सिहावा का अनोखा दशहरा: रावण नहीं, अहिरावण का वध करती हैं मां शीतला

अहिरावण के पुतले का वध करते हुए
भोजराज साहू- धमतरी। भारत भूमि विविध परंपराओं और लोकविश्वासों से भरी है। कहीं रावण दहन होता है, तो कहीं अच्छाई की जीत का प्रतिक शस्त्र पूजन। लेकिन धमतरी जिले के सिहावा क्षेत्र में दशहरा कुछ अलग ही अंदाज में मनाया जाता है। यहां रावण नहीं, बल्कि अहिरावण का वध किया जाता है। वो भी मिट्टी के नग्न पुतले का, जिसे मां शीतला देवी की खड्ग से मारा जाता है। सदियों पुरानी यह परंपरा आज भी पूरे श्रद्धा और उल्लास के साथ निभाई जा रही है।
धमतरी से लगभग 70 किलोमीटर दूर सोनामार गांव में यह अनोखा उत्सव विजया दशमी के अगले दिन यानी एकादशी तिथि को मनाया जाता है। सुबह से ही हजारों लोग आसपास के गांवों और जिलों से यहां जुटने लगते हैं। पूरा माहौल मेले में बदल जाता है। लोग मां शीतला का आशीर्वाद लेने और अहिरावण की मिट्टी अपने साथ घर ले जाने आते हैं।
पुलिस निभाती है चांदमारी की रस्म
इस मिट्टी के पुतले की खासियत यह है कि, यह गांव-गांव से एकत्र की गई मिट्टी से बनाया जाता है और इसे एक विशेष कुम्हार परिवार ही पीढ़ी दर पीढ़ी बनाता आ रहा है। परंपरा के अनुसार, शीतला मंदिर से पूजा-पाठ के बाद मुख्य बैगा (आदिवासी पुजारी) मां के खड्ग के साथ सोनामार की ओर प्रस्थान करता है। रास्ते में सिहावा थाने पर पुलिस चांदमारी की रस्म निभाती है, जो प्रतीकात्मक रूप से बुराई पर प्रहार को दर्शाती है।
धमतरी जिले के सिहावा के सोनामार गांव में दशहरा रावण दहन से नहीं, बल्कि मिट्टी के अहिरावण पुतले वध कर मनाया जाता है...@DhamtariDist #Chhattisgarh #Dussehra pic.twitter.com/XWqwLF9mpC
— Haribhoomi (@Haribhoomi95271) October 4, 2025
आयोजन में महिलाएं नहीं होती मौजूद
सोनामार पहुंचने के बाद बैगा खड्ग लेकर अहिरावण के पुतले के चारों ओर नृत्य करता है और फिर एक ही वार में उसका वध कर देता है। जैसे ही वध होता है, भीड़ पुतले की मिट्टी को आस्था स्वरूप अपने घर ले जाने लगती है। मान्यता है कि, यह मिट्टी घर में सुख शांति और नकारात्मक शक्तियों से रक्षा करती है।दिलचस्प बात यह है कि, इस पूरे आयोजन में महिलाओं को शामिल होने की अनुमति नहीं होती। यह परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। कथा के अनुसार, वासना से ग्रसित असुर अहिरावण का वध माता चण्डिका ने अपने खड्ग से किया था, उसी घटना की स्मृति में यह पर्व आज भी मनाया जाता है।
आदिवासी संस्कृति और लोक परंपरा की गहराई
सिहावा का यह दशहरा धार्मिक आस्था के प्रतिक होने के साथ आदिवासी संस्कृति और लोक परंपरा की गहराई को भी उजागर करता है। पहले यह आयोजन क्षेत्रीय स्तर तक सीमित था, लेकिन अब सोशल मीडिया और इंटरनेट के दौर में इसकी ख्याति दूर-दूर तक फैल चुकी है। हर वर्ष यहां आने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। भारत की सांस्कृतिक विविधता में सिहावा का दशहरा एक अद्भुत और विलक्षण विरासत की तरह चमकता है। जहां आधुनिकता की तेज़ रफ्तार के बावजूद लोकआस्था की जड़ें आज भी उतनी ही गहरी हैं, जितनी सदियों पहले थीं।
