डॉ. कन्हैया त्रिपाठी का लेख : राजपथ से कर्त्तव्य-पथ की कसौटी

डॉ. कन्हैया त्रिपाठी का लेख : राजपथ से कर्त्तव्य-पथ की कसौटी
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भारत में अब जो बदल रहा है उस बदलने का स्वरूप भिन्न है। यदि हम इसे सहिष्णु बदलाव मान लें तो कोई अतिश्ायोक्ति न होगी। भारत में जो बदलाव हो रहे हैं, उसे सहिष्णु बदलाव इसलिए कहा जाएगा क्योंकि भारत में यह बदलाव इस रूप में नहीं हो रहा है कि भारत के लोग बाहर किसी देश में जाकर लड़कर और जीतकर यह बदलाव कर रहे हैं। कोई इसे उन्हीं आक्रांताओं या व्यापारियों की श्रेणी में इसकी गणना नहीं कर सकता, बल्कि यह तो देश के भीतर ही बदलाव भारत के लोग कर रहे हैं। इसे एक सहिष्णु बदलाव के रूप में लिया जाना उचित लगता है। आज जो बदलाव है वह भारत के लिए वरदान सिद्ध हो सकता है।

डॉ. कन्हैया त्रिपाठी

राष्ट्र की संप्रभुता सबको प्रिय होती है। अपनी सीमाओं के साथ अपनी अस्मिता और प्रतीकों की भी रक्षा राष्ट्र इसीलिए यत्नपूर्वक करते हैं। भारत की आज़ादी के 75 वर्ष बीत जाने पर बहुत कुछ बदल चुका है। जो विनष्ट हो गए वह इतिहास के पन्नों में हैं। बहुत सी इमारतें और शहर भी विनष्ट हुए। हरसूद को शायद लोग भूल गए हों, लेकिन वह नष्ट हो गया है। या फिर टिहरी को स्मरण करते हुए नहीं लगता कि हमने बहुत कुछ देश में तो अपने सामने ही समाप्त होते देखा है। इतिहास में ऐसे बहुत कुछ नष्ट हुआ और हमेशा नई लकीर खींचकर हमने आगे बढ़ने की कोशिश की। इतिहास ने सब कुछ दर्ज किया है और आज पुनः दर्ज हुआ है जब भारत में राजपथ कर्त्तव्य-पथ में बदल गया।

इतिहास बनाने वाले सभी अपने समय पर बदलाव करते हुए अपने होने का एहसास दिलाते हैं। अंग्रेजी हुकूमत हो या मुगलकालीन सभ्यता, सभी ने बहुत कुछ बदल दिया। उन्होंने जिस देश पर शासन किया अपनी संस्कृतियों और सभ्यताओं के निशान छोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी। भारत में अब जो बदल रहा है उस बदलने का स्वरूप भिन्न है। यदि हम इसे सहिष्णु बदलाव मान लें तो कोई अतिश्ायोक्ति न होगी। भारत में जो बदलाव हो रहे हैं, उसे सहिष्णु बदलाव इसलिए कहा जाएगा क्योंकि भारत में यह बदलाव इस रूप में नहीं हो रहा है कि भारत के लोग बाहर किसी देश में जाकर लड़कर और जीतकर यह बदलाव कर रहे हैं। कोई इसे उन्हीं आक्रांताओं या व्यापारियों की श्रेणी में इसकी गणना नहीं कर सकता, बल्कि यह तो देश के भीतर ही बदलाव भारत के लोग कर रहे हैं। इसे एक सहिष्णु और अहिंसक बदलाव के रूप में लिया जाना उचित लगता है। इसे भारत-बोध के रूप में अवश्य देखा जा सकता है, बल्कि भारत के लोग भारत में कर्त्तव्य-बोध को सहृदय मानने के लिए, प्रत्येक पल स्मरण रखने के लिए कर्त्तव्य-पथ के रूप में रेखांकित कर रहे हैं जिसका स्वागत हृदय से किये जाने की आवश्यकता है।

किंग्सवे क्राउन औपनिवेशिक सभ्यता ने जिस मानसिकता के साथ स्थापित किया था, वह उन दिनों उन्हें अच्छा लगा। राजपथ हुआ तो उसे भी भारत की जनता ने स्वीकार किया। दोनों के अपने निहितार्थ थे। अब जब भारत-बोधवाली सभ्यता से भारत संचालित हो रहा है तो इसे कर्त्तव्य-पथ के रूप में रेखांकित करना कदाचित किसी को गलत लगे। लगना भी नहीं चाहिए। ऐसा होता आया है। जो हुआ है उसका स्वागत इसलिए किया जाना चाहिए, क्योंकि इससे एक अलग सन्देश निकला है। एक अलग मैसेज पूरे भारत में जा रहा है। यदि हमारे नेतृत्वकर्ता खुले मन से अपने कर्त्तव्य के आग्रही होंगे तो इसका असर आने वाले समय में अवश्य दिखेगा। भारत के लोकसभा और राज्यसभा के लोग इस पथ से जब एक बार निकलेंगे तो कदाचित उनके भीतर यह भाव उत्पादित हो कि हमें भारत के लिए, भारत के लोगों के लिए और संविधान सम्मत व्यवस्था के लिए जो कर्तव्य निर्वहन करने की जिम्मेदारी समय ने सौंपी है, उसके प्रति हमारे जो कर्त्तव्य हैं उसे हमें निभाना जरूरी है। यह वास्तव में प्रेरणा-पथ है, निष्ठा का पथ है।

