जयंती विशेष: वंशवाद के दंश से नहीं बचे सरदार पटेल भी

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा के रूप में सरदार वल्लभभाई पटेल ( Vallabhbhai Patel) की स्टैच्यू ऑफ यूनिटी (Statue of Unity) का आज (बुधवार) गुजरात में अनावरण किया। अब तक उपेक्षित रहे पहले गृहमंत्री व आजादी के बाद एकीकरण के सूत्रधार बने पटेल की नमो सरकार के आने के बाद से ही सत्ता में धमक बढ़ने लगी थी। नेहरु व खानदान के प्रति कांग्रेस की निष्ठा का एक प्रकार से प्रत्युत्तर ही था यह। प्रश्न उठता है कि क्या सरदार सरकार में इस जगह को पाने के हकदार पहले ही नहीं थे।
भले ही राजनीति में अपनों को ज्यादा मिलता रहा है पर, हर योग्य व्यक्ति को जायज हक मिले इतनी तो नौतिकता होनी ही चाहिए । मगर पटेल को वह जगह कभी नहीं मिली जिसके वे अधिकारी थे, अब कहीं जाकर पटेल को उनका स्थान मिलता दिख रहा है और स्टेच्यु आफ यूनिटी के रूप में यह भारत का बिस्मार्क गुजरात से देश भर को दिख रहा है।
उनकी मूर्ति को सही ही यह नाम स्टेच्यु आफ यूनिटी यानि एकता की मूर्ति दिया गया है क्योंकि सरदार पटेल ने आजादी के पूर्व ही देशी राज्यों को भारत में मिलाने के लिए कार्य शुरु कर दिया था। केवल जम्मू एवं कश्मीर, जूनागढ तथा हैदराबाद के राजाओं ने पटेल का परामर्श नहीं स्वीकारा। जूनागढ के नवाब के विरुद्ध भारी जनविरोध होने पर वह पाकिस्तान चला गया और जूनागढ भारत में मिल गया।
हैदराबाद के निजाम ने भारत में विलय का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया तो सरदार पटेल ने वहां सेना भेजकर निजाम का आत्मसमर्पण करा लिया। किन्तु नेहरू ने कश्मीर को अंतराष्ट्रीय समस्या कहकर अपने पास रख लिया। आजादी के इकहत्तर साल बाद भी कश्मीर सरदर्द बनकर नेहरु की दूरदर्शिता पर प्रश्न खड़े कर रहा है।
दरअसल नेहरू व सरदार पटेल के स्वभाव व उनकी सोच में बड़ा अंतर था, कुछ समानताएं भी बेशक थीं। दोनों ने इंग्लैंड जाकर बैरिस्टरी की डिग्री पाई, परंतु सरदार पटेल वकालत में नेहरू से आगे थे, उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के विद्यार्थियों में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। नेहरू प्रायः सोचते रह जाते थे, जबकि सरदार पटेल उसे कर डालते थे। नेहरू शास्त्रों के ज्ञाता थे, पटेल व्यवहारिक थे।
वे कहते थे, मैंने कला या विज्ञान के विशाल गगन में ऊंची उड़ानें नहीं भरीं। मेरा विकास कच्ची झोपड़ियों में गरीब किसान के खेतों की भूमि और शहरों के गंदे मकानों में हुआ है। नेहरू को ग्रामीण जीवन शैली ज्यादा पसंद न थी। स्वतंत्रता के पश्चात सरदार पटेल की महानतम देन थी 562 छोटी-बड़ी रियासतों का भारतीय संघ में विलीनीकरण। विश्व के इतिहास में एक भी व्यक्ति ऐसा न हुआ जिसने इतनी बड़ी संख्या में राज्यों का एकीकरण करने का साहस किया हो।
इसीलिए उन्हे भारत के बिस्मार्क की संज्ञा दी जाती है। ऐसा ही काम बिस्मार्क ने जर्मनी के एकीकरण में किया था पर वहां की समस्या भारत की समस्या की तुलना में आधी भी विकट नहीं थी। पटेल देश के बारे में कैसे सोचते थे इस बात से पता चलता है कि एक बार उन्होंने सुना कि बस्तर की रियासत में कच्चे सोने के भंडार का बड़ा भारी क्षेत्र है और इस भूमि को दीर्घकालिक पट्टे पर हैदराबाद की निजाम खरीदना चाहती है।
उसी दिन वे उड़ीसा पहुंचे और वहां के 23 राजाओं को भारत में विलीन करने को मना लिया फिर नागपुर के 38 राजाओं से मिले, इन्हें सैल्यूट स्टेट कहा जाता था, यानी जब कोई इनसे मिलने जाता तो तोप छोड़कर सलामी दी जाती थी। पटेल ने इन राज्यों की बादशाहत को आखिरी सलामी दी। इसी तरह वे काठियावाड़ की 250 रियासतें चतुराई से बिना किसी रक्तपात के भारत में मिलाई।
