आज गुरु पूर्णिमा: गुरु दक्षिणा, 64 वर्ष में भी घराने को अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाने जुटे

नृत्य की घराना परंपरा को जीवंत रखने अपने स्तर पर जुटे हैं शिष्य
रुचि वर्मा/संजय जोशी रायपुर। सर्वज्ञानी, सर्वव्यापी, संयंम, तप और त्याग की मूर्ति यानी गुरु... आदिकाल से गुरुओं ने ही परंपराओं के साथ शिक्षा, दीक्षा और भौतिक जीवन के संचालन को संभाला हुआ हे। गुरु सबके जीवन में हैं, उनके बिना खुद का और न समाज का कल्याण संभव है। यही वजह है कि हर विद्या में गुरुओं का स्थान शीर्ष पर हैं। उन गुरुओं ने ही शिष्यों को गढ़ा है और वहीं शिष्य उनकी परंपराओं को आगे बढ़ा रहे हैं। संगीत, नृत्य के घरानों में भी इस कला को पीढ़ियां संभाल रही हैं। गुरुओं की विरासत को आगे बढ़ाना ही उनके लिए गुरु दक्षिणा है...। गुरु पूर्णिमा पर ऐसे ही गुरुओं और उनकी परंपराओं को हरिभूमि ने सहेजा है।
लखनऊ घराने के प्रसिद्ध कथक नृत्य गुरु एवं चक्रधर सम्मान से सम्मानित स्व.डॉ. पीडी आशीर्वादम के शिष्य उनकी ख्याति और नृत्य कला को अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाने जुटे हुए हैं। उनके शिष्यों में डॉ. राजश्री नामदेव, डॉ. मांडवी सिंह, स्वप्निल करमहे, डॉ. अनुराधा दुबे, डॉ. ज्योति दाबके, दीप्ति दाबके, वंदिता सिंह जैसे कई प्रसिद्ध कथक नृत्य विभूतियां हैं, जो अपने गुरु के घराने नृत्य कला को देश के अलग-अलग कला शिक्षण संस्थानों से जुड़कर वहां शिष्य-गुरु परंपरा को आगे बढ़ा रही हैं। अब इन सभी विभूतियों द्वारा नृत्य कला में पारंगत हो कर निकल रहीं शिष्याएं भी कथक नृत्य कला को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुंचा रही हैं। लखनऊ घराने की नृत्य कला का प्रचार-प्रसार पूरी दुनिया में पहुंचाकर अपने कथक गुरु स्व. डॉ. पी.डी. आशीर्वादम के प्रति सच्ची भक्ति एवं गुरु-शिष्य परंपरा की मिसाल कायम कर रही हैं।
64 वर्ष की उम्र में भी दे रही कथक की शिक्षा-दीक्षा
4वींकक्षा से कथक की शुरूआत करने वाली डॉ. राजश्री नामदेव आज 64 वर्ष की उम्र में भी गुरु के नाम से संचालित गुरू आशीर्वादम नृत्य अकादमी में प्रशिक्षु छात्र-छात्राओं को कथक नृत्य कला की दीक्षा दे रही हैं। डॉ. राजश्री ने बताया, 10 साल पहले उन्होंने गुरू आशीर्वादम नृत्य अकादमी नाम से शहर में नृत्य अकादमी की शुरूआत की थी। आज पूरे शहर में 6 अलग-अलग ब्रांच हैं, जहां से हर वर्ष 125 से अधिक छात्र-छात्राएं कथक नृत्य में पारंगत हो रही हैं। 1991 से 1993 तक गुरु डॉ.पी.डी. आशीर्वादम से कथक नृत्य कला में शिक्षा-दीक्षा ली। लखनऊ घराने में गुरु-शिष्य परंपरा रही है, इसके अनुरूप कड़ी तपस्या व साधना से कला का प्रशिक्षण लेना और समर्पण भाव के साथ प्राप्त कथक नृत्य कला का जीवन भर प्रचार-प्रसार करना पड़ता है। गुरु के संस्कार व घराने की परंपरा को अंतिम सांस तक निभाने का प्रयास ही गुरुजी के प्रति मेरी सच्ची गुरु दीक्षा है।
