Mughal History: लाल किले में आलीशान रहा जीवन, फिर क्यों सड़कों पर भीख मांगता था ये मुगल शहजादा?

मिर्जा जवान बख्त को मांगनी पड़ी भीख
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 मिर्जा जवान बख्त लाल किले में पैदा हुआ

Mughal History: मुगल शासकों का भारत में लंबे समय तक राज रहा। उनके शहजादे राजशी ठाठबाट वाली जिंदगी जिया करते थे। लेकिन जब उनका दौर खत्म हुआ, तो परिस्थितियां बदल गईं। हालत दयनीय हो गई थी।

Mughal History: मुगलों के इतिहास से हर कोई वाकिफ है। मुगलों ने भारत की जमीन और यहां के लोगों पर सालों तक अत्याचार किया। हालांकि अंग्रेजों के आने के बाद मुगलों को अपनी सत्ता गंवानी पड़ी। मुगल साम्राज्य के पतन के साथ ही इसके शासकों और उनके खानदान की जिंदगी भी बदहाल हो गई थी। उनके परिवारों को खाने-पीने के लाले पड़ने लगे थे। आज हम एक ऐसे मुगल शहजादों की मजबूरी की कहानी बताने जा रहे हैं, जो रात को दिल्ली की गलियों में भीख मांगा करते थे। आखिर ऐसी उसकी क्या मजबूरी रही होगी? चलिए जानते हैं...

यह कहानी भारत के अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर के शहजादे की है। इस मुगल शहजादे का नाम मिर्जा जवान बख्त था। जो बहादुरशाह जफर की बेगम जीनत महल की कोख से जन्मा था। इसका जन्म लाल किले के अंदर हुआ था। मिर्जा जवान बख्त अपने पिता के 15वें पुत्र थे। अंग्रेजों के बढ़ते प्रभाव के बीच मुगल साम्राज्य की शान-ओ-शौकत धीरे-धीरे मिट्टी में मिल गई। लाल किले में जन्म लेने वाले शहजादे और शहजादियां, जो कभी सेवादारों और ठाट-बाट से घिरे रहते थे, अब रोटी के एक टुकड़े के लिए तरसने लगे। बताया जाता है कि मिर्जा जवान बख्त को भी दिल्ली की गलियों में छुपकर भीख मांगनी पड़ी थे, ताकि पेट भर सकें।

मुगल खानदान की बदहाली यहीं खत्म नहीं हुई। ख्वाजा हसन निज़ामी की किताब 'बेग़मात के आंसू' में यह उल्लेख मिलता है कि जफर के पोते मिर्जा कमर सुल्तान बहादुर को भी भीख मांगनी पड़ी थी। वह गुमनामी में गलियों की खाक छानते और अल्लाह से दुआ करते कि इतना मिल जाए, जिससे खाने-पीने का सामान जुटा सकें। यह दृश्य उस वंश के लिए बड़ा विडंबनापूर्ण था, जिसने सदियों तक हिंदुस्तान पर राज किया।

बहादुर शाह जफर के बेटों की हत्या

बहादुर शाह ज़फर के बेटे मिर्जा जवान बख्त को जफर की सबसे चहेती बेगम जीनत महल ने इस सपने के साथ पाला था कि एक दिन वही गद्दी पर बैठेगा, लेकिन अंग्रेजों की नीति सबसे बड़े बेटे को उत्तराधिकारी बनाने की थी, इसलिए उसकी दावेदारी को नकार दिया गया।

अंग्रेजों का क्रूर चेहरा भी इसी दौर में सामने आया। 20 सितंबर 1857 को बहादुर शाह ज़फर ने हुमायूं के मकबरे में आत्मसमर्पण किया। उन्होंने यह शर्त रखी कि उनके परिवार की जान बख्शी जाएगी, लेकिन मेजर विलियम हडसन के नेतृत्व में अंग्रेजों ने उन्हें धोखा दिया। दो दिन बाद, 22 सितंबर को उनके बेटे मिर्जा मुगल, मिर्जा खिज्र सुल्तान और मिर्जा अबू बख़्त को नंगे कराकर नजदीक से गोली मार दी गई। उनके शवों को चांदनी चौक की कोतवाली के सामने तीन दिन तक लटकाए रखा गया, ताकि लोग डर के मारे बगावत का ख्याल भी न करें।

1857 की क्रांति के बाद जब बहादुर शाह ज़फर को परिवार सहित रंगून निर्वासित कर दिया गया, तो जवान बख्त भी वहीं कैद की जिंदगी जीने लगा। वहां धीरे-धीरे उसे शराब की लत लग गई और आखिरकार 18 सितंबर 1884 को महज 43 साल की उम्र में लिवर सिरोसिस से उसकी मौत हो गई।

मुगल वंशजों की वर्तमान स्थिति

भारत और पाकिस्तान में आज भी मुगलों के वंशज गुमनामी की जिंदगी बिता रहे हैं। ये अपना जीवन गरीबी में गुजार रहे हैं, क्योंकि इन्हें कोई खास सरकारी सहायता नहीं मिलती और न ही कोई विशेष मान्यता दी गई। इन मुगलों की कहानियां और इतिहास अब केवल कागज के पन्नों तक ही सीमित हैं।

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