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यह सही है कि आज के दौर में अधिकतर लोग अपनी बात कहने के लिए बेचैन रहते हैं। लेकिन मधुर संबंध और सौहार्दपूर्ण व्यावहारिक-सामाजिक जीवन के लिए एक-दूसरे को सुनना बहुत जरूरी है।

 listen with talk: हाल ही में सिंबायोसिस इंटरनेशनल डीम्ड यूनिवर्सिटी के दीक्षांत समारोह में बोलते हुए सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने देश के नागरिकों से आग्रह किया कि वे दूसरों की बात भी सुनने का साहस रखें। प्रधान न्यायाधीश ने कहा, "दूसरों को सुनने की शक्ति जीवन के हर क्षेत्र में महत्वपूर्ण है। लेकिन हमारे समाज के साथ समस्या यह है कि हम दूसरों की नहीं सुन रहे हैं। हम केवल अपनी ही सुन रहे हैं। साथ ही सुनने का साहस होने से व्यक्ति यह स्वीकार करता है, कि उसके पास अभी भले सही उत्तर ना हो, लेकिन वह उसे तलाशने और खोजने के लिए तैयार है।" चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया के ये विचार आज की बदलती जीवनशैली में बढ़ रहे असंतुलित संवाद की ओर इशारा करते हैं। जरूरी है कि अपनी कहने के साथ दूसरों की बात सुनने का धैर्य और समझने की मानसिकता के मायने समझे जाएं।

कहने की बेताबी
आज के दौर में हर कोई कुछ कहने-बताने को बेताब है। दिखावटी जीवनशैली के विस्तार ने जताने के भाव को इतना बढ़ा दिया है, कि जानने की सोच ही खत्म हो गई है। कहने की व्यस्तता ने सुनने की सक्रियता से पूरी तरह दूर कर दिया है। हर किसी को अपना दुःख कहना है। अपनी उपलब्धियां बतानी हैं। अपनी ही तकलीफें साझा करनी हैं। अपने सुख का लेखा-जोखा प्रस्तुत करना है। यह आज के समय का कटु सच है कि हर कोई बस कहना ही चाहता है। ऐसे में अपने बारे में बोलने के चलते लोग सिर्फ अपने बारे में ही सोचने तक भी सिमट गए हैं। सब कुछ कह जाने की कैसी व्यस्तता है कि सामने बैठे इंसान के हाल जानने में कोई रुचि ही नहीं बची है। कहने की अति, संवाद को कोलाहल बना रही है। आपसी बातचीत का ऐसा असंतुलन, जो धीरे-धीरे लोगों को सहज संवाद से ही दूर कर रहा है। जाने-अनजाने आप भी ऐसा कर रहे हैं, तो ठहरकर सोचिए। अपनी बात कहने के साथ ही दूसरों के मन की सुनने का भी धैर्य रखिए।

सुनने में बेरुखी
माइंडफुल लिसनिंग से बढ़ती दूरी दुनिया के हर समाज के लिए एक समस्या बन रही है। हालिया बरसों में हर उम्र के लोगों में किसी की बात सुनने के प्रति बेरुखी बढ़ी है। ऐसे में जब बात सुनने में ही रुचि नहीं तो समझना तो दूर की बात है। ऑस्ट्रेलिया के चर्चित अदाकार ब्रेन ब्राउन के मुताबिक, "सुनने के प्रति उतने ही जुनूनी बनें, जितने आप सुने जाने के इच्छुक रहते हैं।" तकलीफदेह है कि अब लोगों में सिर्फ अपनी बातें सुनाने की ही इच्छा रहती है। नतीजतन, माइंडफुल लिसनिंग से बढ़ती दूरी आपसी दूरियां भी बढ़ा रही है। 

फ्रेंड्स और फैमिली तक भी बेरुखी भरी यह आदत अपनी जड़ें जमा चुकी है। किसी बात को ना सुनने के चलते अब दूसरे कई मानवीय मनोभाव भी व्यवहार से नदारद हैं। विनम्रता, केयर, सम्मान जैसी कई बातें, मन से किसी को सुनने से ही जुड़ी हैं। किसी के कहे विचारों पर गौर ना करना नकारात्मक बर्ताव ही कहा जा सकता है। ऐसी बेरुखी रिश्तों के रंग तो छीनती ही है बातचीत में भी असहजता रहती है। जबकि दुनिया के कई हिस्सों में अब माइंडफुल लिसनिंग का प्रशिक्षण दिया जाने लगा है। शिक्षक यह महसूस कर रहे हैं कि सुनना एक कौशल है, जिसे सिखाया जा सकता है। नैशविले के पब्लिक स्कूल सिस्टम में तो बाकायदा प्राथमिक कक्षा से हाईस्कूल तक सुनने का प्रशिक्षण शुरू किया गया है। अमेरिका में लगभग दो दर्जन प्रमुख विश्वविद्यालय और कॉलेज ऐसे पाठ्यक्रम चला रहे हैं।

संवाद का आधार
किसी को मन से सुनना हमें जीवंत बनाए रखने वाला इमोशन है। यह काम-काज की बेहतरी और संबंधों की गुणवत्ता का आधार है। शिकागो में जब एक मैन्युफेक्चरिंग प्लांट में शीर्ष अधिकारियों को उनकी जॉब में सुनने की भूमिका का रिव्यू करने के लिए कहा गया तो हैरान करने वाली बातें सामने आईं। खासतौर पर तीन टिप्पणियों में अधिकारियों ने अपने विचार बताए। एक ऑफिसर के अनुसार "सच कहूं तो, मैंने कभी नहीं सोचा था कि सुनना अपने आप में एक महत्वपूर्ण विषय है। लेकिन इसके बारे में जानने के बाद मुझे लगता है कि शायद मेरा 80 फीसदी काम मेरे द्वारा किसी को सुनने पर, या किसी और के सुनने पर निर्भर करता है। दूसरे अधिकारी ने कहा, "मैं उन चीजों के बारे में सोच रहा हूं, जो पिछले कुछ वर्षों में गलत हो गई हैं, और मुझे अचानक एहसास हुआ कि कई परेशानियां किसी के कुछ ना सुनने, या उसे गलत तरीके से समझने के क कारण हुई हैं।" 

तीसरी टिप्पणी में एक ऑफिसर द्वारा कहा गया, "यह मेरे लिए दिलचस्प है कि हमने कंपनी में संवाद के कई पहलुओं पर विचार किया है। हमने अनजाने में सुनने को नजरंदाज कर दिया है। मैंने समझ लिया है कि यह कंपनी के आपसी बातचीत में सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है और यही कड़ी सबसे कमजोर भी है।" असल में व्यक्तिगत जीवन से लेकर काम-काजी दुनिया और घर-परिवार से लेकर दोस्तों के मेलजोल तक। हम सब भी आपसी कम्युनिकेशन को रिव्यू करेंगे तो ऐसे ही ख़यालों से सामना होगा। जिसका सीधा अर्थ है कि आपसी संवाद में ना केवल सुनना जरूरी है बल्कि सही ढंग सुनना और समझना भी आवश्यक है।   

डॉ. मोनिका शर्मा
 

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