बिहार चुनाव 2025: तेजस्वी यादव की चुनावी रणनीति में कहां रह गई बड़ी चूक? इन 10 कारणों को समझिये!

तमाम कोशिशों के बावजूद, तेजस्वी यादव की अगुवाई वाला महागठबंधन सत्ता से काफी दूर रह गया।
पटना डेस्क : बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के परिणाम ने राष्ट्रीय जनता दल के नेतृत्व वाले महागठबंधन के लिए निराशाजनक रहे हैं। तमाम उम्मीदों के बावजूद, तेजस्वी यादव की अगुवाई वाला महागठबंधन सत्ता से काफी दूर रह गया।
चुनावी पंडितों और राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस बड़ी पराजय के पीछे तेजस्वी के चुनाव प्रबंधन और रणनीति में कुछ गलतियां रहीं। देखिये किन कारणों से महागठबंधन अपनी अपेक्षित सफलता हासिल नहीं कर सका।
यादव समीकरण पर अत्यधिक निर्भरता
आरजेडी ने इस चुनाव में अपनी पारंपरिक ‘माय’ (मुस्लिम-यादव) समीकरण की नींव, यानी यादवों पर हद से ज़्यादा भरोसा किया। पार्टी द्वारा 52 यादव उम्मीदवारों को टिकट दिया जाना एक बड़ा जोखिम साबित हुआ। इस कदम ने मतदाताओं के बीच यह संदेश दिया कि पार्टी केवल एक ही जाति पर निर्भर है।
इस अत्यधिक यादव प्रतिनिधित्व ने गैर-यादव, अगड़ी जातियों और अति पिछड़ा वर्ग के मतों को एनडीए की तरफ धकेल दिया, जिससे आरजेडी का आधार सीमित हो गया।
सहयोगी दलों को मंच पर कम महत्व देना
गठबंधन के प्रमुख घटक दल जैसे कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों को तेजस्वी यादव ने अपनी रणनीति में उचित सम्मान नहीं दिया। सीट बंटवारे में शुरुआती विवादों के अलावा, प्रचार के दौरान भी तेजस्वी ने खुद को केंद्र में रखा। गठबंधन के घोषणापत्र का नाम भी 'तेजस्वी प्रण' रखना सहयोगी दलों को अखरा।
इस 'आरजेडी-केंद्रित' दृष्टिकोण के कारण गठबंधन में एकता की कमी दिखी, जिसका सीधा नुकसान वोटों के वोट ट्रांसफर पर पड़ा और एनडीए को एकजुटता दिखाने का फायदा मिला।
बड़े वादों के क्रियान्वयन की ठोस योजना का अभाव
तेजस्वी यादव ने युवाओं के बीच 'दस लाख सरकारी नौकरी' जैसे बेहद आकर्षक वादे किए, जिसने बड़ी उम्मीदें जगाईं। हालांकि, इन वादों को ज़मीन पर उतारने के लिए वित्तीय प्रबंधन या ब्लूप्रिंट जनता के सामने नहीं रखी गई। प्रचार के दौरान ब्लूप्रिंट देने की घोषणाए होती रहीं, पर वह कभी सामने नहीं आया।
ठोस योजना के इस अभाव ने मतदाताओं के मन में यह संदेह पैदा कर दिया कि ये वादे केवल चुनावी जुमले थे, जिससे उन पर भरोसा कायम नहीं हो पाया।
धार्मिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने वाली 'तुष्टीकरण' की धारणा
महागठबंधन को राजनीतिक गलियारों में 'मुस्लिमपरस्त' गठबंधन के रूप में देखा गया, जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा। हालांकि मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में जीत मिली, लेकिन राज्य के अन्य हिस्सों में इस छवि ने हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण को मजबूत किया।
बीजेपी ने लालू प्रसाद की पुरानी बातों को याद दिलाकर और 'जंगल राज' के डर को हवा देकर इस धारणा का भरपूर फायदा उठाया, जिसने आरजेडी को अपने कोर सामाजिक न्याय के एजेंडे से बाहर समर्थन जुटाने से रोक दिया।
लालू प्रसाद की विरासत से तालमेल बिठाने में झिझक
तेजस्वी यादव अपने पिता और आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद की राजनीतिक विरासत को लेकर एक उलझन की स्थिति में रहे। एक तरफ उन्होंने 'सामाजिक न्याय' की विचारधारा को आगे बढ़ाया, वहीं दूसरी तरफ पोस्टर और बैनरों में लालू की तस्वीर को छोटा कर दिया। 'जंगल राज' के दाग से बचने के लिए यह दूरी बनाने की कोशिश की गई, लेकिन इससे लालू के पुराने और वफादार समर्थक असमंजस में पड़ गए।
महिला वोटरों को अपनी ओर आकर्षित करने में नाकामी
तेजस्वी यादव ने अपनी चुनावी रैलियों में युवाओं और रोज़गार पर ध्यान केंद्रित किया, लेकिन महिला मतदाताओं को लुभाने में वह एनडीए और नीतीश कुमार से पीछे रह गए। आरजेडी ने अपने कोटे की 143 सीटों में से 24 टिकट महिला उम्मीदवारों को दिए थे, जो महागठबंधन में सबसे अधिक संख्या थी, इसके बावजूद महिला वोटर्स का झुकाव एनडीए की तरफ बना रहा।
