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Gulzar Interview:गुलजार एक ऐसे लेखक हैं, जो अपने करियर के पहले दौर से 60 वर्षों के बाद भी अपने गीतों के जरिए नई-पुरानी पीढ़ी को बांधे रखा है। गुलजार साहब को ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा हुई। इसी सिलसिले में बांद्रा पाली हिल स्थित उनके कलात्मक बंगले बोस्कीयाना में बातचीत करने का मौका मिला।

Gulzar Interview: गुलजार! इन 4 शब्दों में हिंदी, उर्दू, बांग्ला साहित्य जैसे एक हुआ है। हमेशा सफेद कुर्ते-पैजामे में नजर आने वाले कवि, लेखक, शायर, निर्देशक, अनुवादक जैसे कई रूपों को बेहद खूबसूरत अंजाम देने वाले गुलजार साहब का व्यक्तित्व भी 89 उम्र के पायदान पर बहुत ही राजसी है। उनकी बातचीत से वो सामने वाले के दिल के गहराइयों में उतर जाते हैं, इतना उन्हें साहित्य, कहानी कविता और हर समसामयिक विषयों में गति है, रुचि है और एक ऐसा जज्बा है जो उनके करियर के पहले दौर से आज 60 वर्षों के बाद भी उन्होंने अपने गीतों के जरिए नई-पुरानी पीढ़ी को बांधे रखा है। गुलजार साहब को ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा हुई और उनसे मुलाकात बांद्रा पाली हिल स्थित उनके कलात्मक तरीके से सजाए बंगले बोस्कीयाना में हुई। पूजा सामंत की हरिभूमि के लिए गुलजार से खास बातचीत-

सवाल: आपने हिंदी और उर्दू भाषाओं में उत्कृष्ट साहित्य रचा है। ज्ञानपीठ पुरस्कार आपको साहित्यिक योगदान के लिए दिया जा रहा है, कैसा महसूस करते है आप इस वक्त?
जवाब: ज्ञानपीठ पुरस्कारों की चयन टीम में जितने भी मेंबर है, मैं उन सभी का आदर करता हूं। उन्हें बहुत सारा शुक्रिया कहना चाहता हूं आपके माध्यम से। उन्होंने मेरा चुनाव किया मैं बहुत अभिभूत हूं। मुझे यह फिलिंग हमेशा रही कि मेरे फिल्मी गानों की वजह से लोग मेरी पोएट्री को नहीं जानते और मैं तो 50-60 सालों से लिखता चला आ रहा हूं। साहित्य के प्रति मेरा पैशन, मोह माया की मेरी अटैचमेंट है वो फिल्मों से भी अधिक गहरी और इसकी (साहित्य) जड़ें भी उतनी पुरानी है। काफी फिल्मी गीत लिखता रहा, इस लंबे सफर में लोगों ने मेरी कविताओं को नोटिस नहीं किया, यह मेरी सोच गलत थी, इस ज्ञानपीठ की घोषणा के बाद बात समझ में आई। मेरे जन्मदिन पर मुझे जितने मेसैजेस नहीं आते, अब ज्ञानपीठ की घोषणा के बाद आ रहे हैं। इसका मतलब तो यही हुआ न कि मेरा साहित्यिक योगदान भी रजिस्टर हुआ। मैं भावुक हुआ हूं।

सवाल: आमतौर पर गंभीर साहित्य और साहित्यकारों के लिए फिल्मों को मुफीद नहीं माना जाता, लेकिन आपने फिल्म और साहित्य के सेतू को जोड़े रखा, यह साहित्य और फिल्मों का संतुलन आपने कैसे बनाए रखा?
जवाब: मैं फिल्मों में अपना करियर कभी नहीं बनाना चाहता था। मुझे किताबें, कविता, साहित्य इन में रुझान था। बचपन से नहीं, लेकिन हां जब से होश संभाला। साहित्य और फिल्मों का संतुलन जान-बूझकर, सोच-समझकर नहीं बनाए रखा। वो तो अपने आप बनते चला गया। फिल्मों में गीतकार बना और सफलता मिली, जिंदगी में स्टेबिलिटी फिल्मों के योगदान से मिली। साहित्य, कविता मेरा पैशन था, जो कायम रहेगा, मेरा यह रुझान हमेशा रहा मेरे साथ। इसलिए तो मैंने कम फिल्में की। लिखना-पढ़ना जारी रहा।

