विडंबना: देश दुनिया में विख्यात बस्तर की शिल्पकला सड़क पर, ना तो बाजार मिल रहा, ना ही दाम

सुरेश रावल - जगदलपुर । बस्तर की कला संस्कृति और परंपरा देश दुनिया में विख्यात है। यहां के शिल्पियों ने विदेशों तक अपनी कला की छाप छोड़ी है। इसके लिए उनका राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मान हुआ है। बस्तर के शिल्पियों को देश ने पद्मश्री भी दिया है। ऐसे में शिल्पकला की कद्र बस्तर में कितनी है, इसे प्रत्येक रविवार को साप्ताहिक बाजार के दिन संजय मार्केट के हनुमान मंदिर के पास देखा जा सकता है। पुजारी ने गांव के इन गरीबों को बेशकीमती सामानों को बेचने के लिए मंदिर के सामने और बगल में सड़क पर दुकान लगाने की अनुमति दी है। सड़क पर बेलमेटल, पीतल, लौह, शिल्प तथा कौड़ी से सजे वस्त्रों, टोकनी का कितना दाम कितना मिलता होगा, आसानी से समझा जा सकता है। बस्तर के इन शिल्पकला को गढ़ने में कितना श्रम और पैसे लगता है, इसे जानकार ही समझ सकते हैं।
यहां कौड़ियों का मोल नहीं, शहर में सौ गुना तो महानगरों में हजार गुना मिलता है दाम
आदिवासी जनजीवन और शिल्पकला को नजदीक से जानने वाले लोककवि जोगेन्द्र महापात्र जोगी ने कहा कि, सड़क में बिक रहे इन कला शिल्प का मेहनताना तक नहीं मिल पाता। जबकि यही सामान शोरूम में दस गुना और महानगरों में सौ गुना हो जाता है। उन्होंने कहा एक बेलमेटल के बने हाथी का दाम यहां यदि एक हजार रुपए मिलेगा तो शोरूम में दस हजार हो जाएगा। यदि दिल्ली मुम्बई जैसे महानगरों के आर्ट गैलरी में बिकेगा तो पचास हजार तक दाम हो जायेगा। सड़क में बिकते शिल्पकला के बारे में उन्होंने कहा कि इसके लिए जिला प्रशासन और नगर निगम को सर्वप्रथम ध्यान देना चाहिए। कम से कम प्रमुख स्थलों में ये लोग सामान बेचने दुकान लगा सके। यह व्यवस्था फ्री में करनी चाहिए क्योंकि जितनी मेहनत इसे बनाने में लगती है, इसका कुछ न्यूनतम दाम तो होना चाहिए ताकि शिल्पकार और उस गांव के लोगों को अपना परिवार चलाने के लिए अच्छी आमदनी हो सके।
बस्तर की पहचान को उचित स्थल मिलना चाहिए
मोती लाल नेहरू वार्ड के पार्षद आलोक अवस्थी ने कहा कि, संजय मार्केट हनुमान मंदिर का परिसर, जहां सड़क पर शिल्पकला बेची जा रही है, वह मेरा ही वार्ड में आता है। उन्होंने कहा, बस्तर की पहचान यहां की कला संस्कृति है। ऐसे बेशकीमती सामानों के लिए उचित स्थल होना चाहिए। शिल्पियों के बनाये हर तरह के सामानों के लिए नगर निगम की और से एक उचित स्थल में शोरूम होना चाहिए। ताकि पूरे बस्तर के शिल्पी उनके परिवार के लोग और ग्रामीण, देश- दुनिया में प्रसिद्ध अपनी कलाकृति को सही जगह बेच सके । उन्होंने कहा कि, शहर में शिल्पियों के लिए ऐसा कोई स्थल नहीं है। बजट में भी नहीं लिया गया क्योंकि यह विषय कभी आया नहीं है।
विदेशियों से मिलती है सही कीमत
मंदिर के सामने दुकान लगाकर बैठे ग्रामीणों ने हरिभूमि से कहा कि, कई साल से साप्ताहिक बाजार के दिन दुकान लगा रहे हैं। लेकिन सड़क में दुकान लगाने से खरीदने वाले साग सब्जी की तरह मोलभाव करते हैं। कई बार तो ऐसा दाम लगाते है कि उससे ज्यादा बनाने में खर्च हो जाता है। ऐसे में शाम को कपड़े और बोरे में बांधकर शिल्पकला को घर ले जाते हैं। कभी कभी बाहर के पर्यटक जो बस्तर घूमने आते हैं, उनसे ठीक ठाक दाम मिल जाता है। यदि विदेशी आ गये तो वे अच्छी कीमत दे जाते है। कला के सही कद्रदान वही लोग हैं।
