जानिए मीडिया की लड़ाई में ''गुमनामी बाबा'' कैसे बने ''सुभाष चंद्र बोस''

जानिए मीडिया की लड़ाई में गुमनामी बाबा कैसे बने सुभाष चंद्र बोस
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30 साल पहले यह अफवाह फैलाई गई थी गुमनामी बाबा ही सुभाष चंद्र बोस हैं।

नई दिल्ली. नेताजी सुभाषचंद्र बोस के जीवन के रहस्य को जानने के लिए जिस कदर देश की जनता आतुर है, ठीक उसी तरह मीडिया भी उनके जीवन से जुड़े रहस्योद्घाटन को लेकर आतुर नजर आती है। ऐसे में मीडिया द्वारा गफलत फैलाए जाने के आसार बढ़ जाते है। ऐसे ही एक मामले में स्क्रोल डॉटइन पर धीरेंद्र झा की एक रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि 1985 में फैजाबाद की मीडिया गुमनामी बाबा को सुभाष चंद्र बोस घोषित करने में लग गई थी। हालांकि कई अन्य अखबार इस बात को झूठा भी बता रहे थे।

दरअसल, फैजाबाद में 30 साल पहले यह अफवाह फैलाई गई थी कि एक गुमनामी बाबा वहां साधु के वेश में रह रहा है, वह सुभाष चंद्र बोस हैं। साल 2006 में न्यायमूर्ति मुखर्जी आयोग ने जांच के बाद इस दावे को खारिज कर दिया था, लेकिन कहानी अभी भी बनी हुई है कि कैसे गुमनामी बाबा को नेताजी के रूप में पेश किया गया? और इसके लिए जिम्मेदार कौन था?
दरअसल, 16 सितंबर, 1985 को हुई बाबा की गुमनाम मौत के बयालीस दिन बाद 'नए लोग' के दो पत्रकार राम तीर्थ वीकाल और उनके सहयोगी चंद्रेश कुमार ने बाब गुमनामी को नेताजी होने का दावा किया। यह सिलसिला अचानक तब शुरू हुआ, जब फैजाबाद के अखबार 'नए लोग' ने प्रसार की अनैतिक स्पर्धा में अपने प्रतिद्वंद्वियों पर बढ़त बनाने के लिए 28 अक्तूबर, 1985 के अंक में पहले पृष्ठ पर खासी अहमियत से उनके नेताजी होने की सनसनी से जोड़ कर छापा और दावा किया कि बाबा के सेवक ही उनके नेताजी होने के सबूत नष्ट करने पर आमादा हैं।
रिपोर्ट के भीतर श्रीवास्तव और विकाल ने लिखा नेताजी सुभाष चंद्र बोस जो पिछले 12 साल से अयोध्या-फैजाबाद में गुमनामी बाबा के नाम से रह रहे थे, उनकी मौत 16 सितंबर को रहस्यमय परिस्थितियों में हो गई है। उनकी मौत के बाद फैजाबाद के बस स्टॉप के पास स्थित राम भवन पर उनके तीन तथाकथित दावेदारों ने नेताजी की समपत्ति पर दावा किया है। तीनों ने घर पर अपने-अपने ताले भी जड़ दिए हैं। साथी ही वे सभी सबुतों को मिटाने में लग गए है।
इसके बाद भी यह महीनों तक बाबा के सुभाषचंद्र बोस होने का प्रचार करता रहा। बाद में अखबार के संपादक अशोक टंडन ने दैनिक के मुख्य पेज पर छपी खंबर को पुख्ता बताते हुए यह कहा कि इससे साबित हो गया है कि नेताजी की मौत 18 अगस्त 1945 को ताइहोकू के विमान हादसे में नहीं हुई थी।
अशोक टंडन ने ‘गुमनामी सुभाष’ नाम की पुस्तक भी लिखी, जिसके कुछ अंश कमलेश्वर के संपादन में दिल्ली से प्रकाशित पत्रिका ‘गंगा’ में धारावाहिक रूप से छपे थे। टंडन का दावा है कि उन्होंने बाबा के पास से मिली दो हजार सात सौ साठ वस्तुओं की बारीकी से जांच की है और उनमें से अनेक नेताजी से संबंधित हैं। यह सब सामान अदालती आदेश पर फैजाबाद जिला प्रशासन की निगरानी में रखा है, जिसकी सार-संभाल को लेकर सवाल उठते रहते हैं।
अब उच्च न्यायालय के आदेश पर उसे अयोध्या के रामकथा संग्रहालय में रखे और प्रदर्शित किए जाने की बात चल रही है। फैजाबाद में जानकार लोग कहते हैं कि इस मामले में महज इतनी जांच बाकी है कि गुमनामी बाबा को नेताजी के रूप में प्रचारित करने के पीछे किनका और कौन-सा षड्यंत्र था? दुर्भाग्य से सरकारों या कि प्रशासनों की ऐसी कोई जांच कराने में दिलचस्पी नहीं है और फैजाबाद में संघ परिवार के संगठन इस मामले को जोर-शोर से उठा रहे हैं।
लगता है कि पश्चिम बंगाल विधानसभा के चुनाव में लाभ की उम्मीद से वे किसी न किसी तरह इस मामले को गरमाए रखना चाहते हैं। दूसरी ओर ममता बनर्जी ने नेताजी से जुड़ी फाइलें सार्वजनिक करके गेंद मोदी सरकार की मार्फत उन्हीं के पाले में डाल दी है। अब केंद्र सरकार पर दबाव होगा कि वह भी अपने पास की नेताजी से जुड़ी फाइलें सार्वजनिक करे।
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