदमी की पहुंच तक

शुरुआती दौर में बनारसी साड़ी का कोई निश्चित बाजार मूल्य नहीं होता था क्योंकि यह आम जनता की पहुंच से काफी दूर थी। उस समय की साड़ियां शुद्ध सोने और चांदी के तारों से बुनी जाती थीं, जिसके कारण इनकी कीमत किसी बेशकीमती संपत्ति के बराबर होती थी।


एक साड़ी को तैयार करने में कई महीनों का समय लगता था और इसकी कीमत राजाओं द्वारा दिए गए इनाम या जागीर से तय होती थी। अगर हम आज के संदर्भ में इसके मार्केट वैल्यू की बात करें, तो बनारसी साड़ी उद्योग का वार्षिक कारोबार लगभग 8,000 करोड़ से 10,000 करोड़ के आंकड़े को पार कर चुका है।


बाजार में आज एक साधारण सिल्क साड़ी की कीमत 3,000 से शुरू होती है, लेकिन जो साड़ियां असली कतान सिल्क और असली सोने-चांदी की जरी से तैयार की जाती हैं, उनकी कीमत बाजार में 5 लाख से लेकर 15 लाख तक पहुंच जाती है। इंटरनेट और ई-कॉमर्स के आने के बाद इसके बाजार मूल्य में पिछले एक दशक के दौरान करीब 40 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है।


लाखों परिवारों की आजीविका और रोजगार का व्यापक ढांचा

वाराणसी और इसके आसपास के जनपदों में बनारसी साड़ी उद्योग केवल एक व्यापार नहीं बल्कि एक बहुत बड़ी रोजगार मशीन है। एक अनुमान के अनुसार, इस पूरे इकोसिस्टम से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से लगभग 8 लाख से 10 लाख लोग जुड़े हुए हैं।


इस रोजगार की खास बात यह है कि इसमें सिर्फ बुनकर ही शामिल नहीं हैं, बल्कि यह एक लंबी चेन है। इसमें सबसे पहले ग्राफ डिजाइनर या 'नक्शा लेखक' आता है जो कागज पर डिजाइन उकेरता है, उसके बाद रंगरेज धागों को चटक रंग देते हैं। फिर ताना-बाना तैयार करने वाले मजदूर और अंत में साड़ी की फिनिशिंग करने वाले कारीगर आते हैं।


बनारस के मदनपुरा, पिलखुआ, लल्लापुरा और बजरडीहा जैसे इलाके आज भी चौबीसों घंटे चालू रहने वाले ऐसे कारखाने हैं जहां पीढ़ी दर पीढ़ी लोग इसी काम में लगे हैं। इस उद्योग ने ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं को भी बड़े पैमाने पर रोजगार दिया है, जो धागा काटने और साड़ियों पर नग जड़ने का काम घर बैठे करती हैं।


वैश्विक सप्लाई चेन और एक्सपोर्ट-इंपोर्ट का जटिल समीकरण

बनारसी साड़ी आज भारत की सीमाओं को लांघकर दुनिया के कोने-कोने में अपनी चमक बिखेर रही है। भारत के घरेलू बाजार में दिल्ली, मुंबई और बेंगलुरु जैसे महानगरों में इसकी सबसे ज्यादा खपत है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसका निर्यात एक बड़ा राजस्व स्रोत बन चुका है।



संयुक्त राज्य अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, ऑस्ट्रेलिया और खाड़ी देशों में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों के साथ-साथ अब विदेशी नागरिकों के बीच भी बनारसी सिल्क की लोकप्रियता बढ़ी है।


एक्सपोर्ट-इंपोर्ट के मामले में एक दिलचस्प पहलू यह है कि बनारसी साड़ी को बनाने के लिए उच्च गुणवत्ता वाला 'मलबरी सिल्क' बड़ी मात्रा में दक्षिण भारत और कुछ हिस्सा वियतनाम या चीन से भी आयात किया जाता है।


हालांकि, भारत सरकार अब 'रेशम मिशन' के माध्यम से घरेलू रेशम उत्पादन को बढ़ावा दे रही है ताकि कच्चे माल के लिए विदेशों पर निर्भरता कम हो सके और निर्यात से मिलने वाला लाभ सीधे बुनकरों तक पहुंच सके।


