सेवा और समर्पण का सम्मान: डॉक्टर जिन्होंने इलाज के साथ निभाई सामाजिक जिम्मेदारी

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डॉक्टरों का सम्मान हरिभूमि-आईएनएच के आयुष्मान भवः कार्यक्रम में किया जाएगा। कार्यक्रम रविवार, 18 मई 2025 को होटल बेबीलोन में शाम पांच बजे आयोजित है।

रायपुर। चिकित्सक भगवान का रूप होते हैं। ईश्वर के अलावा वे ही हैं जो मौत के मुंह से इंसान को खींच कर नई जिंदगी दे पाते हैं। ऐसे चिकित्सकों में भी कुछ ऐसे भी हैं जो अपनी पेशेगत जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए सामाजिक जिम्मेदारी भी निभा रहे हैं। उनका दर्जा समाज में और सम्मानजनक बन जाता है। ऐसे ही सामाजिक सरोकार निभाने वाले डॉक्टरों का सम्मान हरिभूमि-आईएनएच के आयुष्मान भवः कार्यक्रम में किया जाएगा। कार्यक्रम रविवार, 18 मई 2025 को होटल बेबीलोन में शाम पांच बजे आयोजित है। प्रदेश के छह चुनिंदा चिकित्सकों का सम्मान होगा। इनमें से तीन चिकित्सकों की कहानी इस प्रकार है।

पिता का सपना साकार करने सत्यसाईं हॉस्पिटल से जुड़ी डॉ. रागिनी पांडे
पिता की इच्छा के अनुरुप कैशलेस सत्यसाईं हॉस्पिटल से जुड़कर बाल हृदय रोग सर्जन डॉ. रागिनी पांडे पिछले 13 साल में साढ़े सात हजार बच्चों की सर्जरी कर उन्हें नया जीवन दे चुकी हैं। छत्तीसगढ़ के अलावा उन्होंने हॉस्पिटल की ओर से श्रीलंका, मलेशिया सहित अन्य देशों में जाकर छोटे बच्चों का ऑपरेशन कर उन्हें हृदय की जटिल बीमारी से मुक्त करवाया। मूलतः महाराष्ट्र धुले की रहने वाली डॉ. रागिनी पांडे पीडियाट्रिक हार्ट सर्जन बनने के बाद यूके में सेवा दे रहे थी। वापस घर आने पर पिता द्वारा उसे भारत में सेवा देने के लिए प्रेरित किया जाता था। पिता की बात स्वीकारते हुए उन्होंने सत्यसाईं संजीवनी हॉस्पिटल का चयन किया और यहां हृदय की गंभीर बीमारी से पीड़ित होकर पहुंचने वाले बच्चों की सर्जरी को अपना लक्ष्य बना लिया। बच्चों की सर्जरी के साथ पीडियाट्रिक हार्ट सर्जरी के ट्रेनर रूप में भी उनकी सहभागिता संस्थान को मिल रही है। संस्थान के निर्देश पर उन्होंने ना केवल भारत बल्कि दूसरे देशों में भी जाकर अपनी सेवा प्रदान की। निजी सेक्टर में बड़े पैकेज को नजर अंदाज कर उन्होंने सेवा को अपना लक्ष्य बनाया। कोविड काल में उनके नेतृत्व में 2000 बच्चों की सर्जरी सफलता पूर्वक पूरी की गई। डॉ. रागिनी ने खुद को सेवा के लिए समर्पित कर दिया है। वे कहती हैं कि इसमें सुकून है। बच्चों के स्वस्थ्य होने के बाद उनकी मुस्कान बेशकीमती होती है। उसे देखकर सेवा की उम्मीद और हौसला, दोनों बढ़ जाते हैं।

