गणेश चतुर्थी 2025: गणपति बप्पा की 8 पौराणिक कथाएं, जन्म-विवाह से लेकर संकष्टी व्रत तक; डाउनलोड pdf

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भगवान गणेश की 8 पौराणिक कथाएं। जन्म से विवाह तक, प्रथम पूजनीय बनने का रहस्य, दूर्वा घास की कथा, मूषक वाहन, विष्णु विवाह प्रसंग और संकष्टी गणेश चतुर्थी व्रत की कहानियां।

Ganesh Chaturthi 2025 Pauranik kathayen: भगवान गणेश को विघ्नहर्ता और प्रथम पूजनीय माना जाता है। उनके जन्म से लेकर विवाह, प्रथम पूजनीय बनने तक और संकष्टी चतुर्थी व्रत की कथाओं तक, उनसे जुड़ी अनेकों पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। गणेश चतुर्थी 2025 के पावन अवसर पर आइए जानें भगवान गणेश की प्रमुख पौराणिक कथाएं और उनके पीछे छिपे गहरे आध्यात्मिक संदेश।

भगवान गणेश की प्रमुख पौराणिक कथाएं (bhagwan ganesh ki pauranik kathayen in hindi)

1. गणेश जी प्रथम पूजनीय कैसे बने?

गणेश जी को प्रथम पूज्य का स्थान भगवान शिव द्वारा आयोजित एक अनूठी प्रतियोगिता के माध्यम से प्राप्त हुआ। शिवजी ने घोषणा की कि जो देवता सबसे पहले ब्रह्मांड की परिक्रमा पूरी करेगा, उसे प्रथम पूज्य का दर्जा मिलेगा। सभी देवता अपने-अपने वाहनों पर सवार होकर ब्रह्मांड की परिक्रमा के लिए निकल पड़े। लेकिन गणेश जी, जिनका वाहन मूषक था, ने अपनी बुद्धि और माता-पिता के प्रति भक्ति का परिचय दिया। उन्होंने सोचा कि उनके लिए माता पार्वती और पिता शिव ही समस्त ब्रह्मांड हैं। अतः उन्होंने अपने माता-पिता की परिक्रमा कर ली।

जब सभी देवता परिक्रमा पूरी कर लौटे, तो शिव-पार्वती ने गणेश जी की बुद्धिमत्ता और भक्ति को देखकर प्रसन्नता व्यक्त की। गणेश जी ने कहा, "मेरे लिए मेरे माता-पिता ही संपूर्ण विश्व हैं। उनकी परिक्रमा ही ब्रह्मांड की परिक्रमा के समान है।" उनकी इस भावना से प्रभावित होकर शिवजी ने उन्हें प्रथम पूज्य का वरदान दिया। साथ ही, यह घोषणा की कि हर शुभ कार्य से पहले गणेश जी की पूजा होगी।

यह कथा हमें सिखाती है कि बुद्धि और भक्ति का संतुलन जीवन में सफलता का मार्ग प्रशस्त करता है। गणेश जी को विघ्नहर्ता और बुद्धि के देवता के रूप में पूजा जाता है, क्योंकि उनकी पूजा से सभी कार्य निर्विघ्न पूरे होते हैं। यह कथा माता-पिता के प्रति सम्मान और समर्पण का महत्व भी दर्शाती है। गणेश जी का यह वरदान हमें प्रेरित करता है कि सच्ची भक्ति और बुद्धिमानी से हर चुनौती को पार किया जा सकता है।



2. राजा हरिश्चंद्र के राज्य की संकष्टी चतुर्थी कथा

राजा हरिश्चंद्र के राज्य में एक कुम्हार रहता था, जो बर्तन बनाता था, पर वे कच्चे रह जाते थे। एक पुजारी की सलाह पर उसने संकष्टी चतुर्थी के दिन एक बालक को आंवा में डालने का निर्णय लिया। उस दिन उसे एक गरीब विधवा ब्राह्मणी का इकलौता पुत्र मिला। कुम्हार ने उसे बर्तनों के साथ आंवा में डाल दिया। बालक की मां, जो गणेश जी की परम भक्त थी, उसने उसी दिन संकष्टी चतुर्थी का व्रत रखा और अपने पुत्र की कुशलता के लिए गणेश जी से प्रार्थना की।