अंतरराष्ट्रीय मंचों पर शिष्याएं बढ़ा रही गुरु-शिष्य का मान
इंडियन काउंसिल ऑफ कल्चरल रिलेशन में एकल कथक नृत्य में शुमार प्रसिद्ध कथक नृत्यांगना डॉ. स्वप्निल करमहें बताती है कि वह बचपन में 3 से 4 साल की उम्र से ही कथक नृत्य का अभ्यास शुरू कर दिया था। इसके बाद 12 वर्ष से 26 वर्ष की उम्र तक खैरागढ़ संगीत विश्वविद्यालय से कथक नृत्य में कड़ी साधना, तपस्या और संमर्पण भाव से गुरु डॉ. पी.डी. आशीर्वादम के सानिध्य में शिक्षा-दीक्षा ली है। गुरु डॉ.पी.डी. आशीर्वादम के अंतिम सांस तक में उसके साथ रही। उन्होंने मुझसे कहा कि उनकी दी कला को संसार को बांटना, बांधकर मत रखना। गुरु की इसी आज्ञा का पालन करते हुए शहर की डिग्री गर्ल्स कॉलेज में नृत्य विभाग की विभागाध्यक्ष के रुप छात्राओं को कथक नृत्य सीखाती हूं। मेरी शिष्याएं राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय मंचों पर कथक नृत्य में पुरस्कार जीतकर गुरु-शिष्य परंपरा का मान बढ़ा रही हैं। इसमें मेरी शिष्या चमेली जलतारे, विनिता नपापित को दूरदर्शन में प्रस्तुति के लिए बी ग्रेड मिला है। हाल ही में मेरी 5 साल की शिष्या देबांशी बिश्वास ने दार्जलिंग में बीते माह हुए अंतर्राष्ट्रीय कथक प्रतियोगिता तरांगण में पहल स्थान हासिल किया।
दो पीढ़ियों के गुरु रहे बेडेकर दंपत्ति दांपत्य जीवन शिष्यों को समर्पित
किसी भी कार्य में यदि जीवन साथी का सहयोग मिल जाए तो कार्य अधिक सुंदर रूप में सिद्ध हो पाता है। गुरु-शिष्य परंपरा के अतंर्गत शहर में एक दंपत्ति ऐसा भी है, जिसमें पति-पत्नी दोनों ने ही दो पीढ़ी को संगीत की विद्या सिखाई है। कमलादेवी संगीत महाविद्यालय में कार्यरत दीपक बेडेकर और उनकी पत्नी मंजूषा बेडेकर दोनों ही संगीत शिक्षक हैं। कई परिवार की दो पीढ़ियों को संगीत की शिक्षा दे चुके हैं। वे कहते हैं कि यह देखकर सुकून महसूस होता है जब माता-पिता के साथ उनके बच्चे भी गुरु पूर्णिमा पर आशीर्वाद लेने पहुंचते हैं। दो पीढ़ियों को शिक्षा देने के बाद जीवन सफल लगता है।आत्मिक विषय के लिए गुरु महत्वपूर्ण मंजूषा कहती हैं, गुरु सिर्फ ज्ञान देने वाला नहीं होता, बल्कि वह जीवन की दिशा दिखाने वाला पथप्रदर्शक होता है। संगीत जैसे आत्मिक विषय की शिक्षा जब छोटे बच्चों को दी जाती है, तो गुरु की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। मैं जीवन के 50 बसंत देख चुकी हूं। मात्र 8 वर्ष की आयु से संगीत की शिक्षा लेनी प्रारंभ की थी। मेरे पति दीपक 7 साल के थे, जब उन्होंने संगीत सीखना प्रारंभ किया। बीते 32 वर्षों से वे छात्रों को संगीत सीखा रहे हैं। उनके गुरु अनिता सेन और अरुण सेन रहे हैं। मैंने स्व. मुकुंद हीरवे से संगीत की तालिम हासिल की थी। जो कुछ भी आज है, वह गुरुओं का ही सिखाया हुआ है।
