हिड़मा के गांव में 'सरकार': मौत के बाद सन्नाटा, पर राशन कार्ड, जाति प्रमाणपत्र को समझने शिविर में भीड़

हिड़मा के गांव में सरकार : मौत के बाद सन्नाटा, पर राशन कार्ड, जाति प्रमाणपत्र को समझने शिविर में भीड़
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File Photo 

मोस्ट वांटेड नक्सली कमांडर हिड़मा की मौत के बाद गांव की फिजा बदली हुई है। सरकार ने योजनाओं की जानकारी देने के लिए यहां कैंप लगाया है।

राजेश दास-पूर्वर्ती। मोस्ट वांटेड नक्सली कमांडर हिड़मा की मौत के बाद गांव की फिजा बदली हुई है। सरकार ने योजनाओं की जानकारी देने के लिए यहां कैंप लगाया है और सरकारी योजनाओं को जानने के लिए लोग पहुंच रहे हैं। वहीं, जहां पहले देश के मोस्ट वांटेड और लगभग 1 करोड़ 80 लाख के ईनामी नक्सली कमांडर हिड़मा के एनकाउंटर के बाद बुधवार गुरुवार को हरिभूमि की टीम उसके पैतृक गांव पूर्वर्ती पहुंची।

गांव में कदम रखते ही सबसे पहले जो चीज महसूस हुई, वह था गहरा सन्नाटा। लोग धीरे-धीरे, सावधान निगाहों से बात कर रहे थे। कोई खुलकर बोलना नहीं चाहता, लेकिन, चेहरे बहुत कुछ कह रहे थे। हिड़मा के घर पहुंचने पर एक और। चौंकाने वाली तस्वीर सामने आई। गांव वालों ने बताया कि हिड़मा का अपना मकान तो सालों पहले ही ढह चुका है। कभी जिस घर से वह निकला था, आज वह जमींदोज हो चुका है, उसकी मां अब उसके भाई के घर में रहती है। उम्र और हालात के बोझ से झुकी यह बुजुर्ग महिला माड़वी पूंजी बेटे की मौत की खबर के बाद चुप बैठी है। आंखों में सूख चुके आंसुओं के अलावा कोई शिकायत नहीं दिखी, लेकिन एक गहरी और दबा हुआ दर्द जरूर दिखता है। जिसे शब्दों में बांधा नहीं जा सकता।

नक्सली संगठन में शामिल हुआ तब हिड़मा को स्कूल शिक्षा का कोई ज्ञान नहीं था
आज वहां कोई खुशी नहीं, कोई तालियां नहीं सिर्फ सवाल था कि इतना बड़ा नाम बनने वाला इंसान अपने ही गांव में एक छत भी छोड़कर नहीं गया। देशभर में जिसकी हिंसक पहचान थी, जिसके नाम से सुरक्षाबल वर्षों तक सावधान रहे, वहीं हिड़मा अपने गांव की जमींदोज घर और रोती हुई मां छोड़ गया है। पूवर्ती का यह दृश्य याद दिलाता है कि हिंसा चाहे जितनी बड़ी क्यों न हो जाए, आखिर में वह किसी न किसी मां की गोद को खाली ही करती है। हिड़मा के चचेरे भाई हड़मा ने बताया कि जब वह काफी छोटा था, तब ही हिड़मा घर को छोड़कर नक्सली संगठन में शामिल हो गया था, जब वह नक्सली संगठन में शामिल हुआ तब उसे स्कूल शिक्षा का कोई ज्ञान नहीं था।

हिड़मा के गांव में पसरा रहा मातम
हिड़मा के मारे जाने के दिन से ही पूवर्ती में सीआरपीएफ कैंप के ठीक सामने सुकमा जिला प्रशासन द्वारा आयोजित एक शिविर देखने को मिला, जहां पर पूवर्ती समेत आसपास के तकरीबन 8 से 10 गांव के सैकड़ों ग्रामीण अपना पहचान पत्र बनवाने के लिए पहुंचे थे, जहां उनका आधार कार्ड राशन कार्ड के अलावा बच्चों के जाति प्रमाण पत्र बनाए जा रहे थे। पूवर्ती के लिए बिल्कुल यह नई तस्वीर थी, आज से दो साल पहले इस इलाके में कर्मचारी और अफसरों को प्रवेश से पहले नक्सलियों से इजाजत लेनी पड़ती थी, परंतु अब पहली बार जब उसे इलाके में सड़कों का विस्तार हुआ।

हिड़मा के घर की दीवारों पर दिखी तिरंगे की तस्वीर
देश के सबसे कुख्यात माओवादी कमांडरों में गिने जाने वाले हिड़मा के गांव पूवर्ती में आज एक अलग ही तस्वीर देखने को मिली। हिड़मा के मिट्टी के घर के ठीक सामने अब एक आंगनबाड़ी केंद्र संचालित हो रहा है। आज बच्चों की आवाजें उसी जगह से गूंज रही हैं, जहां कभी नक्सल प्रभाव के चलते सन्नाटा पसरा रहता था। सबसे दिलचस्प दृश्य उसके मिट्टी के मकान की दीवार पर उभरती तिरंगे की पेंटिंग है। एक तरफ प्रतीकात्मक रूप से ध्वज के तीन रंग, और दूसरी तरफ पास ही आंगनबाड़ी का यह दृश्य उस बदलाव को बयान करता है, जिसकी उम्मीद वर्षों से की जा रही थी। गांव वालों के मुताबिक, पहले यह इलाका इतना संवेदनशील था कि सरकारी गतिविधियां यहां पहुंच ही नहीं पाती थीं। लेकिन अब आंगनबाड़ी का नियमित चलना, बच्चों का आना-जाना और दीवार पर राष्ट्रीय रंगों का उभरना यह संकेत है कि पूवर्ती धीरे-धीरे हिंसा की छाया से बाहर आ रहा है।