पेशेगत सक्रियता के साथ सामाजिक गतिविधि के लिए समर्पित डॉ. राकेश गुप्ता
चिकित्सा जगत के साथ जन सरोकार के मुद्दों पर आवाज बुलंद करने वालों में ईएनटी विशेषज्ञ डॉ. राकेश गुप्ता का जाना पहचाना नाम है। चिकित्सा की पढ़ाई के दौरान छात्र राजनीति में सक्रियता दिखाने वाले डॉ. गुप्ता आईएमए और एएचपीआई के बैनर तले चिकित्सकों के लिए औरसामाजिक कार्यकर्ता के रूप में जन सरोकार के मुद्दों पर आंदोलन का हिस्सा बने हुए हैं। नाक कान गला विशेषज्ञ के रूप अपनी पहचान बनाने वाले डॉ. राकेश गुप्ता छात्र संघ राजनीति में प्रवेश किया और 1984 में पंडित जवाहरलाल नेहरू चिकित्सा महाविद्यालय के छात्र संघ अध्यक्ष निर्वाचित हुए वर्तमान मेडिकल कॉलेज के अस्पताल में 700 बिस्तर अस्पताल आंदोलन का अध्यक्ष के रूप में नेतृत्व किया। जूनियर डॉक्टर' संगठन, इंडियन मेडिकल एसोसिएशन, रायपुर एवं राज्य हॉस्पिटल बोर्ड, चिकित्सा छात्रों एवं जूनियर डॉक्टर्स एसोसिएशन का संरक्षक कान नाक गला विशेषज्ञों की छत्तीसगढ़ एवं राष्ट्रीय इकाई में अलग-अलग पदों में 10 वर्षों तक रहे। ईएनटी विशेषज्ञ के रूप में मध्य भारत में नाक के दूरबीन पद्धति से ऑपरेशन करने वाले मध्य भारत के पहले विशेषज्ञ हैं। पिछले 33 वर्षों में 100 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कॉन्फ्रेंस में अतिथि अध्यक्ष वक्ता और कोऑर्डिनेटर की भूमिका निभाई है। तंबाकू जनित कैंसर एवं धूम्रपान के कानूनी पहलुओं को जमीनी स्तर पर लागू करवाने में, जलवायु प्रदूषण एवं ध्वनि प्रदूषण और शहर के विकास को लेकर नीति निर्माता निर्धारकों से संयोजन एक प्रमुख सामाजिक जिम्मेदारी निभाई है। शहर के अंदर छोटी रेलगाड़ी के कारण ट्रैफिक की समस्या का समाधान और ऑक्सीजोन में वृहत निर्माण को सामाजिक आंदोलन के जरिए ऑक्सीजन की सामाजिक पहल में विशेष भूमिका रही है। वे हर वक्त जरूरत मंद लोगों की मदद के लिए तैयार रहते हैं।

अबूझमाड़ में रच-बस गए डॉ. बृजनंदन बनपुरिया कई चुनौती स्वीकारी
नारायणपुर का अबुझमाड़ इलाका जहां जाने से अच्छे-अच्छे लोग भयभीत हो जाते हैं, वहां के ग्रामीणों की चिकित्सा सेवा उपलब्ध कराने डॉ. बृजनंदन बनपुरिया ने चुनौती स्वीकारी। डॉ. बनपुरिया की पहली पोस्टिंग 1993 में अबुझमाड़ में हुई थी तब वे भी नहीं जानते थे कि चिकित्सा का हुनर वहां के ग्रामीणों के सेवा के लिए ही प्राप्त किया है। ड्यूटी के दौरान जर्जर सड़कों, घनघोर जंगल, ऊंचे पहाड़, गांव पहुंचने के लिए पगडंडीनुमा रास्ता और नदी-नालों को छोटे से नाव में बैठकर पार करना सीधे जिंदगी दांव पर लगाने जैसा था। उस दौरान हैजा और कई तरह महामारी एक साथ कई गांवों में हुई। इलाज के दौरान जंगल में बसे गांव की ओर निकले तो भालुओं से सामना हुआ। कैंप लगाकर कई दिनों तक गांव में रहना पड़ा जहां नाले का पानी पीकर गुजारा किया। कुतुल, पदमकोट और नेलांगुर गांव में पहाड़ी नाले में बहते हुए मौत से रूबरू हुए। टहनियों को पकड़कर लटके रहे बहते पहाड़ी नाले का पानी कम होने के बाद जान बच सकी। गरीब आदिवासियों को देखकर सेवा का जज्बा जागा और तभी से 30 साल अबुझमाड़ इलाके में बीत गए पता ही नहीं चला। अब वे कहते हैं कि अबूझमाड़ ने जिंदगी की उलझने सुलझा दीं और मैं सुकून को बूझ सका। अब यहीं रहना, यही जीना और यहीं मरना। सबकुछ यहीं।

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