स्वामी अवधेशानंद गिरि- जीवन दर्शन: मोक्ष का प्रथम चरण और पूर्ण स्वरूप क्या है?

स्वामी अवधेशानंद गिरि- जीवन दर्शन
Jeevan Darshan: 'जब साधक अपने चैतन्य स्वरूप में स्थित होकर संसार को साक्षी भाव से देखता है, तब उसे अहैतुक आत्मानन्द की प्राप्ति होती है। यही वेदान्त का परम पुरुषार्थ है, जिसे 'आत्म-साक्षात्कार' कहते हैं।' जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज के 'जीवन दर्शन' स्तम्भ में आज पढ़िए 'वेदान्त' के बारे में। आप जानेंगे कि मोक्ष का प्रथम चरण और पूर्ण स्वरूप क्या है?
वेदान्त का सार यही है कि 'अहं ब्रह्मास्मि'- मैं ब्रह्म हूँ। उपनिषदों में वर्णित यह महावाक्य न केवल ज्ञान का उद्घोष है, अपितु आत्मस्वरूप की अनुभूति का स्वर भी है। प्रायः हम अपने को देह, मन, बुद्धि, चित्त, इन्द्रियाँ या अहंकार के साथ तादात्म्य कर लेते हैं, किन्तु वेदान्त हमें स्मरण कराता है कि हमारा मूल स्वरूप इन सबसे परे, चिदानन्दरूप, नित्य, शाश्वत और अविनाशी सत्ता है। यह सत्ता ही जीव का वास्तविक ‘आत्म-स्वरूप’ है, जो परमात्मा का अंश रूप होकर भी उसी ब्रह्मतत्त्व से विलग प्रतीत होता है।
जीव जब देहबुद्धि, मनबुद्धि या कर्मबुद्धि में उलझकर अपने आत्म-तत्त्व को विस्मृत कर देता है, तब वह मोह, भय, संशय, अज्ञान एवं दुःख का अनुभव करता है। यह विस्मृति ही बन्धन का कारण बनती है। यही कारण है कि वेदान्त बारंबार आत्मस्मृति, आत्मचिन्तन और आत्मबोध की आवश्यकता पर बल देता है।
भगवत्पाद आद्य शंकराचार्य जी द्वारा रचित निर्वाणषट्कम् में आत्मा के शुद्ध स्वरूप का वर्णन अत्यन्त विलक्षण ढंग से किया गया है ।
'मनो बुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहं
न च श्रोत्र जिव्हे न च घ्राण नेत्रे।
न च व्योम भूमि न तेजो न वायुः
चिदानंदरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ।।'
इस श्लोक में स्पष्ट किया गया है कि आत्मा इन्द्रियों, अन्तःकरण अथवा पंचमहाभूतों का योगफल नहीं है, अपितु वह चिदानन्दघन, साक्षी, निर्लेप और स्वतंत्र सत्ता है। आत्मा ‘शिव’ है - शुभ, शुद्ध, सदा मुक्त है।
जीव का परमात्मा से सम्बन्ध है ! भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
'ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः'
अर्थात् जीव सनातन रूप से मेरा ही अंश है। यह वैदिक दर्शन का मूलाधार है। जीव, परमात्मा से अविच्छिन्न सम्बन्ध रखता है, यद्यपि वह अविद्या के कारण स्वयं को पृथक अनुभव करता है। जब यह जीव अपने आत्मस्वरूप को पहचान लेता है, तब वह भौतिक जगत के बन्धनों से मुक्त होकर परमात्मा में लीन हो जाता है, जिसे वेदान्त 'मोक्ष' कहता है।
आत्मस्मृति और साधना का विशेष महत्व है। आत्मस्मृति का अर्थ केवल ज्ञान प्राप्त करना नहीं, अपितु उस ज्ञान की अन्तःप्रवृत्ति द्वारा अपने जीवन में भगवदीय सत्ता की प्रतिष्ठा करना है। जब मनुष्य अपने चैतन्य स्वरूप का बोध करता है, तब उसका अंतःकरण आत्मानन्द से पूरित हो उठता है। यह आत्मानन्द, किसी इन्द्रियविषय या बाह्य अनुभव का परिणाम नहीं होता, वरन् आत्मा की स्वाभाविक स्थिति है। इस स्थिति में पहुँचकर साधक के भीतर भगवान की विभूतियाँ- करुणा, क्षमा, शान्ति, साहस, निर्भयता, विवेक, अपूर्व सामर्थ्य आदि स्वतः प्रस्फुटित होने लगते हैं।
वेदान्त हमें आत्मा के स्वरूप का साक्षात्कार कराकर, जीव को भ्रम, भय और अज्ञान से मुक्त कर उसकी दिव्यता की अनुभूति कराता है। आत्म-स्मृति ही मोक्ष का प्रथम चरण है और आत्म-बोध ही मोक्ष का पूर्ण स्वरूप। जब साधक अपने चैतन्य स्वरूप में स्थित होकर संसार को साक्षी भाव से देखता है, तब उसे अहैतुक आत्मानन्द की प्राप्ति होती है। यही वेदान्त का परम पुरुषार्थ है, जिसे 'आत्म-साक्षात्कार' कहते हैं।
