ऐसे क्या हुआ था, जब इंसानों पर जानवरों की तरह कर डाले गए एक्सपेरिमेंट

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By - haribhoomi.com |8 Oct 2015 6:30 PM
साल 1939 में एक पैथोलॉजिस्ट डॉक्टर वेंडेल जॉनसन ने अपने परीक्षणों को लोवा में एक अनाथालय में अंजाम दिया।
नई दिल्ली. साल 1966 में एक डॉक्टर ने खतने के नाम पर एक लड़के के जननांग को इतनी क्षति पहुंचाई कि उसके जननांग को पूरा हटाना पड़ गया। बाद में सेक्सुअल आइडेंटिटी के एक्सपर्ट जॉन होपकिन्स के प्रोफेसर डॉक्टर जॉन मनी ने लड़के के लिंग परिवर्तन का सुझाव दिया और ब्रूस को ब्रेंडा बनना पड़ा।
डॉक्टर मनी लगातार लड़के के माता-पिता को आश्वासन देता रहा कि उसने जो किया वो एकदम ठीक था। लिंग परिवर्तन की सफलता को उसने अखबारों में भी छपवाया। और जब ब्रेंडा को मनोचिकत्सक के पास ले जाया जाता तो मनी उसे खुद को लड़की स्वीकार करने के लिए खूब धमकाता।
आखिर में ब्रेंडा ने कंस्ट्रक्टिव सर्जरी करवाई और शादी कर ली। लेकिन उसके बचपन की विपदा ने उसके ऐसा सदमा दिया कि वो अपनी शादीशुदा जिंदगी नहीं बिती सका। उसका तलाक हो गया। दो साल बाद साल 2002 में उसके भाई की मौत के बाद डेविड रीमर ने आत्महत्या कर ली। डॉक्टर मनी पर कभी मुकदमा नहीं चला और साल 2006 में अपनी मौत तक वो जॉन्स होपकिंन्स में अवकाश प्राप्त प्रोफेसर रहे।
होम्सबर्ग परफ्यूम एक्सपेरीमेंट
प्रसिद्ध त्वचा विशेषज्ञ अलबर्ट क्लिगमैन ने साल 1951 में होम्सबर्ग जेल से परीक्षण के लिए कैदी मांगे। इस दौरान क्लिगमैन ने त्वचा संबंधी परीक्षण के नाम पर सरकारी और गैरसरकारी कंपनियों के लिए डियोड्रेंट, शैंपू, फुट पाउडर आदि के परीक्षण किए।
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सेन फ्रांसिसको में सेरेशिया टेस्टिंग
साल 1950 में अमेरिकी सेना ने सैन फ्रांसिसको की खाड़ी में जैविक हमले को लेकर एक अजीब प्रयोग किया जिसमें लाखों लोग जानलेवा बैक्टीरिया की घेरे में आ गए। सेना ने सेरेशिया मार्सेसेंस नामक केमिकल के बादल बना कर छोड़ दिए। इसके बैक्टीरिया से करीब एक दर्जन लोगों को निमोनिया की शिकायत का सामना करना पड़ा और एक मौत हो गई।
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मिनेसोटा भुखमरी परीक्षण
दूसरे विश्व युद्ध के समय अमेरिकी सेना ने मिनेसोटा में भुखमरी झेलने वाला प्रयोग किया। इसमें वो हट्टे-खट्टे जवान लिए गए जो युद्ध में लड़ने नहीं गए थे। प्रयोग में शामिल लोगों को पहले कुछ दिनों तक खिला-पिला कर तंदुरुस्त किया गया फिर उनके खाने में कटौती कर दी गई।
इसके अलावा सभी से हफ्ते में करीब 36 किलोमीटर पैदल चलने के लिए कहा गया। कुछ ही दिनों में प्रयोग में शामिल लोगों का 25 फीसदी तक वजन कम हो गया और उन्हें एनीमिया और अवसाद की शिकायत हो गई। बाद में बताया गया कि भुखमरी से उबरने के लिए एक आदमी को हर रोज करीब चार हजार कैलोरीज की जरूरत पड़ेगी।

द मॉन्स्टर स्टडी
साल 1939 में एक पैथोलॉजिस्ट डॉक्टर वेंडेल जॉनसन ने अपने परीक्षणों को लोवा में एक अनाथालय में अंजाम दिया। वेंडेल ने तकरीबन पांच महीनों तक हकलाने वाले 22 बच्चों पर प्रयोग किया। अपने प्रयोग के दैरान वेंडेल ने हकलाने वाले बच्चों के साथ उन बच्चों को भी शामिल किया जो ठीक थे। वेंडेल के प्रयोग की तारीफ की गई। लेकिन बाद में देखा गया कि जिन बच्चों को हकलाहट की शिकायत थी वो पहले से ज्यादा हकलाने लगे थे।

द एसटीडी एक्सपेरिमेंट्स
योग में किसी को मुंह के छाले तो किसी को त्वचा संबंधी रोग हुए तो किसी का लीवर खराब हो गया। करीब 400 लोगों पर प्रयोग हुआ जिसके आखिर में केवल 74 लोग जिंदा बचे थे। इस प्रयोग के चलते करीब 40 फीसदी मरीजों की पत्नियां भी गंभीर बीमारी के प्रभाव में आ गईं और उनके 20 बच्चे भी कोग्नीजेंटल सिलीफिस की बीमारी के साथ पैदा हुए। साल 1947 तक केवल यही एक मात्र बीमारी नहीं थी जब इसके इलाज में पेंसिलिन का प्रयोग किया गया।

द वेंडरबिल्ट रेडिओएक्टिव आयरन एक्सपेरिमेंट
साल 1945 में वेंडरबिल्ट विश्वविद्यालय ने दावा किया कि वो गर्भवती महिलाओं के पोषण के लिए एक अध्ययन कर रही है। शोधार्थियों ने दावा किया कि उनकी दवा महिलाओं को एनीमिया से बचाएंगी। उन्होंने 829 महिलाओं को रेडियोएक्टिव आयरन वाली गोलिया खाने को दीं। शोधार्थी ये देखना चाहते थे कि एक गर्भवती महिला आयरन की कितनी मात्रा पचा सकती है। इन गोलियों से महिलाओं को 30 फीसदी ज्यादा रेडिएशन से जूझना पड़ा। रेडिएशन का असर यहीं खत्म नहीं हुआ।

प्रोजेक्ट 4.1
साल 1954 में कैस्टल ब्रावो में रेडिएशन प्रयोग के तौर पर रहस्य बनाकर हाइड्रोजन बम का धमाका किया गया। लोगों पर इस बम धमाके का बुरा प्रभाव पड़ा। अगले एक दशक तक महिलाओं का गर्भपात, बालों की समस्या, त्वचा के रोग होते रहे। जो बच्चे बचे उनमें ज्यादातर को थायरॉइड कैंसर की समस्या थी। अमेरिकी इसे एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना करार देते हैं लेकिन द्वीप के लोगों के लोग कहते हैं कि उन्हें रेडिएशन प्रयोग में गिनी सुअरों की तरह इस्तेमाल किया गया।

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