आज का श्रवण कुमार: पिता की अंतिम इच्छा पूरी करने 1500 किलोमीटर की यात्रा, ले जा रहा रामलला के दर्शन कराने

A young man from Andhra Pradesh
X

आंध्र प्रदेश से एक युवक अपने पिता को रामलला के दर्शन कराने ठेले पर लादकर ले जा रहा है


यह कहानी किसी अनहोनी सी लगती है। आंध्र प्रदेश से एक युवक अपने पिता को रामलला के दर्शन कराने ठेले पर लादकर ले जा रहा है।

कुश अग्रवाल- बलौदाबाजार। कलयुग में अगर कोई कहे कि, आज भी सतयुग जैसे बेटे जन्म लेते हैं, तो यह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। आंध्र प्रदेश का एक साधारण सा युवक नारायण राव पिल्ले ने ऐसा कुछ कर दिखाया है, जो असाधारण से भी परे है। ऐसा जो दिल को छू जाए, आंखों में नमी ला दे, हर बेटे को एक सवाल करने पर मजबूर कर दे: 'क्या मैं भी अपने पिता के लिए इतना कर सकता हूं?'

नारायण राव पिल्ले के 95 वर्षीय पिता रामा नायडू पिल्ले अब बहुत वृद्ध हो चुके हैं। न तो ठीक से बोल पाते हैं, न ही चल सकते हैं। शरीर इतना अशक्त हो चुका है कि अब अधिकतर समय अचेत अवस्था में ही रहते हैं। लेकिन मन में एक इच्छा अभी भी जीवित थी — श्रीराम लला के दर्शन अयोध्या में करना।

1993 में अयोध्या गए पर दर्शन नहीं कर पाए

यह कोई नई इच्छा नहीं थी। 1993 में जब नारायण छोटे थे, तब उनके पिता उन्हें अयोध्या ले गए थे। परन्तु 1991 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद का तनावपूर्ण माहौल ऐसा था कि उनके पिता रामलला के दर्शन नहीं कर पाए। उस अधूरे दर्शन की पीड़ा उन्होंने वर्षों तक दिल में संजोए रखी — एक सूखे बीज की तरह, जो कभी फूट नहीं सका। वर्षों बीते। उम्र ने शरीर को जर्जर कर दिया, परंतु इच्छा ने हिम्मत नहीं हारी। और जब एक दिन पिता ने अपनी यह अंतिम अभिलाषा बेटे से साझा की — तो बेटे ने सिर झुका लिया। "मैं आपको दर्शन कराऊंगा, पिताजी। चाहे जैसे भी हो।

अपने हाथों से बनाया लकड़ी का एक ठेला
ना धन था, ना कोई वाहन। पर नारायण के पास था पिता के प्रति प्रेम, श्रद्धा और एक वचन। उन्होंने अपने हाथों से एक लकड़ी का ठेला बनाया। उसी ठेले पर अपने पिता को लिटाकर, पैदल ही निकल पड़े — अयोध्या की ओर, 1500 किलोमीटर लंबी यात्रा पर। 4 मई 2025, यह यात्रा शुरू हुई आंध्र प्रदेश से। और 26 मई को वह छत्तीसगढ़ के बलौदा बाजार पहुंचे, जहाँ उनसे जब राह चलते हमारे बलौदा बाजार संवाददाता कुश अग्रवाल से बात हुई, तो उन्होंने अपनी पूरी कहानी सहज और शांत स्वर में सुनाई — मानो यह कुछ असामान्य नहीं, बल्कि हर बेटे का कर्तव्य हो।

अब तक 600 किलोमीटर की कठिन यात्रा पूरी
अब तक 600 किलोमीटर की कठिन यात्रा उन्होंने पूरी कर ली है। उनके ठेले पर कोई छत नहीं, कोई आराम नहीं। धूप, गर्मी, बरसात — सब कुछ झेलते हुए, बस पिता को लेकर चलना है... क्योंकि एक वचन दिया है। बेटा दिन भर ठेला खींचता है, पिता उसमें अचेत लेटे रहते हैं। कभी कोई रुककर पानी दे जाता है, तो कोई खाना। पर ज़्यादातर यह यात्रा निर्विचल श्रद्धा और धैर्य पर आधारित है। ना कोई प्रचार, ना दिखावा। बस एक पुत्र का समर्पण — जिसे पैसे से नहीं, भावना से नापा जाता है।

पिता को अधूरे मन से विदा नहीं कर सकता
नारायण कहते हैं, पिताजी ने जब मुझे पहली बार अयोध्या ले जाना चाहा था, वो पूरा नहीं हो पाया। अब जब वो जीवन के अंतिम पड़ाव पर हैं, मैं उन्हें अधूरे मन से विदा नहीं कर सकता। ये मेरी जिम्मेदारी है, मेरा सौभाग्य है। आज के इस स्वार्थी युग में जहां बुजुर्ग माता-पिता को बोझ समझा जाता है, वहाँ नारायण राव पिल्ले जैसे बेटे पिता की सेवा को परम धर्म मानते हैं।

WhatsApp Button व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें WhatsApp Logo

Tags

Next Story