स्वामी अवधेशानंद गिरि- जीवन दर्शन: अपरा विद्या और परा विद्या क्या है?

Swami Avadheshanand Giri- jeevan darshan 23 may 2025
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स्वामी अवधेशानंद गिरि- जीवन दर्शन

jeevan darshan: जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज के 'जीवन दर्शन' स्तम्भ में आज पढ़िए अपरा विद्या और परा विद्या के महत्व के बारे में।

jeevan darshan: भगवान आद्य शंकराचार्य जी इस मंत्र पर भाष्य करते हुए स्पष्ट करते हैं कि अपरा विद्या ‘सोपाधि ज्ञान’ है और परा विद्या ‘निरुपाधि आत्मज्ञान’। परा विद्या ही मुक्ति का एकमात्र मार्ग है। जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज के 'जीवन दर्शन' स्तम्भ में आज पढ़िए अपरा विद्या और परा विद्या के महत्व के बारे में।

"तस्मै स होवाच। द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति। परा चापरा च॥"
-मुण्डकोपनिषद् 1.1.3

भारतीय वेदान्त परम्परा में ज्ञान को सर्वोपरि स्थान प्राप्त है। परन्तु यह ज्ञान एकरूप नहीं होता इसका वर्गीकरण किया गया है, जिसे मंत्र में अत्यंत सूक्ष्मता और गम्भीरता से प्रस्तुत किया गया है। आचार्य अंगिरा अपने शिष्य शौनक को उपदेश देते हुए कहते हैं कि दो प्रकार की विद्याएं जानने योग्य हैं - अपरा विद्या और परा विद्या। यही द्वैध ज्ञान-तत्त्व समस्त वेदान्त दर्शन की आधारशिला है।

अपरा विद्या वह है, जो लौकिक, सांख्यिक और शास्त्रीय पक्षों को ग्रहण करती है। इसमें वेद, वेदाङ्ग, कर्मकाण्ड और लोकाचार सम्मिलित होते हैं। यह ज्ञान जीवन के व्यवहारिक पक्ष को सशक्त करता है- समाज, धर्म, नीति, संस्कार, तथा कर्म का पथ प्रशस्त करता है। यह सब इस अपरा विद्या में आते हैं। इसके बिना जीवन में अनुशासन, मर्यादा और उद्देश्य का अभाव होता है।

परा विद्या उस ज्ञान को कहते हैं, जिससे “अक्षरं पुरुषं वेद”- अविनाशी ब्रह्म को जाना जाता है। यह ज्ञान अनुभवमूलक है, बुद्धि के पार है, और श्रद्धा-शुद्ध चित्त में ही उदित होता है। यह विद्या अविद्या के नाश और मुक्ति की प्राप्ति का साधन है।

भगवत्पाद आद्य शंकराचार्य इसे “ब्रह्मवित् ब्रह्मैव भवति” (ब्रह्म ज्ञानी ब्रह्म ही बन जाता है) के रूप में व्याख्यायित करते हैं।

यहां ‘विद्या’ का तात्पर्य संकीर्ण अकादमिकता से नहीं, वरन् आत्मस्वरूप की प्रत्यक्षानुभूति से है। परा विद्या ही “विद्या अमृतं अश्नुते”- अमृत पद की ओर ले जाती है।

यह ज्ञान-विभाजन वेदान्त की मूलभूत प्रक्रिया है। अपरा से परा, ज्ञेय से ज्ञाता, कर्म से ज्ञान और अंततः ज्ञान से मोक्ष की ओर यात्रा। प्रारम्भ में शिष्य को अपरा विद्याओं द्वारा शिक्षित किया जाता है, जिससे उसका मन पवित्र एवं स्थिर हो। तत्पश्चात परा विद्या का बोध सम्भव होता है, जहां विषय, दृष्टा और दर्शन तीनों का अद्वैत हो जाता है।

भगवान आद्य शंकराचार्य जी इस मंत्र पर भाष्य करते हुए स्पष्ट करते हैं कि अपरा विद्या ‘सोपाधि ज्ञान’ है और परा विद्या ‘निरुपाधि आत्मज्ञान’। परा विद्या ही मुक्ति का एकमात्र मार्ग है।

इस उपनिषद् का यह उपदेश केवल दार्शनिक नहीं, सांस्कृतिक दृष्टि से भी अत्यंत प्रासंगिक है। आज के युग में जब शिक्षा केवल अर्थार्जन तक सीमित हो गई है, तब मुण्डक उपनिषद् हमें स्मरण कराता है कि ज्ञान का चरम उद्देश्य आत्मबोध और जीवन की परम सार्थकता है। अपरा विद्या से जीवन व्यवस्थित होता है, परन्तु परा विद्या से जीवन पूर्ण होता है।

“द्वे विद्ये वेदितव्ये”- यह वाक्य वेदान्त का केवल बौद्धिक नहीं, आत्मिक घोषणापत्र है। यह जीवन की दो धाराओं- साधन और साध्य, ज्ञान और ब्रह्मज्ञान, कर्म और उपासना- को समन्वित करता है। वेदान्त का लक्ष्य ही है- अपरा विद्याओं की नाव से परा ज्ञान के सागर की यात्रा करना।

जब शिष्य इन दोनों विद्याओं में सामंजस्य स्थापित कर लेता है, तभी वह ब्रह्मवित् होकर ब्रह्मरूप हो जाता है।

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