सारंगढ़ में 'गढ़ विच्छेदन' उत्सव की धूम: राज परिवार की दो सौ साल पुरानी परंपरा अब भी है कायम

सारंगढ़ में गढ़ विच्छेदन उत्सव की धूम
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उत्सव में लोगों की भीड़ 

सारंगढ़-बिलाईगढ़ जिले में विजयादशमी पर ऐतिहासिक गढ़ विच्छेदन उत्सव का आयोजन हुआ। 30,000 से अधिक लोगों की मौजूदगी में प्रतिभागियों ने मिट्टी के गढ़ पर साहस दिखाया।

देवराज दीपक- सारंगढ़। छत्तीसगढ़ के सारंगढ़-बिलाईगढ़ जिले में विजयादशमी पर एक बार फिर अपनी ऐतिहासिक परंपरा का गवाह बना। खेलभांठा मैदान में हुआ दो सौ साल पुराना गढ़ विच्छेदन उत्सव हजारों की भीड़ और रोमांचक मुकाबले के बीच संपन्न हुआ।

करीब 30 हजार से अधिक लोग इस अनोखे आयोजन को देखने पहुंचे। मिट्टी के गढ़ पर चढ़ाई के लिए 15 प्रतिभागियों ने साहस और शक्ति का प्रदर्शन किया। जिससे संघर्ष और अवरोधों को पार करते हुए एक विजेता ने गढ़ की चोटी को फतह किया और परंपरा अनुसार उसे 'सारंगढ़ का वीर' का गौरव मिला।

मां समलेश्वरी और मां काली मंदिरों में दर्शन के लिए उमड़े श्रद्धालु
गढ़ विजेता ने ही 40 फीट ऊँचे रावण के पुतले का दहन किया, जिसके साथ ही जयकारों से पूरा मैदान गूंज उठा। इस कार्यक्रम की शुरुआत राजपरिवार ने शांति और समृद्धि के प्रतीक नीलकंठ पक्षी को आकाश में उड़ाकर की थी। उत्सव के बाद श्रद्धालु मां समलेश्वरी और मां काली मंदिरों में दर्शन के लिए उमड़े। देर रात तक शहर में सांस्कृतिक कार्यक्रमों की धूम मची रही। हालांकि, भीड़ और यातायात प्रबंधन की कमी से जगह-जगह जाम की स्थिति बनी रही। सारंगढ़ का गढ़ विच्छेदन इस वर्ष भी आस्था, परंपरा और पराक्रम की अनूठी मिसाल बनकर पूरे अंचल में चर्चा का केंद्र रहा।

दशहरा पर तेलिन सत्ती में नहीं होता रावण दहन
गौरतलब है कि, भारत को उत्सवों का देश कहा जाता है। बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व दशहरा को पूरे देश में धूमधाम से मनाया जा रहा है। इस दौरान रावण वध की नाट्य भी प्रस्तुत किया जाता है। लेकिन धमतरी में एक गांव ऐसा भी है, जहां दशहरा मनाई तो जाती है, पर रावण दहन नहीं किया जाता है। इसके पीछे एक महिला के सती होने की कहानी है। यहां लोग सभी त्यौहारों को धूमधाम से मनाते हैं, लेकिन किसी भी चीज का दहन नहीं करते हैं।

ऐसा किया तो गांव में आ जाती है विपत्ति
धमतरी के तेलीन सत्ती गांव में रावण दहन नहीं किया जाता है। इस गांव में किसी भी त्यौहार में कुछ भी दहन नहीं किया जाता। चाहे वह होलिका दहन हो या दशहरा में रावण दहन या चिता का दहन। यहां त्यौहारों में किसी भी प्रकार की अग्नि नहीं दी जाती। ये प्रथा 12वीं शताब्दी से चली आ रही है। बुजुर्गों ने इस परंपरा को कायम रखने के लिए सभी को कहा है, जिसे आज तक निभाया जा रहा है।

इसके पीछे ये है मान्यता
गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि, इस प्रथा को तोड़कर सती माता को नाराज करने वालों ने या तो संकट झेला है या उनकी जान ही चली गई। इसके पीछे की वजह मान्यता को बताया जाता है। 12 वीं शताब्दी में गांव का एक व्यक्ति तालाब का पानी रोकने खुद ही मिट्टी के बांध के साथ सो गया और उसकी मौत हो गई। इसकी खबर मिलते ही उसकी पत्नी सती हो गई। तबसे ही वो पूजनीय हो गई। गांव का नाम भी उसी सती के नाम पर तेलिन सती रखा गया है।

भानुमति के सती होने की कहानी
ग्रामीण बताते हैं कि, भानपुरी गांव के दाऊ परिवार में सात भाइयों के बाद एक बहन जन्मी। बहन का नाम भानुमति रखा गया। भाइयों ने अपनी इकलौती बहन के लिए लमसेना यानी घरजमाई ढूंढा। दोनों की शादी तय करी दी गई। लेकिन गांव के ही किसी तांत्रिक ने फसल को प्राकृतिक आपदा से बचाने के लिए जीजा की बलि की सलाह दी। इसके बाद भाइयों ने मिलकर अपने होने वाले जीजा की बलि चढ़ा दी। इधर भानुमति पहले ही उसे अपना पति मान चुकी थी, लिहाजा उसने खुद को आग के हवाले कर दिया और सती हो गई।

इस गांव में चिता जलाना भी है मना
इस गांव में सिर्फ होली ही नहीं बल्कि रावण दहन और चिता जलाना भी मना है। किसी की मृत्यु होने पर पड़ोसी गांव की सरहद में जाकर चिता जलाई जाती है। इनका मानना है कि, अगर ऐसा नहीं किया जाता तो, गांव में कोई न कोई विपत्ति आती है। इस दौर में अविश्वसनीय, अकल्पनीय लग सकती है। डिजिटल युग में जीने वाले आज के युवा भी इस प्रथा को अपना चुके हैं। इस गांव में हर शुभ काम तेलिन सती का आशीर्वाद लेने के बाद ही किया जाता है।

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