सवाल: आपका साहित्य में रुझान कैसे निर्माण हुआ? खास कर हिंदी के साथ उर्दू और बांग्ला साहित्य पर भी आपकी कमांड है?
जवाब: इसके पीछे कुछ सरकमस्टेंस जिम्मेदार है। मेरा जन्म पाकिस्तान में हुआ, प्रीइंडिपेंडेंस के दौर में। हमारे घर पर मेरे पिता जी के कई दोस्त आते थे। उनकी बातचीत मेरे कानों पर पड़ना स्वाभविक बात थी। यह लोग आपस में सामाजिक सरोकार, साहित्य कहानी-कविताओं पर गहरी बातचीत करते थे। इनकी गपशप में कहावतें, मुहावरें, कोट्स काफी आते थे। सबकॉन्शियसली उनकी बातें मुझ तक आती रहीं। किताबें, लेखक, साहित्य यह सब में जाने-अंजाने में सुनता रहा। पिता जी के इन दोस्तों के प्रति मुझे आदर की भावना निर्माण होती गई। मैं राजिंदर सिंह बेदी, किशन चन्दर, सआदत हसन मंटो, मुंशी प्रेमचंद इन दिग्गज लेखकों का साहित्य पढ़ता गया और इनकी साहित्यिक कृतियों ने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला। हम जहां रहते थे वहां कई उर्दू भाषिक लेखक रहते थे, उर्दू से इस तरह रिश्ता बढ़ता गया। बांगला साहित्य का प्रभाव मुझ पर हुआ रबीन्द्रनाथ टैगोर की वजह से। उनकी पोएट्री पढ़ी और इन पोएट्री का ऐसा प्रभाव पड़ा कि मैंने उनकी कविताओं के 3 वॉल्यूम्स अनुवादित किए।

सवाल: साहित्य में आप खो चुके थे फिर मुंबई में कैसे आना हुआ?
जवाब: हर दूसरे इंसान को महानगरी मुंबई में खुद का पेट भरने के लिए संघर्ष करना लाजमी है। ऐसा संघर्ष मैंने भी किया। दरअसल देश का विभाजन हुआ और परिवार बिखरा। अपने परिवार का पेट पालने मुझे मुंबई आना पड़ा। पिता जी ने मुझे मुंबई भेजा। मुंबई आकर मैंने एक गैराज में काम शुरू किया, ताकि मुझे इस काम के साथ थोड़ा वक्त अपने लिखने-पढ़ने के भी मिल जाएं। मुंबई में मेरा संघर्ष-जद्दोजहद शुरू हुआ। गैराज में काम करते समय मैं मेरे रहने के लिए जगह ढूंढ रहा था। अंधेरी चार बांग्ला में एक बंगला था जिसका नाम था, कुंवर लॉज। ताज्जुब तो मुझे तब हुआ जिन मान्यवर लेखकों की किताबें मैं पाकिस्तान में पढ़ता था उन लेखकों को रू-ब-रू मिलने का मौका यहां मुंबई ने दिया। राजिंदर सिंह बेदी, अली सरदार जाफरी, महेंद्र नाथ, किशन चन्दर जैसे कई दिग्गज लेखक यहां थे। मेरा इनसे परिचय हुआ और इनकी मित्रता मुझे उर्दू में समृद्ध करती गई। किशन चन्दर साहब को कई लोग मिलने आते थे। ख्वाजा अहमद अब्बास से लेकर किशन चन्दर तक के वहां आना जाना था। मुझे उनका साहित्य एक खास अनुभव देते गए। हमारी साहित्यिक महफिल वहां सजने लगीं। मेरे कमरे के ऊपर एक्टर बलराज साहनी रहते थे। इन सभी की सोबत मुझे विचारों सोच से अमीर बनाती गई। साहित्यिक विचारों की यह पुरवाई मुझे आगे बढ़ाने में कारगर साबित हुई। और हां, किताबें पढ़ना एक जुनून सा हो गया था। रबीन्द्रनाथ टैगोर का साहित्य मैंने पढ़ा और मैं उनके साहित्य से इस कदर जुड़ गया कि लाइब्ररी से लिया पुस्तक फिर लाइब्रेरियन को लौटाया ही नहीं, पढ़ने के जुनून से एक तरह से यह चोरी हुई मुझ से!