मैंने उसे बंदूक थामना नहीं सिखाया था
दंडकारण्य के गहरे जंगलों में सुरक्षा बलों की बड़ी कार्रवाई में टॉप कमांडर हिड़मा की मौत की पुष्टि के बाद जहां सुरक्षा एजेंसियां इसे एक बड़ी कामयाबी मान रही है। वहीं उसके पैतृक गांव में एक घर ऐसा भी है जहां खबर एक अलग अर्थ लेकर पहुंची है। वहां एक बुजुर्ग मां बैठी है चुप, थकी हुई और उम्र से ज्यादा घटनाओं के बोझ को ढोती हुई। मां ने सिर्फ इतना कहा.. बेटा जंगल में बड़ा हुआ, पर मैंने उसे मौत वाले रास्ते पर नहीं भेजा था। हिड़मा के घर में वर्षों से वह लौटकर नहीं आया था। नक्सल संगठन की उच्च रैंक में पहुंचने के बाद उसके और परिवार के बीच कोई संपर्क भी नहीं रहा। लेकिन एक मां के लिए बेटा, चाहे कितना ही चर्चित या विवादित क्यों न हो, पहले वही बच्चा होता है, जो कभी खेत के किनारे खेलता था और बारिश में भीगकर लौट आता था।

एक मां का छोटा-सा घर अब और भी शांत हो गया है
वह कहती है घर कि गरीबी, जंगल का जीवन, सबने उसे दूर कर दिया। अगर वह लौट आता, तो मैं उसे रोक लेती। परिवार की जिम्मेदारी लंबे समय से सिर्फ मां के कंधों पर थी। लेकिन अब जिसने कभी लौटकर नहीं देखा, उसके लिए अब कोई इंतजार भी नहीं बचा। सिर्फ यह अफसोस कि बेटा गलत रास्ते पर चला गया और परिवार उससे हमेशा के लिए कट गया। हिड़मा की गतिविधियों, उसकी हिंसक भूमिका और बड़े हमलों में शामिल होने को लेकर सुरक्षा बलों का रवैया सख्त बड़े हमलों में शामिल होने को लेकर सुरक्षा बलों का रवैया सख्त रहा है। लेकिन गांव के भीतर, उसकी मां की प्रतिक्रिया यह याद दिलाती है कि हर बड़े नाम और हिंसक घटना के पीछे एक परिवार भी होता है, जो अक्सर परिस्थितियों, दूरी और डर में टूटता चला जाता है। और सच यही है कि बड़ी कार्रवाई की सुर्खियों के बीच एक मां का छोटा-सा घर अब और भी शांत हो गया है।

गांव में हुआ हिड़मा का अंतिम संस्कार
एक करोड़ से अधिक के ईनामी सेंट्रल कमेटी मेंबर माड़वी हिड़मा व उसकी पत्नी डीकेएसजेडसी राजे |का शव पूवर्ती पहुंचते ही लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा। इससे पूर्व दो दिन तक उसके घर में परिवार की गिनती की महिलाएं व कुछ बच्चे ही मौजूद थे और पूरा घर व आस पास के इलाके में सन्नाटे के अलावा कुछ नहीं था, लेकिन तीसरे दिन गुरुवार सुबह शव पहुंचते ही आस पास के आधा दर्जन गांव से पहुंचे सैकड़ों की संख्या में ग्रामीण हिड़मा की एक झलक पाने के लिए बेताब दिखे। इसके आधे घंटे बाद ही आदिवासी रीति रिवाज के साथ दोनों की अंतिम यात्रा निकाली गई। एक किमी लंबी यात्रा मरघट पहुंचने के बाद दोनों का एक साथ अंतिम संस्कार कर दिया गया।

शव से लिपटकर रोई सोनी सोढ़ी
हिड़मा का शव उसके भाई के घर पहुंचते ही सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोढ़ी और परिवार के सदस्य उसके शव से लिपटकर रोते दिखाई दिए। सोनी सोढ़ी ने हिड़मा के शव पर काली पेंट व शर्ट कपड़ा चढाया, जबकि पत्नी राजे के शव को लाल साड़ी से ढका गया। वह हिड़मा के शव से राजे के शव को लाल साड़ी से ढका गया। वह हिड़मा के शव से लिपटकर रोती रही। उसने कहा कि हिड़मा उसका भाई था और वह एक क्रांतिकारी था। उसने कहा कि देवजी की गिरफ्तारी दिखाई गई, जबकि हिड़मा आदिवासी था इसलिए उसकी हत्या कर दी गई। घर से श्मशान घाट तक वह हिड़मा के शव को पकड़कर चलती दिखाई दी। वहीं गांव के कुछ युवाओं ने बताया कि उसने कभी हिड़मा को नहीं देखा था, लेकिन उसके यदाकदा गांव आने की सूचना मिलती रहती थी।

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