जीवन दर्शन: “तपो ब्रह्म”- "विजिज्ञासा से ब्रह्मज्ञान तक... एक साधक की मौन यात्रा"

स्वामी अवधेशानंद गिरि- जीवन दर्शन
तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व, तपो ब्रह्मेति !
- मुण्डकोपनिषद् १.१.९
मुण्डकोपनिषद् का यह दिव्य मन्त्र “तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व, तपो ब्रह्मेति” आत्मा की गहराइयों से निकलने वाला वह आह्वान है, जो हमें बताता है कि ब्रह्म को केवल बुद्धि से नहीं, बल्कि तप से जाना जा सकता है। यह मन्त्र न केवल तप की महिमा बताता है, बल्कि यह भी उद्घाटित करता है कि जब साधक पूर्ण समर्पण से तप करता है, तब वह स्वयं ब्रह्मरूप हो जाता है। स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज के 'जीवन दर्शन' स्तंभ के माध्यम से हम समझेंगे कि कैसे 'तप' ही 'ब्रह्म' का जीवंत रूप है।
उपनिषदों की वाणी केवल कोई दार्शनिक संवाद या सैद्धांतिक विमर्श नहीं है। यह जीवन के पारमार्थिक रहस्यों का उद्घाटन है- एक ऐसी चेतना की गूंज, जो आत्मा की गहराइयों से उठती है और ब्रह्म के आलोक की ओर मार्गदर्शन करती है। यह दिव्य वाणी मनुष्य के अंतःकरण को शुद्ध करने का साधन है, जो उसे शाश्वत के साक्षात्कार तक पहुँचाती है। मुण्डकोपनिषद् का नवम मंत्र- "तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व, तपो ब्रह्मेति"- इसी दिव्यता का सघन सूत्र है।
यह मंत्र मात्र एक उपदेश नहीं, बल्कि ब्रह्मज्ञान की साधना का मूल सूत्र है। इसमें ‘तप’ और ‘ब्रह्म’- दो शब्दों का प्रयोग हुआ है, पर वास्तव में ये एक ही चेतना के दो रूप हैं। यह मंत्र स्पष्ट करता है कि ब्रह्म को जानने की जो उत्कंठा है, वह केवल वैचारिक स्तर पर नहीं टिक सकती- वह तभी साकार हो सकती है जब साधक अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को तप में अर्पित करे, क्योंकि तप ही ब्रह्म है।
‘तप’ का गूढ़ तात्त्विक अर्थ
‘तप’ का सामान्य अर्थ कठोर साधना, उपवास, व्रत, तपोवनों में रहकर तपस्या करना होता है, लेकिन उपनिषद् में इसका भाव बहुत गहरा और व्यापक है। यह एक आन्तरिक प्रक्रिया है- आत्मसंयम, इन्द्रियनिग्रह, मनःशुद्धि, चित्त की एकाग्रता और अंततः आत्म-साक्षात्कार की ओर अग्रसर होने की साधना।
जब साधक अपने भीतर के विकारों का दमन नहीं, बल्कि रूपांतरण करता है, जब वह अपने कर्मों, वचनों और विचारों को संयमित करता है, जब वह बाहरी आडंबर से भीतर की निष्ठा की ओर मुड़ता है- तभी ‘तप’ आरंभ होता है। यही वह क्षण होता है जब ‘तप’ साधक के भीतर ब्रह्म का आलोक बनकर प्रकट होता है। उस समय ब्रह्म कोई परोक्ष सत्ता नहीं रह जाता, वह स्वयं के भीतर धधकता हुआ आत्मदीप बन जाता है।
‘विजिज्ञासा’- केवल जानना नहीं, ‘बन’ जाना
उपनिषद् यहाँ केवल ‘जिज्ञासा’ नहीं, बल्कि ‘विजिज्ञासा’ शब्द का प्रयोग करता है — जो सामान्य जानने की इच्छा नहीं, बल्कि पूर्णता से अनुभव करने की उत्कंठा है। यह ऐसा ज्ञान है जो केवल बुद्धि या ग्रंथों में नहीं, बल्कि साधक के सम्पूर्ण अस्तित्व में उतरता है। यह अनुभव तब घटित होता है जब साधक की सम्पूर्ण चेतना तप की ज्वाला में जल चुकी होती है।
गीता और उपनिषदों में ‘तप’ की भिन्न परतें
श्रीमद्भगवद्गीता ‘तप’ को तीन रूपों में प्रस्तुत करती है:
- शारीरिक तप- सेवा, शुचिता, ब्रह्मचर्य आदि।
- वाचिक तप-मधुर वाणी, सत्य भाषण, वेद पाठ।
- मानसिक तप- प्रसन्नता, मौन, आत्मनियंत्रण, चित्त की एकाग्रता।
लेकिन मुण्डकोपनिषद् का यह मंत्र इन सभी परतों के पार जाकर उस ‘तप’ की ओर संकेत करता है जिसमें साधक का समर्पण पूर्ण हो। यह वह स्थिति है जब साधना कोई साधन नहीं रह जाती, बल्कि साधक स्वयं ही साधना बन जाता है। वहाँ न कोई अलग ब्रह्म है, न कोई जानने वाला — वहाँ केवल एक ही सत्ता बचती है — "तपो ब्रह्म।"
ब्रह्म साक्षात्कार की मौन यात्रा
वेदान्त कहता है कि ब्रह्म को शब्दों से नहीं जाना जा सकता। कठोपनिषद् स्पष्ट कहता है-
“नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यः न मेधया न बहुना श्रुतेन।”
आत्मा प्रवचनों, बुद्धिमत्ता या अधिक शास्त्रज्ञान से प्राप्त नहीं होती। वह उसी को प्राप्त होती है, जो स्वयं को तप की अग्नि में झोंक चुका हो। यह कोई दर्शनीय यज्ञ नहीं, आत्महोत्र है। यह वह साधना है जहाँ जीवन की हर साँस तप का मंत्र बन जाती है।
तपस्वरूप जीवन- जीवन का ब्रह्मत्व
यदि इस मंत्र को एक कवि की दृष्टि से देखें, तो यह जीवन को तपस्वरूप देखना सिखाता है:
- जब कोई मौन में आत्मनिरीक्षण करता है,
- जब कोई अपनी क्षणिक इच्छाओं का परित्याग करता है,
- जब कोई अपनी सीमाओं को पार कर आत्मप्रकाश की ओर बढ़ता है- तो वह एक तपस्वी है। और वह क्षण ब्रह्म की ओर उठते अग्निकण हैं।
उपसंहार: तप- साधना का प्रारम्भ भी, पूर्णता भी
मुण्डकोपनिषद् का यह मंत्र महज श्लोक नहीं, बल्कि जीवन को दिव्यत्व की ओर ले जाने वाला प्रकाश-मार्ग है। यह वेदान्त की वह ध्वनि है, जो कहती है —
"ब्रह्म कहीं बाहर नहीं, वह तुम्हारे ही भीतर, तुम्हारे आत्मदीप में जलता हुआ, तपस्वरूप उपस्थित है।"
इसलिए, यदि ब्रह्म को जानना है, अनुभव करना है, तो केवल पढ़ना या सुनना पर्याप्त नहीं- तप करना होगा। और जब यह तप पूर्ण हो जाता है, तब जिज्ञासु स्वयं ब्रह्मस्वरूप बन जाता है। यही उपनिषद् का गूढ़ संदेश है-
“तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व — तपो ब्रह्म।”