हाल ही सेतु में एक आलेख में मैंने अहिंसक मार्ग की अहिंसक यात्रा का सुख नाम से एक आलेख पिट्सबर्ग अमेरिका से प्रकाशित जर्नल सेतु में लिखा था। उसमें इस बात का जिक्र किया था कि सड़कें निरपेक्ष होती हैं। हमारी चेतना का यात्री ही सड़क पर अपनी सोच से अपने तरीके की चीजों को थोप लेता है। यदि राही भी निर्विकार हों, तो देश में किसी भी प्रकार का संघर्ष शेष बचेगा ही नहीं, किंतु विडम्बना यही है कि हम निर्विकार नहीं हो पा रहे हैं। हम इसी मार्ग से चलकर संविधान की शपथ लेकर अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करने के लिए अपनी प्रतिबद्धता दर्ज करते हैं, किंतु सभी स्वच्छ छवि के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वहन करके लोगों के बीच लोकप्रिय हो पाते हैं क्या? आखिर हमारे नेतृत्वकर्ता संविधान-पथ के आग्रही होकर भी वह छवि क्यों नहीं निर्मित कर पाते जिससे उन्हें पीढ़ियों तक स्मरण किया जाता रहे?

सुभाषचंद्र बोस हमारे देश के लिए आखिर किस पथ पर चलने वाले राही रहे, जिस कारण उन्हें हम स्मरण कर रहे हैं और उनकी प्रतिमा इंडिया गेट पर जब सुशोभित हो रही है तो हमारा सीना चौड़ा हो रहा है? जिस दिन आपका हृदय इस सवाल का जवाब हासिल कर लेगा उस दिन आपको कर्तव्य-पथ का असली ज्ञान हो जाएगा। हमारे देश के अनगिनत स्वाधीनता सेनानी ऐसे ही पथिक रहे हैं जो अपने कर्त्तव्य पथ पर चलकर देश को स्वाधीन बनाए। यह बहुत अच्छी बात है कि आजादी के अमृत महोत्सव पर हमारे देश में एक सड़क का नाम जो अब तक राजपथ के नाम से जानी जाती थी उसे कर्त्तव्य-पथ नाम दिया है। यह उन बलिदानियों के एक एक कतरे खून की कीमत का भी नामकरण है।

एक सवाल जो उभरा है कि सड़कों के नाम बदलने से क्या हो जाएगा, किंतु इस बात का भी हमें विश्लेषण करना चाहिए कि भारत के लोग क्या अपने भी देश में अपने मार्ग या प्रतीकों का नामकरण नहीं कर सकते क्या? क्या इसके लिए भी सरकार स्वाधीन नहीं है क्या? यह तो एक सहिष्णु बदलाव का भी अपमान है, इसलिए इस प्रकार का तर्क कदाचित तर्कसंगत नहीं लगते। एक बार उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी तो उसने एक जिला बनाया उसका नाम रखा-पडरौना। सरकार बदली और सत्ता में मायावती आ गईं तो उन्होंने उसका नाम बदलकर सिद्धार्थनगर रख दिया। मुलायम सिंह पुनः बने तो उसका नाम पडरौना रखा। आज वह सिद्धार्थनगर है उत्तर प्रदेश का एक जिला है। राजनीति की अपनी एक चाल है। यदि भारत के लोग सकारात्मकता के साथ आगे बढ़ेंगे तो निश्चित ही हमें कर्तव्य-पथ की असली प्रेरणा हमारी आत्मा का हिस्सा बन जाएगी। भारत की आत्मा की किताब है-संविधान। संविधान यदि हमारी पुस्तक है तो राजपथ से कर्त्तव्य-पथ पर चलने की हमारी शपथ तो संविधान को ही समर्पित है, इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो कर्त्तव्य-पथ का उद्घोष किया है वह हमारे लिए एक सकारात्मक सोच के लिए उद्घोष है। यदि हम इसके मर्म को समझकर आगे बढ़ते हैं तो हम एक शानदार भारत बना सकेंगे। अब कैसा पथ चुनना है, यह तो आपको स्वयं तय करना है।

यह इसलिए तय करना आवश्यक है क्योंकि राज्यपथ से कर्त्तव्य-पथ की कसौटी हमसे ही नैतिक होने की मांग करती है। यदि सभी लोग इस कर्त्तव्य-पथ की प्रतिबद्धताओं को स्वीकार्य कर देश के लिए ईमानदारी, निष्ठा, नैतिक होने की कसौटी पर खरा उतरते हैं तो आज जो बदलाव है वह भारत के लिए वरदान सिद्ध हो सकता है। कोई भी राष्ट्र अपने नागरिकों से ऐसी अपेक्षा भी करता है कि हमारे नागरिक सत्य-पथ पर चलकर सहिष्णु संस्कृति के साथ देश को गतिमान बनाकर उसके स्वाभिमान और प्रतिष्ठा में अभिवृद्धि करें तो यह एक परीक्षा का समय है। देखना यह है कि आने वाले समय में हम किस प्रकार मिसाल स्थापित करके देश का नाम रोशन करते हैं।

( लेखक राष्ट्रपति के विशेष कार्य अधिकारी रह चुके हैं, ये उनके अपने विचार हैं। )

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