अगले दिन, जब कुम्हार ने आंवा खोला, तो चमत्कार हुआ। बर्तन पक गए थे, और आंवा में पानी, दूर्वा घास और कमल के फूल थे, पर बालक को खरोंच तक नहीं आई थी। यह चमत्कार देख राजा हरिश्चंद्र आश्चर्यचकित रह गए। ब्राह्मणी को बुलाया गया, तो उसने बताया कि यह सब संकटनाशक गणेश चतुर्थी के व्रत और गणेश जी की कृपा का फल है।

इस घटना के बाद, लोगों ने इस व्रत को अपनाना शुरू किया। यह व्रत संतान, सुख-समृद्धि और सौभाग्य के लिए महत्वपूर्ण पर्व बन गया। इस कथा से यह संदेश मिलता है कि सच्ची आस्था और भगवान गणेश की भक्ति से सभी बाधाएं दूर हो सकती हैं और मनोकामनाएं पूरी हो सकती हैं।



3. विष्णु-लक्ष्मी विवाह और गणेश जी का अपमान

भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी के विवाह के शुभ अवसर पर सभी देवताओं को बारात में आमंत्रित किया गया, किंतु गणेश जी को निमंत्रण नहीं भेजा गया। यह जानकर गणेश जी को क्रोध आया। उन्होंने अपनी मूषक सेना को आदेश दिया कि वह बारात के रास्ते में जमीन खोद दे। इससे विष्णु जी के रथ जमीन में धंस गए, और बारात रुक गई। इस संकट के कारण का पता लगाने पर नारद मुनि ने बताया कि गणेश जी के अपमान के कारण यह विघ्न आया है। उन्होंने सुझाव दिया कि गणेश जी को मनाकर लाया जाए। तब भगवान शिव ने अपने दूत नंदी को गणेश जी को बुलाने भेजा।

नंदी ने गणेश जी से क्षमा मांगी और उन्हें बारात में शामिल होने का अनुरोध किया। गणेश जी बारात में पधारे, जहां उनका विधिवत पूजन और आदर-सम्मान किया गया। इसके बाद रथों के पहिए जमीन से निकले, और बारात आगे बढ़ सकी। अंततः विष्णु और लक्ष्मी जी का विवाह संपन्न हुआ।

कथा का महत्व: यह कथा सिखाती है कि किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत गणेश जी के पूजन के बिना अधूरी है। वे विघ्नहर्ता हैं, और उनका पूजन कार्यों में बाधा दूर करता है। इसलिए, लक्ष्मी जी के साथ गणेश जी की पूजा की जाती है, ताकि धन-संपत्ति के साथ बुद्धि और सौभाग्य भी प्राप्त हो।



4. चौपड़ खेल और गणेश चतुर्थी व्रत की कथा

भगवान शिव और माता पार्वती एक बार नर्मदा नदी के तट पर बैठे थे। समय बिताने के लिए पार्वती जी ने शिवजी से चौपड़ खेलने का प्रस्ताव रखा। खेल शुरू हुआ, परंतु हार-जीत का निर्णय करने वाला कोई नहीं था। तब शिवजी ने तिनकों से एक पुतला बनाया और उसमें प्राण डाल दिए।

पुतले को निर्णायक बनाया गया। खेल में पार्वती जी तीनों बार विजयी हुईं, लेकिन पुतले ने शिवजी को विजेता घोषित कर दिया। इससे पार्वती जी क्रुद्ध हो गईं।पार्वती जी के क्रोध को शांत करने के लिए शिवजी ने पुतले द्वारा बताए गए 21 दिनों के श्री गणेश व्रत का पालन किया।

इस व्रत के प्रभाव से पार्वती जी की नाराजगी दूर हो गई। शिवजी ने यह व्रत विधि पार्वती जी को बताई। इसे सुनकर पार्वती जी के मन में अपने पुत्र कार्तिकेय से मिलने की इच्छा जागी। उन्होंने भी 21 दिनों तक गणेश जी का व्रत किया, जिसमें दुर्वा, पुष्प और लड्डुओं से गणेश जी का पूजन किया। व्रत के 21वें दिन कार्तिकेय स्वयं माता पार्वती से मिलने आए।तब से गणेश चतुर्थी का यह व्रत मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला और कष्टों को दूर करने वाला माना जाता है।