निसंदेह सरदार पटेल द्वारा यह 562 रियासतों का एकीकरण विश्व इतिहास का आश्चर्य था। महात्मा गांधी ने सरदार पटेल को इन रियासतों के बारे में लिखा था, यह समस्या इतनी जटिल थी जिसे केवल तुम ही हल कर सकते थे। विदेश विभाग नेहरू का कार्यक्षेत्र था, परंतु उपप्रधानमंत्री होने के नाते कैबिनेट की विदेश विभाग समिति में उनका जाना होता था।
उनकी दूरदर्शिता का लाभ यदि उस समय लिया जाता तो अनेक वर्तमान समस्याओं का जन्म न होता। 1950 में पंडित नेहरू को लिखे एक पत्र में पटेल ने चीन तथा उसकी तिब्बत के प्रति नीति से सावधान किया था और चीन का रवैया कपटपूर्ण तथा विश्वासघाती बतलाया था। जो बाद में सही साबित हुई। 1950 में ही गोवा की स्वतंत्रता के संबंध में चली दो घंटे की कैबिनेट बैठक में लम्बी वार्ता सुनने के पश्चात सरदार पटेल ने केवल इतना कहा, क्या हम गोवा जाएंगे, केवल दो घंटे की बात है।
नेहरू इससे नाराज हुए। यदि पटेल की बात मानी गई होती तो 1961 तक गोवा की स्वतंत्रता की प्रतीक्षा न करनी पड़ती। वह भारत में आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास पर जोर देते थे, लेकिन गांधीजी के विपरीत, वह हिन्दू-मुस्लिम एकता को स्वतंत्रता की पूर्व शर्त नहीं मानते थे। बलपूर्वक आर्थिक और सामाजिक बदलाव लाने की आवश्यकता के बारे में सरदार पटेल जवाहरलाल नेहरू से असहमत थे।
वह मुक्त उद्यम में यक़ीन रखते थे। और आखिर यही नीति बाद मे देश को अपनानी पड़ी। सत्ता के हस्तान्तरण के मुद्दे पर भी उनका गांधीजी से इस बात पर मतभेद था कि उपमहाद्वीप का हिन्दू भारत तथा मुस्लिम पाकिस्तान के रूप में विभाजन अपरिहार्य है। पटेल ने जोर दिया कि पाकिस्तान दे देना भारत के हित में है। लक्षद्वीप समूह को भारत के साथ मिलाने में भी पटेल की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी।
हालांकि यह क्षेत्र पाकिस्तान के नजदीक नहीं था, लेकिन पटेल को लगता था कि इस पर पाकिस्तान दावा कर सकता है। ऐसी किसी भी स्थिति को टालने के लिए पटेल ने लक्षद्वीप में राष्ट्रीय ध्वज फहराने के लिए भारतीय नौसेना का एक जहाज भेजा। इसके कुछ घंटे बाद ही पाकिस्तानी नौसेना के जहाज लक्षद्वीप के पास मंडराते देखे गएए लेकिन वहां भारत का झंडा लहराते देख उन्हें वापस कराची लौटना पड़ा।
सरदार पटेल व जवाहरलाल नेहरू की प्रतिस्पर्द्धा के बारे में सब जानते हैं। 1929 के लाहौर अधिवेशन में सरदार पटेल ही गांधी जी के बाद दूसरे सबसे प्रबल दावेदार थे, किन्तु मुस्लिमों के प्रति सरदार पटेल की हठधर्मिता की वजह से गांधीजी ने उनसे उनका नाम वापस दिलवा दिया।
1945-1946 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए भी पटेल प्रमुख उम्मीदवार थे, लेकिन इस बार भी गांधीजी के नेहरू प्रेम ने उन्हें अध्यक्ष नहीं बनने दिया।
इतिहासकार मानते हैं कि यदि सरदार पटेल प्रधानमंत्री होते तो चीन और पाकिस्तान के युद्ध में भारत को पूर्ण विजय मिलती। लंबे अरसे बाद वर्तमान सरकार एक दृढ़ भारत की छवि बनाने में कामयाब हो रही है तो कह सकते हैं कि उसके आदर्श नेहरू नहीं पटेल हैं और उसी सोच के चलते लौह पुरुष की सर्वोच्च लौह प्रतिमा बनवाकर एक अलग संदेश दिया जा रहा है ताकि प्रतिमा में ही नहीं राजनीतिक कद में भी पटेल को नेहरू से बड़ा सिद्ध किया जा सके।
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