महिला वोटर्स को अक्सर नीतीश कुमार के कल्याणकारी कार्यों, जैसे शराबबंदी का सबसे बड़ा समर्थक माना जाता है। इसके साथ ही, आरजेडी के शासनकाल से जुड़े 'जंगलराज' के पुराने नैरेटिव ने भी कई महिला वोटरों के मन में सुरक्षा को लेकर संशय बनाए रखा। नतीजतन, महिला मतदाताओं के एक बड़े वर्ग ने महागठबंधन के बजाय एनडीए पर अपना भरोसा बनाए रखा।
टिकट वितरण के बाद विद्रोह और अनुशासनहीनता
टिकट बाटने के दौरान आरजेडी के भीतर व्यापक असंतोष और अनुशासनहीनता देखने को मिली। कई सीटों पर, जहा सीट-शेयरिंग के तहत दूसरे सहयोगी को टिकट दिया गया, वहा आरजेडी के बागी या असंतुष्ट उम्मीदवार खड़े हो गए। कुछ मामलों में तो पार्टी के नाम पर खड़े उम्मीदवार के खिलाफ ही प्रचार करने की स्थिति बन गई। इस तरह के आंतरिक विद्रोह और भ्रम ने जनता के बीच महागठबंधन की एकजुटता को लेकर संदेह पैदा किया और एनडीए को सीधा फायदा पहुंचाया।
लालू परिवार की आंतरिक कलह और बड़े भाई के बगावती तेवर
आरजेडी की हार के पीछे एक कारण लालू प्रसाद यादव के परिवार में मौजूद कलह और बड़े बेटे तेज प्रताप यादव का पार्टी विरोधी रुख रहा। चुनावों से पहले और दौरान तेज प्रताप यादव द्वारा सार्वजनिक रूप से दिए गए बागी बयान और पार्टी नेतृत्व के खिलाफ उनका मुखर विरोध मतदाताओं के बीच एक नकारात्मक संदेश लेकर गया।
परिवार के भीतर की यह खींचतान जनता को यह संकेत देती थी कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में स्थिरता और एकता नहीं है। लोगों में यह धारणा बनी कि जिस पार्टी का परिवार ही एकजुट नहीं है, वह राज्य को स्थिर शासन कैसे दे पाएगी।
तेज प्रताप की लगातार बयानबाज़ी और उनके द्वारा अपनी पार्टी बनाने से ज़मीनी स्तर पर आरजेडी कार्यकर्ताओं का मनोबल प्रभावित हुआ।
इस घरेलू विवाद ने एनडीए गठबंधन को यह प्रचारित करने का मौका दे दिया कि आरजेडी आंतरिक झगड़ों में उलझी हुई है। विपक्ष ने इस स्थिति का फायदा उठाते हुए 'अस्थिर नेतृत्व' और 'जंगलराज' के पुराने नैरेटिव को और मज़बूत किया, जिसका सीधा नुकसान तेजस्वी यादव की अगुवाई वाले महागठबंधन को उठाना पड़ा।
कांग्रेस नेतृत्व द्वारा मुख्यमंत्री पद के चेहरे को देर से स्वीकारना
महागठबंधन में एकता की कमी और नेतृत्व को लेकर अस्पष्टता भी तेजस्वी यादव की हार का एक कारण बनी। राष्ट्रीय जनता दल ने भले ही तेजस्वी को अपना मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित कर दिया था, लेकिन कांग्रेस पार्टी और विशेष रूप से उसके शीर्ष नेता राहुल गांधी ने काफी देर से उन्हें महागठबंधन के नेता के रूप में औपचारिक रूप से स्वीकार किया। इस देरी ने मतदाताओं और गठबंधन के कार्यकर्ताओं के बीच यह संदेह पैदा किया कि क्या कांग्रेस तेजस्वी के नेतृत्व पर पूरी तरह सहमत है या नहीं। NDA ने इस देरी का फायदा उठाते हुए यह प्रचारित किया कि गठबंधन में भीतर ही भीतर विश्वास का संकट है। चुनाव से ठीक पहले नेतृत्व को देर से स्वीकृति मिलने का नकारात्मक संदेश निर्णायक साबित हुआ।
राष्ट्रीय स्तर के नारों से स्थानीय मुद्दों का दब जाना
राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी ने अपने प्रचार के दौरान कुछ ऐसे नारों और मुद्दों को उठाने की कोशिश की, जिनका सीधा संबंध बिहार के मूल मुद्दों से कम था। उपयोगकर्ता द्वारा बताए गए नारे जैसे 'वोट कर गाड़ी छोड़ या इसी तरह के अन्य नारो ने बिहार के स्थानीय सरोकारों, ख़ासकर राज्य में भ्रष्टाचार, क़ानून-व्यवस्था या जैसे मुद्दों को पीछे धकेल दिया। महागठबंधन, जो मूल रूप से रोज़गार और स्थानीय विकास पर केंद्रित था, राष्ट्रीय मुद्दों की तरफ ध्यान भटकने के कारण अपने मुख्य संदेश पर मजबूत पकड़ नहीं बना सका। इससे वोटर का ध्यान भ्रमित हुआ और एनडीए को स्थानीय मुद्दों पर चर्चा से बचने का मौका मिल गया।
