नेशनल डॉक्टर डे: 40 गांवों के मसीहा बने सुरेश, ग्रामीणों से लगाव ऐसा कि छोटे से अस्पताल में गुजार दिए 35 साल

नेशनल डॉक्टर डे : 40 गांवों के मसीहा बने सुरेश, ग्रामीणों से लगाव ऐसा कि छोटे से अस्पताल में गुजार दिए 35 साल
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नगरी से 25 किमी दूर ग्राम बेलर के छोटे से स्वास्थ्य केंद्र मे पदस्थ हुए डॉ. सुरेश आदिवासी मरीजों के इलाज में ऐसे रमे कि उन्हें आसपास के 40 गांवों में भगवान माना जाने लगा है।

रायपुर। चिकित्सा अधिकारी के रूप में नगरी से 25 किमी दूर ग्राम बेलर के छोटे से स्वास्थ्य केंद्र मे पदस्थ हुए डॉ. सुरेश आदिवासी मरीजों के इलाज में ऐसे रमे कि उन्हें आसपास के 40 गांवों में भगवान माना जाने लगा है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में ओपीडी के बाद बुलावा प्रथा को पूरा करते हुए साइकिल में मरीजों के पास पहुंचकर इलाज करते हुए उन्होंने 35 साल बिता दिए। पहली पोस्टिंग फिर वहीं से रिटायरमेंट लेने के बाद भी मरीजों से लगाव नहीं छूटा और अपने गृहग्राम जाने के बजाए वहीं निशुल्क चिकित्सकीय सेवा देने लगे।

नेशनल डॉक्टर डे पर हरिभूमि ने डॉ. सुरेश नाग से बात की। उन्होंने बताया कि भोपाल गैस राहत में ड्यूटी करने के बाद उनकी तीन माह की पोस्टिंग राजनांदगांव के बाकुड़ी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में हुई थी इसके बाद 1986 में नगरी से 25 किमी दूर बेलर के उपस्वास्थ्य केंद्र में पदस्थ हुए और 35 साल सेवा देने के बाद वर्ष 2022 में रिटायर हुए। डॉ. सुरेश इतने लोकप्रिय थे कि सेवानिवृति पर दस गांव में बैंड बाजे के साथ उनकी रैली निकाली गई थी। उन्होंने बताया कि अब प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र का स्वरूप ले चुके सेंटर में 40 गांवों की जिम्मेदारी है। उन्होंने बताया, पहले सुविधा नहीं थी तो उन्हें साइकिल में दूर गांव जाकर मरीजों का इलाज करना पड़ता था। पोस्टिंग के एक साल बाद वहां मलेरिया फैला तो लोगों के इलाज के लिए कई रात दूसरे गांव में बितानी पड़ती थी।

जब मुख्यमंत्री ने दिए दो इंक्रीमेंट
जनसुराज अभियान के दौरान डॉ. रमन सिंह उनके गांव पहुंचे थे। ग्रामीणों ने चालीस गांव के पीछे एक डॉक्टर सुरेश नाग के होने की जानकारी दी। गांववालों ने उनकी चिकित्सकीय सेवा की इतनी तारीफ की, प्रभावित तात्कालीन मुख्यमंत्री ने उन्हें दो वेतनवृद्धि का लाभ दिया। डॉ. सुरेश ने बताया कि वे रिटायर हो चुके हैं, मगर गांववालों से उनका ऐसा लगाव है कि वे बेलर छोड़कर नहीं जाना चाहते। इसलिए घर में आने वाले मरीजों का निशुल्क इलाज कर अपना समय गुजार रहे हैं।

पढ़ाई के लिए बच्चों को दूर भेजा
डॉ. सुरेश ने बताया कि, गांव में प्राथमिक के बाद उच्च शिक्षा की सुविधा नहीं थी। वे गांव के मरीजों को छोड़कर जाना नहीं चाहते थे, इसलिए बच्चों को दूसरे शहर भेजकर उनकी पढ़ाई पूरी कराई। उनके एक बेटे ने चिकित्सा में अपना कैरियर चुना और पढ़ाई पूरी करने के बाद उसी स्वास्थ्य केंद्र में पोस्टिंग पाई, जहां पिता ने 35 साल सेवा दी।

पोस्टमार्टम के वक्त आ गया था शेर, छिपकर बचाई जान
डॉ. सुरेश ने बताया कि, शुरुआती दिनों में सुविधा नहीं होने की वजह से उन्हें दूसरे गांवों में जाकर डिलीवरी से लेकर पोस्टमार्टम तक कराना पड़ता था। इस दौरान उनके साथ कुछ अन्य चिकित्सकीय स्टाफ की टीम साइकिल में बुलावे वाले गांव पहुंचती। उन्होंने बताया कि एक बार सूचना मिली कि बदीगांव में भैंस चराने गए ग्रामीण का शेर ने शिकार किया है। उनकी टीम वन विभाग और पुलिस अमले के साथ गांव पहुंचकर पोस्टमार्टम शुरू करने वाली थी कि शेर आ गया...। पूरी टीम ने छिपकर जान बचाई और शेर के जाने के बाद शव का पोस्टमार्टम पूरा किया था।

ऐसे भी डॉक्टर, उम्र 77 की, मुफ्त सेवा
77 वर्षीय रिटायर डायरेक्टर मेडिकल मेडिकल एजुकेशन डॉ. सुबीर मुखर्जी आर्थो सर्जन हैं। वे आज भी अपनी डिस्पेंसरी व शहर के निजी हास्पिटल में मानव धर्म सेवा के रूप में हड्डी रोग से पीड़ित मरीजों की जांच व उपचार बिना किसी फीस के करते हैं। साथ ही आर्थिक रुप से कमजोर मरीजों के घुटनों की सर्जरी कराने में भी अपनी तरफ से यथासंभव मदद करते हैं। इतना ही नहीं चिकित्सकीय पारामर्श भी बिना किसी फीस के देते हैं। उन्होंने बताया कि 1971 में एमबीबीएस की डिग्री हासिल की और 1976 में पीएससी में उनका सलेक्शन हुआ। भोपाल में पहली पोस्टिंग हुई। बाद में यहां आए। उनका कहना है, मरीजों की सेवा से उन्हें संतुष्टि मिलती है।

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