वाराणसी के भौगोलिक दायरे से बाहर बनारसी बुनाई का विस्तार

भले ही इस कला का नाम 'बनारसी साड़ी' है, लेकिन इसकी जड़ें वाराणसी के पड़ोसी जिलों में भी काफी गहरी हैं। उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले का मुबारकपुर इलाका बनारसी साड़ियों के उत्पादन का एक बहुत बड़ा केंद्र है, जहां की बुनाई को बनारस की बुनाई के बराबर ही दर्जा प्राप्त है।


इसके अलावा मऊ, जलालपुर, मिर्जापुर और चंदौली के हजारों गांवों में आज भी हैंडलूम पर साड़ियां तैयार की जाती हैं। इन क्षेत्रों में बनने वाली साड़ियां अक्सर बनारस के मंडियों में लाई जाती हैं और यहीं से देश-दुनिया में सप्लाई की जाती हैं।


भौगोलिक रूप से यह पूरा बेल्ट अब एक 'सिल्क क्लस्टर' के रूप में विकसित हो चुका है, जहां की मिट्टी और पानी रेशम की रंगाई और बुनाई के लिए सबसे उपयुक्त माने जाते हैं।


धागे और रंगों का विज्ञान - कहां और कैसे तैयार होती है सामग्री

एक बेहतरीन बनारसी साड़ी की गुणवत्ता उसके धागे और रंगों की शुद्धता पर टिकी होती है। इसमें मुख्य रूप से चार प्रकार के रेशम का प्रयोग होता है: कतान (शुद्ध रेशम), कोरा (ऑर्गेन्जा), जरी और जार्जेट।


रेशम का धागा मुख्य रूप से बेंगलुरु और कर्नाटक के अन्य हिस्सों से आता है, जबकि साड़ी में चमक पैदा करने वाली 'जरी' का बड़ा केंद्र गुजरात का सूरत शहर है। हालांकि, बनारस के कुछ खास कारीगर अब भी तांबे के तारों पर सोने का पानी चढ़ाकर शुद्ध जरी तैयार करते हैं।


रंगों की बात करें तो बनारस के स्थानीय 'रंगरेज' प्राकृतिक और रासायनिक रंगों का ऐसा मिश्रण तैयार करते हैं जो रेशम के धागे पर दशकों तक अपनी चमक नहीं खोता। धागे को रंगने की यह प्रक्रिया बेहद मेहनत वाली होती है क्योंकि इसमें पानी के तापमान और रंग की शुद्धता का सटीक संतुलन बनाए रखना अनिवार्य होता है।


जीआई टैग और सरकारी प्रोत्साहन: विरासत को बचाने की जंग

बनारसी साड़ी की प्रामाणिकता को बचाने के लिए वर्ष 2009 में इसे 'जियोग्राफिकल इंडिकेशन' यानी जीआई टैग प्रदान किया गया था। यह टैग 'बनारस बुनकर कल्याण समिति' के नाम पर पंजीकृत है और इसके तहत यह अनिवार्य है कि केवल वाराणसी और उसके आसपास के सात जिलों में बनी साड़ियों को ही 'बनारसी' के नाम से बेचा जा सकता है।


सरकार के प्रयासों की बात करें तो केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में इस उद्योग में जान फूंकने के लिए अरबों रुपये का निवेश किया है। 'एक जनपद एक उत्पाद' योजना के तहत बुनकरों को आधुनिक लूम, कम ब्याज पर ऋण और विदेशों में मार्केटिंग की सुविधा प्रदान की जा रही है।


वाराणसी में निर्मित 'पंडित दीनदयाल हस्तकला संकुल' इसका जीता जागता उदाहरण है, जहां बुनकरों को बिचौलियों के बिना सीधे ग्राहकों से जुड़ने का मौका मिलता है।


इसके अतिरिक्त, मुद्रा योजना और बिजली सब्सिडी जैसी योजनाओं ने उन गरीब बुनकरों को काफी राहत पहुंचाई है जो कभी कर्ज के बोझ तले दबे रहते थे।

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