आरएसएस और प्रणब मुखर्जी ने कांग्रेस समेत लेफ्ट को किया आउट

भारत की विरासत विविधताओं में एकता, सदभाव, भाईचारे और सहिष्णुता की है। प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक भारत सदा सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे भवंतु निरामया और वसुधैव कुटुंबकम की सोच से सिंचित-पल्लवित होता रहा है। चाहे कितनी भी बाधाएं आई हों, कितने भी आक्रान्ता आए हों, भारत की समावेशी मूल प्रवृति को कोई डिगा नहीं पाया।
संघ के मुख्यालय नागपुर से पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने यही संदेश देने की कोशिश की है कि भारत का राष्ट्रवाद बहुलताओं के समावेशन में है, वह किसी धर्म या भाषा में नहीं बंटा हुआ है, वह विविधताओं में करुणा-सहिष्णुता से परिभाषित है। आपस में घृणा और असहिष्णुता से राष्ट्रीयता कमजोर होती है। अगर हम एक-दूसरे से भेदभाव और नफरत करेंगे तो इससे हमारी राष्ट्रीय पहचान को खतरा है।
हिंसा और वैमनष्यता-कटुता का त्याग करके शांति, सदभाव व करुणा के मार्ग पर चलेंगे, तभी हम अपनी भारतीयता की पहचान को अक्षुण्ण रख पाएंगे। पूर्व राष्ट्रपति के भाषण में स्पष्ट संदेश है कि भारत विभिन्न धर्मावलंबियों, अनेकानेक जातियों-उपजातियों व समुदायों, अनेक भाषाओं-बोलियों और वैचारिक मान्यताओं का मुल्क है।
हमारी सोच, मान्यता व दृष्टि में मतभेद हो सकते हैं, हमारे मूल्यों में भिन्नताएं हो सकती हैं, लेकिन अनेकता-बहुलता प्रकृति के बावजूद राष्ट्र के रूप में हम एक हैं, हम अखंड हैं, हम सहिष्णु हैं, हम शांति, सत्य, अहिंसा और सम्मान के रक्षक हैं। हमारे बीच वैचारिक मतभेद हो सकते हैं, पर हम असहिष्णु नहीं हो सकते हैं। हम संवाद से हर विवाद का हल कर सकते हैं।
पिछले कुछेक वर्षों से देश में जिस तरह असहिष्णुता, घृणा, धर्मोन्माद, जातीय विद्वेष की हिंसक घटनाएं देखने को मिली हैं और इसके चलते समाज का समावेशी तानाबाना छिन्न-भिन्न हुआ है, उसे देखते हुए भाजपा के पितृपुरुष लालकृष्ण आडवाणी द्वारा प्रणब के राष्ट्रवाद पर संबोधन को देश के समकालीन समकालीन इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना बताना दर्शाता है कि प्रणब दा का राष्ट्रवाद पर समावेशी दृष्टिकोण मौजूं और प्रासंगिक है।
आडवाणी खुद राष्ट्रीय सवयंसेवक संघ के आजीवन स्वयंसेवक हैं। भाजपा के दिग्गज नेता आडवाणी की खुद की छवि हिंदुत्व के पैराकार नेता की रही है और संघ को भी हिंदुत्व के झंडाबरदार के रूप में देखा जाता है। ऐसे में समावेशी विचारों के नेता प्रणब और संघ प्रमुख मोहन भागवत ने मंच साझा कर वैचारिक मतभेदों से आगे बढ़कर संवाद का एक प्रशंसनीय उदाहरण देश के सामने रखा है।
दोनों ने वैचारिक विविधता के संवाद की नजीर पेश की है। आडवाणी का कहना सही है कि दोनों (प्रणब व भागवत) ने भारत की एकता की जरूरत को रेखांकित किया है जो विविधताओं (जिसमें धार्मिक बहुलता शामिल है) को स्वीकार और सम्मान करती है। एक-दूसरे के प्रति सम्मान की भावना के साथ इस तरह का खुला संवाद निश्चित ही सहिष्णुता, सदभाव और सहयोग का माहौल पैदा करने में मदद करेगा,
जिसकी इस वक्त काफी जरूरत है। देश में अगर हमें विभाजनकारी विचारों और ताकतों को मात देना है तो समावेशी सोच व मूल्यों को आगे बढ़ाना होगा और मतभेदों के बावजूद आपसी संवाद व सम्मान को महत्व देना होगा। देश में केवल अंदरूनी विध्वंसक शक्तियां ही नहीं हैं, बल्कि बाहरी ताकतें भी हमारी जड़ों को कमजोर करने में लगी हैं।
देश के अंदर सत्ता के लिए भी कई दलें समाज में जातिगत व सांप्रदायिक दरारें बढ़ाने में लगे हुए हैं। ऐसे में प्रणब का संदेश-संविधान में आस्था ही असली राष्ट्रवाद व देशभक्ति है, विभाजनकारी सोच को आईना दिखाना है। हमारा संविधान हमें एकसूत्र में पिरो कर रखता है। बहुलवाद संस्कृति के साथ राष्ट्रीय एकता हमारी जरूरत है। इसकी रक्षा करना जरूरी है।
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