सवाल: फिल्मों से जुड़ना कैसे हुआ?
जवाब: जैसा मैंने कहा मुंबई में मैं एक गैरेज में काम करने लगा, लिख पढ़ रहा था, साहित्य से जुड़ा था लेकिन फिल्मों में जाने की मेरी कोई महत्वकांक्षाएं नहीं थीं, न कोई ऐसा ख्वाब था कि बड़ा आदमी बनू। मुझे कुछ ऐसे दोस्त मिले जिनकी मित्रता ने मुझे आगे बढ़ाया। विकास देसाई, पुरुषोत्तम लक्षमण देशपाण्डे (मराठी के नामी साहित्यिक) की वजह से मुझे मराठी समझने आने लगी।  साहित्य-किताबों से मोहब्बत थी तो मैंने ‘प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन’ जाना शुरू किया, यहां कई उर्दू लेखकों से परिचय, दोस्ती हुई। सरदार जाफरी, जांनिसार अख्तर, शैलेन्द्र (गीतकार), कमलेश्वर, बलराज साहनी जैसे कई धुरंधर मिले। यही पर मेरा परिचय सलिल चौधरी से भी हुआ। बॉम्बे यूथ फोरम की स्थापना रुमादेवी (गायक किशोर कुमार की प्रथम पत्नी) ने की थी। उर्दू, बंगाली लेखकों साहित्यकों से मित्रता हुई। मेरे दोस्त शैलेंद्र ने मुझे फिल्मों के लिए गीत लिखने कहा, लेकिन मैं फिल्मी गीत लिखने के लिए उत्सुक नहीं था, लेकिन शैलेन्द्र ने बिमल रॉय से परिचय कराया था, बिमल दा और शैलेन्द्र ने कहा, ‘अपनी जिंदगी गैरेज में जाया मत करो, फिल्मों के गीत लिखना शुरू करो।’ एक तरह से मुझे डांट दिया और फिर मैंने ‘मेरा गोरा गोरा अंग लई ले’ गीत लिखा। बिमलदा ने मुझे उनका असिस्टेंट होने का ऑफर दी और फिर वही से मेरा फिल्मी सफर आगे बढ़ा। बिमल दा के साथ काम करना मेरी बैकग्राउंड ट्रेनिंग रही। स्क्रिप्ट, कहानी, गीत, निर्देशन वही से सीखता गया। अगर बिमल दा ने मुझे फिल्मों के काम करने के लिए पुश नहीं किया होता तो शायद मैं फिल्मी दुनिया में नहीं होता। 
फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े रहने से आप साहित्य से दूर होने की भावना हुई कभी आपको?
साहित्य फिर वो हिंदी, उर्दू, बंगाली कोई भी मेरा पैशन, मेरी रूह है। फिल्मों के लिए लिखने से मुझे आर्थिक स्थिरता मिली। मेरा नाम हुआ, मुझे पैसे मिले। मुझे फिल्मों से जुड़े रहने का मलाल नहीं, लेकिन साहित्य की चाहत मेरे दिल में हमेशा सक्रीय रही, मैं साहित्य, अनुवाद, कविताओं पर काम करता रहा। बस, दिल में तब यह टीस थी कि क्या मेरा साहित्य का योगदान अभी लोगों तक अज्ञात रहा है? क्या मुझे लोग सिर्फ फिल्म योगदान के लिए जानते हैं? लेकिन ज्ञानपीठ की घोषणा से मेरा यह खयाल दूर हुआ। मैंने टैगोर की कविताओं के 3 वॉल्यूम्स अनुवादित किए जिन्हें हार्पर्स कॉलिन्स ने प्रकाशित किया। बाल साहित्य लिखा-बाल कविताएं लिखीं। 