यह कथा गणेश चतुर्थी की पौराणिक कथा के रूप में प्रचलित है। इसे सुनने से भक्तों की सभी इच्छाएं पूरी होती हैं और जीवन में सुख-शांति आती है। गणेश चतुर्थी का यह पर्व भक्ति, श्रद्धा और विश्वास का प्रतीक है, जो भक्तों को गणपति की कृपा प्राप्त करने का अवसर प्रदान करता है।



5. गणेश जी की उत्पत्ति

शिवपुराण के अनुसार, माता पार्वती ने स्नान से पहले अपने शरीर पर लगे हल्दी के उबटन से एक पुतला बनाया और उसमें प्राण डाले, जिससे भगवान गणेश की उत्पत्ति हुई। फिर वे स्नान करने गईं और गणेश को द्वार पर पहरा देने का आदेश दिया। जब भगवान शिव आए और पार्वती से मिलने की इच्छा जताई, तो गणेश ने उन्हें रोक दिया। इससे क्रुद्ध शिवजी ने अपने गणों को गणेश से युद्ध करने को कहा, पर गणेश अजेय रहे। अंततः शिवजी ने त्रिशूल से गणेश का सिर काट दिया।

यह जानकर पार्वती दुखी होकर प्रलय की धमकी देने लगीं। देवताओं ने उन्हें शांत किया। शिवजी ने गरुड़ को उत्तर दिशा में एक शिशु का सिर लाने को कहा, जो मां की पीठ की ओर हो। गरुड़ को एक हथिनी का शिशु मिला, जिसका सिर वे लाए। शिवजी ने उसे गणेश के धड़ पर जोड़कर पुनर्जनन किया। पार्वती प्रसन्न हुईं। देवताओं ने गणेश को आशीर्वाद दिए। शिवजी ने उन्हें गणों का अधिपति बनाया और घोषणा की कि हर मांगलिक कार्य गणेश पूजा से शुरू होगा। इसीलिए गणेश को विघ्नहर्ता कहते हैं।



6. क्रौंच और गणेश जी की कथा

प्राचीन काल में इंद्र की सभा में क्रौंच नाम का एक गंधर्व रहता था, जो अपने चंचल और उन्मादी स्वभाव के लिए जाना जाता था। एक दिन, उसकी चंचलता ने उसे मुसीबत में डाल दिया। सभा में असावधानीवश उसने मुनि वामदेव के पैर छू लिए। मुनि वामदेव को यह अपमान सहन न हुआ और क्रोध में आकर उन्होंने क्रौंच को श्राप दे दिया, "तू एक चूहा बन जा!"

श्राप के प्रभाव से क्रौंच तुरंत एक विशाल मूषक में बदल गया। यह मूषक इतना बड़ा और शक्तिशाली था कि वह जहां भी जाता, तबाही मचा देता। वह ऋषि पराशर के आश्रम में पहुंचा और वहां सब कुछ कुतर कर नष्ट करने लगा। अनाज, वस्त्र, और आश्रम की शांति। सब कुछ उसने तहस-नहस कर दिया। आश्रमवासियों का जीवन दूभर हो गया। परेशान होकर ऋषियों ने भगवान गणेश से प्रार्थना की, "हे विघ्नहर्ता! हमारी रक्षा करो और इस मूषक के उत्पात से हमें मुक्ति दो।"

ऋषियों की पुकार सुनकर भगवान गणेश प्रकट हुए। उन्होंने अपनी दृष्टि क्रौंच पर डाली और उसे नियंत्रित करने के लिए अपना पाश फेंका। पाश ने विशाल मूषक को जकड़ लिया और वह गणेश जी के चरणों में आ गिरा। क्रौंच को अपनी गलती का एहसास हुआ। उसने विनम्रतापूर्वक गणेश जी से क्षमा मांगी और कहा, "हे प्रभु! मेरे अहंकार और चंचलता ने मुझे इस दशा में पहुंचाया। कृपया मुझे क्षमा करें और मेरा यह भारी शरीर हल्का करें ताकि मैं आपके लिए बोझ न बनूं।"

