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कठिन नहीं ज्ञानी-विद्वान दिखना

किताबों के मामले में ऐसा कर पाना बहुत कठिन भी नहीं है।

कठिन नहीं ज्ञानी-विद्वान दिखना
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नई दिल्ली. वास्तविक ज्ञानी-विद्वान होने और दिखने में फर्क होता है। लेकिन आजकल के दिखावे भरे समय में कई लोग कुछ युक्तियों को अपनाकर बहुपठित और ज्ञानी दिखने लगते हैं। यकीन मानिए, किताबों के मामले में ऐसा कर पाना बहुत कठिन भी नहीं है।
प्रोफेसर बेयार्ड के सुझाव
सवाल यह है कि आप स्वयं के बहुपठित होने का आभास कैसे पैदा करें। बहु-पठन के बिना बहुपठित होने का आभास देने के मुश्किल भरे काम को आसान बनाने में पेरिस विश्वविद्यालय के साहित्य के प्रोफेसर पियरे बेयार्ड महत्वपूर्ण तरीके सुझाते हैं। ‘हाउ टू टॉक अबाउट बुक्स यू हैव नॉट रीड’-मूल फ्रांसीसी में लिखी पुस्तक है, जो छपते ही बेस्टसेलर हो गई। पूरे यूरोप की कई भाषाओं में इसके अनुवाद छपे हैं। इस किताब की लोकप्रियता से पता चलता है कि किसी पुस्तक को न पढ़ पाने का दर्द जितना पुस्तकप्रेमी में होता है, उससे अधिक नहीं तो कुछ न कुछ उनमें भी होता है, जो अमूमन किताब नहीं पढ़ते। प्रो. बायर्ड के मुताबिक गैर-पाठक के मन में व्याप्त अपराधबोध, बिना मनोविश्लेषक के पास गए, इस किताब को पढ़कर कम हो सकता है। इस प्रकार यह किताब, प्रो. बायर्ड के अनुसार, काफी सस्ता सौदा है।
प्रो. बायर्ड की थीसिस यह है कि आपको पढ़ने की कतई जरूरत नहीं है। अपने विद्यार्थियों से कक्षा में संबोधन के दौरान वह उन किताबों पर चर्चा करते हैं, जिन्हें उन्होंने खुद भी नहीं पढ़ा होता है या फिर सरसरी निगाह डाली होती है। वह यह भी अपने विद्यार्थियों को बताते हैं कि लोग बिना पढ़े भी उन किताबों के बारे में पूरी तल्खी से बात कर सकते हैं।
अपनी थीसिस में प्रो. बायर्ड मांटेग्यू का जिक्र करते हैं, जिन्हें यह याद नहीं रहता था कि उन्होंने क्या-क्या पढ़ा था। इसी प्रकार पॉल वेलेरी उन लेखकों के भी कसीदे काढ़ लेते थे, जिन्हें उन्होंने नहीं पढ़ा होता। वह सुप्रसिद्ध लेखकों के उपन्यासों के कुछ चरित्रों को उद्धृत करते हुए पढ़ने की जरूरत पर ही सवालिया निशान लगाते हैं।
आप भी दिख सकते हैं बहुपठित
गैर-पाठकों को यह बताने के बाद कि आप लोग कोई इक्का-दुक्का नहीं बल्कि बहुतायत में हैं, प्रो. बायर्ड फिर उन्हें किसी किताब की अपनी अनभिज्ञता को ढांपने के गुर भी बताते हैं। किसी पुस्तक के लेखक से उसकी किताब के बारे में बिना पढ़े बात करना खासा टेढ़ा काम होता है। लेकिन
बहुत दूर न जाएं, कुछ ही साल पहले डॉन ब्राउन की पुस्तक ‘द विंची कोड’ पर खूब बावेला मचा। इस पर इसी नाम की फिल्म आने के बाद पुस्तक खूब बिकी, उससे अधिक विवाद में आई क्योंकि कुछ धार्मिक संस्थाओं ने पुस्तक और फिल्म के खिलाफ फतवा जारी कर दिया।
प्रो. बायर्ड का सर्वाधिक साहसिक सुझाव यह है कि गैर-पाठक स्वयं के बारे में बात करें। ऐसा करते वे पुस्तक के संदर्भ को खंगालें लेकिन इसकी विषयवस्तु को न छेड़ें। इस प्रकार वह अपनी कल्पना के घोड़ों को खुली उड़ान का मौका दे सकेंगे और इस प्रकार, प्रभावत: वह अपनी स्वयं की किताब रचित कर सकेंगे।
बढ़ रही है दिखावेबाजी
हमारे देश में बहुत से लोग गीता को पढ़े बिना उसके श्लोक उद्धृत करते हैं। वैसे यह उद्धरण ज्यादातर ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ तक ही सीमित होता है। इसी प्रकार रामचरितमानस के दोहों और चौपाइयों का हर तबका भरपूर इस्तेमाल करता है। वैसे भी जनश्रुतियों वाले हमारे समाज में किताबी ज्ञान को बहुत महत्वपूर्ण नहीं माना गया है। क्योंकि वह ज्ञान जो हमें रोजी-रोटी जुटाने में सक्षम न बनाए और वह ज्ञान जो श्रम की गरिमा के प्रति सम्मान को पैदा न करे, वह निरर्थक होता है।
इसलिए कबीर ने ‘मन का मनका फेरने’ की सलाह दी, आंखिन देखी के महत्व को बताया, और चक्की चलाने को ‘पाहन पूजने’ से ऊंचा स्थान दिया। सूचना के युग में ज्ञान ओझल हो रहा है और खुद को ज्ञानवान दिखाने की जरूरत भी बढ़ रही है। यह एक अजब त्रासदी है।
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