सवाल: साहित्य और फिल्म दो अलग ध्रुव है, कैसे संभव हुआ आपको इनका संतुलन करना?
जवाब: शुरू-शुरू में बिमल दा, शैलेन्द्र के आग्रह पर फिल्मों के लिए लिखना शुरू किया। शोहरत, पैसा कमाई। जब मैंने फिल्म ‘हू तू तू’ की तो उसके बाद मुझे कई फिल्मों की ऑफर्स आते रहे, लेकिन मैंने मना किया। मेरा जी साहित्य में लगा था। बेटी मेघना ने कहा, पापा आप वही कीजिए जिसमें खुद को खुशी मिले। फिर मेघना की फिल्मों में इनपुट देता रहा। विशाल भारद्वाज से ऐसे दिल से रिश्ते है कि उनके लिए कुछ काम किया, संतुलन होता गया, कुछ प्लांड नहीं है। कोई अलग से एफर्ट्स नहीं लिए मैंने।

सवाल: क्या बदलाव आप महसूस करते है, फिल्मों, साहित्य और समाज में? क्या इस दौर की फिल्मों में आप साहित्य देख पाते हैं?
जवाब: देखिए हर फिल्म साहित्यिक मूल्यों से लबरेज नहीं हो सकती। मेघना की फिल्म ‘छपाक’ में कोई साहित्य नहीं था, लेकिन जो उसने महसूस किया उसे स्क्रीन पर दिखाया। राकेश मेहरा की फिल्म भी रिलेवेंट होती हैं, विशाल भारद्वाज ने शेक्सपियर की रचनाओं पर ट्रायोलॉजी बनाईं। यह भी साहित्यिक रचना थी। विशाल भी नए पीढ़ी के सर्जक है। पिछले पीढ़ी के श्याम बेनेगल की फिल्में साहित्य और समांतर सिनेमा का अनोखा मेल रही है। हर पीढ़ी, हर मेकर अपनी अभिव्यक्ति अनुसार फिल्म बनाएगा।
पंडित भीमसेन जोशी, पंडित रविशंकर, उदय शंकर इन हस्तियों ने इंडियन क्लासिकल म्यूजिक को ग्लोबली पॉपुलर किया। कभी हमारे गायक किशोर कुमार ने इस पीढ़ी में संगीतकार एआर रहमान ने संगीत को कहां से कहं पहुंचाया। कई नए एक्सपेरिमेंट किए। अदूर गोपालकृष्णन मलयालम में लिखते हैं, उनकी फिल्मों में जीवन है, कविता भी है। पिछली पीढ़ी हो, नई पीढ़ी हो समाज के लिए रिलेवेंट हो, समाज के प्रश्नों, मुद्दों और मूल्यों को अधोरेखित करे। कभी पुरानी पीढ़ी का हमने हाथ थामा था, अब आगे बढ़ने के लिए हमें नई पीढ़ी का हाथ थामना होगा। 

सवाल: 1960-70 के दशक में भी आपके गीत लोकप्रिय रहे, इस पीढ़ी 2024 में भी आप लोकप्रिय है, पीढ़ी दर पीढ़ी रिलेवेंट रहना कैसे संभव हुआ आपको?
जवाब: मैं हर पीढ़ी से जुड़ा रहा। मैं बच्चों के साथ बहुत घुल मिल जाता हूं। मेरा पोता इस समय बास्केट बॉल कैप्टन है, मैं उसकी मैच देखने जाता हूं, उसके दोस्तों से खूब गप्पे लड़ाता हूं। चुस्ती-फुर्ती से तरोताजा हो जाता हूं, उनसे उनकी दुनिया में मशगूल हो जाता हूं। मैंने पंडित भीमसेन जोशी के साथ पुणे में रहकर उन पर फिल्म बनाईं। मेरे एक दोस्त चित्रे के साथ काफी ट्रैवल किया, विशाल भारद्वाज से गहरी दोस्ती है, कितने नाम बताऊं? सीखने की कोई उम्र नहीं होती। मैं सीखता ही चला जा रहा हूं। मैं हर किसी से सीखता हूं, ग्रो होता हूं, बच्चों से भी काफी सीखता हूं।

सवाल: आर्टिफिशियल इंटेलिजंस की काफी चर्चा हो रही है, क्या आपको लगता है कि आर्टिफिशियल इंटेलिजंस अगर साहित्य में आया तो साहित्य की ओरिजिनालिटी कम होगी या खत्म होगी?
जवाब: जमाना-युग हर एक मिनट में बदल रहा है। पता नहीं कब क्या बदलाव आ सकते हैं। मेरे लिए इस मुद्दे पर बात करना संभव नहीं। वक्त के साथ चलिए इतना ही मैं जानता हूं। कल क्या होगा किसने देखा है?

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