गणेश जी ने उसकी करुण पुकार सुनी। उन्होंने न केवल उसे क्षमा किया, बल्कि उसका भार भी कम कर दिया। साथ ही, गणेश जी ने क्रौंच को अपने वाहन के रूप में स्वीकार किया। क्रौंच, जो अब एक छोटा और विनम्र मूषक था, ने गणेश जी की सेवा में अपना जीवन समर्पित कर दिया। इस तरह, क्रौंच का अहंकार नष्ट हुआ और वह भगवान गणेश का अनन्य भक्त बन गया।

सार: यह कथा हमें सिखाती है कि अहंकार और असावधानी हमें पतन की ओर ले जाती है, लेकिन सच्चे मन से पश्चाताप और भगवान की शरण में जाने से मुक्ति और सम्मान प्राप्त होता है।



7. दूर्वा घास और अनलासुर की कथा

प्राचीन काल में अनलासुर नामक शक्तिशाली राक्षस तीनों लोकों में आतंक मचा रहा था। वह अपने अत्याचारों से ऋषि-मुनियों और निर्दोष लोगों को निगल जाता, जिससे त्राहि-त्राहि मच गई। परेशान देवताओं ने भगवान शिव से अनलासुर के विनाश के लिए गणेश जी से मदद मांगने की प्रार्थना की। गणेश जी ने देवताओं की पुकार सुनकर अनलासुर का पीछा किया और उसे निगल लिया। लेकिन राक्षस को निगलने के बाद गणेश जी के पेट में भयानक जलन होने लगी। कई उपायों के बावजूद जलन शांत नहीं हुई।

तब ऋषि कश्यप ने गणेश जी को दूर्वा घास की 21 गांठें खाने का उपाय बताया। दूर्वा खाते ही गणेश जी की जलन शांत हो गई और उन्हें राहत मिली। इसके कारण दूर्वा घास गणेश जी को अति प्रिय हो गई। प्रसन्न होकर गणेश जी ने वरदान दिया कि जो भी उन्हें दूर्वा अर्पित करेगा, उसकी मनोकामनाएं पूरी होंगी। गणेश पूजा में दूर्वा के बिना पूजा अधूरी मानी जाती है, क्योंकि यह गणेश जी को शीघ्र प्रसन्न करती है और भक्तों की कामनाएं पूरी करती है।



8. गणेश जी के दो विवाह क्यों हुए

पौराणिक कथा के अनुसार, भगवान गणेश के दो विवाह तुलसी द्वारा मिले शाप और ब्रह्मा जी की सलाह के कारण हुए। तुलसी जी, गणेश जी के शांत और आकर्षक स्वरूप से मोहित होकर उनसे विवाह का प्रस्ताव रखा। गणेश जी ने अपनी ब्रह्मचारी स्थिति के कारण इसे ठुकरा दिया। क्रोधित तुलसी ने गणेश जी को दो विवाह का शाप दिया, जबकि गणेश जी ने तुलसी को राक्षस से विवाह का शाप दे दिया।

एक अन्य कथा में, गणेश जी को उनकी शारीरिक बनावट के कारण कोई कन्या नहीं मिली, इसलिए उन्होंने ब्रह्मचारी रहने का निश्चय किया। उन्होंने अन्य देवताओं के विवाह में विघ्न डालना शुरू किया, जिससे परेशान होकर देवता ब्रह्मा जी के पास पहुंचे।

ब्रह्मा जी ने अपनी मानस पुत्रियों, रिद्धि और सिद्धि, को गणेश जी को शिक्षित करने भेजा। रिद्धि और सिद्धि ने गणेश जी का ध्यान विवाह की खबरों से हटाकर देवताओं के विवाह सुचारू किए। जब गणेश जी को यह पता चला, तो वे क्रोधित हुए और रिद्धि-सिद्धि को शाप देने लगे।

तभी ब्रह्मा जी ने हस्तक्षेप कर गणेश जी को रिद्धि और सिद्धि से विवाह का सुझाव दिया, जिसे उन्होंने स्वीकार किया। इस प्रकार, गणेश जी का विवाह रिद्धि और सिद्धि से हुआ, जिनसे उनके दो पुत्र, शुभ और लाभ, हुए। यह कथा गणेश जी के विवाह और तुलसी के शाप की रोचक व्याख्या प्रस्तुत करती है।

।।कथा समाप्त।।

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