मीरा एक आत्मसचेत और स्वावलंबी स्त्री थीं : प्रो. माधव हाड़ा

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By - ????? |20 Jun 2015 6:30 PM
मीरा से जुड़े सवालों को लेकर बातचीत
मध्यकाल की प्रतिनिधि स्त्री कवि मीरा का जीवन और कविता साहित्यकारों और विमर्शवादियों के लिए एक साथ उत्सुकता का विषय रहा है। राजस्थान के एक विश्वविद्यालय में आचार्य माधव हाड़ा विगत एक दशक से मीरा के जीवन और कविता पर गंभीर शोध करते रहे हैं। अभी प्रकाशित हुई उनकी पुस्तक ‘पचरंग चोला पहन सखी री’ चर्चित हुई है। इस पुस्तक के बहाने मीरा से जुड़े सवालों को लेकर पल्लव ने बातचीत की, प्रस्तुत है प्रमुख अंश।
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मीरा जैसी मध्यकालीन कवयित्री पर शोध का विचार कैसे और क्यों आया?
हमारी परंपरा और विरासत की पहचान उपनिवेशकाल में बनी। विडंबना यह है कि साम्राज्यवादी स्वार्थ के अधीन बनी यह पहचान अभी तक जारी है। हम अपने इतिहास में इसी का पिष्टपेषण कर रहे हैं। मीरा को पढ़ते हुए लगा कि वह अलग है । उनमें वह सब नहीं है, जो हम खोजना चाहते हैं और जो उनमें है, वो हम खोज नहीं रहे हैं। बस मैंने केवल जो उनमें है उसी पर अपने को एकाग्र किया। यह किताब उसी का नतीजा है। शोध एक तरह की यात्रा है, जिसमें मंजिल पहले से तय नहीं होती। कुछ लोगों को इससे निराशा होगी क्योंकि जो वो पहले तय करके बैठे हैं, वो इस किताब में नहीं है।
हमने अपनी परंपरा और विरासत की पहचान करते हुए अपने समाज के खास स्वभाव की बहुत अनदेखी की है। हम आधुनिक होने की हड़बड़ी में और कभी-कभी वामपंथी होने के जुनून में यह भी भूल गए कि हमारा समाज एकदम अलग समाज है।
यह शास्त्र या किसी किताब से नहीं चलता। यहां कुछ हद तक लोक सर्वोपरि है। मीरा लोक में बनती-बिगड़ती हैं, इसलिए मेरी कोशिश उनको उसी के बीच समझने की है। मैने मीरा को समझने के दौरान किसी को खारिज नहीं किया है। पचरंग चोला में लोक आख्यान, इतिहास, कविता आदि सभी ने गवाही दी है।
मीरा की कई छवियां बन गई हैं। ऐसा क्यों हुआ?
यह सही है। मीरा की कई छवियां चलन में हैं। यह इसलिए हुआ कि हमने अपने-अपने नजरिए को सही ठहराने के लिए अपनी-अपनी मीरा, गढ़ डाली। इन नजरियों के अपने नाप-जोख और सांचे-खांचे हैं। इनकी जरूरतों के हिसाब से मीरा के जीवन से संबंधित जानकारियों में से या तो केवल कुछ चुनकर शेष दरकिनार कर दी गई हैं या कुछ नई गढ़ ली गई हैं। मीरा की प्रचारित भक्तऔर कवि छवि गढ़ने वालों के पास शास्त्र में भक्तिऔर कविता के नाप-जोख और सांचे थे। मीरा की कविता इतनी विविध, समावेशी और लचीली है कि उनको उसमें जैसा वे चाहते थे सब मिल गया। उन्होंने जब उसको सगुण कहना चाहा तो उनको उसमें सगुण के लक्षण मिल गए और जब वे शास्त्र के तयशुदा नाप-जोख लेकर माधुर्य खोजने निकले तो उनको उसमें माधुर्य के लक्षण मिल गए।
यही नहीं, निर्गुण खोजने वालों को भी मीरा ने निराश नहीं किया। बारीकी से खोजबीन करने वालों ने उसमें योग की गूढ़ और रूढ़ शब्दावली भी ढूंढ़ निकाली। मीरा की कविता ने किसी को निराश नहीं किया। लेकिन किसी ने इस तथ्य की ओर ध्यान नहीं दिया कि मीरा की भक्ति और कविता ली और दी गई नहीं, कमाई गई हैं।
यह लोक के बीच, उसकी उठापटक और उजास में अर्जित की गई हैं इसीलिए यह किसी परंपरा, संप्रदाय और शास्त्र के सांचे-खांचे में नहीं है और एकदम अलग और नई हैं।
आपने-अपने शोध में दावा किया है कि मीरा संत-भक्त नहीं थीं, जबकि हिंदी समाज उन्हें संत-भक्त और कवयित्री ही मानता है।
मीरा पारंपरिक अर्थ में संत-भक्त नहीं थीं। वह एक संसारी स्त्री थीं और उनके जागतिक सरोकार बहुत व्यापक, मूर्त और सघन थे। संसार विरत संत-भक्तों से अलग उनकी कविता में इसीलिए मूर्त का आग्रह बहुत है। वैयक्तिक पहचान का आग्रह और सांसारिक संबंधों का द्वंद्व और तनाव तभी संत-भक्तों की कविता में प्राय: नहीं मिलता, लेकिन मीरां की कविता में यह ध्यानकर्षक ढंग से मौजूद है। संत-भक्त जन्मांतर व्यवस्था और कर्मफलवाद में विश्वास के कारण जागतिक व्यवस्था को सामंजस्यपूर्ण मानकर इससे असहमत नहीं होते, लेकिन मीरा की कविता में व्यवस्था का विरोध और उससे असंतोष चरम पर है। मीरा की अभिव्यक्ति और भाषा भी जैसी लोकसंपृक्त और स्त्री लैंगिक है, वैसी लोक विरत संत-भक्तों के यहां नहीं मिलती।
मीरा की वास्तविक छवि आपके अनुसार क्या होनी चाहिए?
मीरा एक आत्मसचेत और स्वावलंबी स्त्री थीं। वह एक सामंत की विधवा थीं, उनकी हैसियत एक जागीरदार की थी और उनके पास आर्थिक स्वावलंबन के साधन थे। वह संपन्न थीं और इतनी संपन्न थीं कि साधु-संतों को आतिथ्य सत्कार में मुहरें देती थीं। वल्लभ संप्रदाय के प्रामाणिक माने जाने वाले वार्ता ग्रंथों में इसके साक्ष्य हैं। मीरा पर आजीवन शोध करने वाले हरिनारायण पुरोहित के अनुसार उन्होंने कभी भगवा नहीं पहना। उनके पितृपक्ष के एक वंशज और इतिहासकार गोपालसिंह मेड़तिया के अनुसार यह कहना गलत है कि मीराबाई हाथ में वीणा लेकर जगह-जगह साध्वी की तरह घूमती थीं।
महाराणा सांगा ने अपनी युवराज पुत्रवधू को पुर और मांडल के परगने हाथ खर्च के लिए प्रदान किए थे। उनको कुछ हद तक जीवन की भी स्वतंत्रता थी। आवागमन की स्वतंत्रता और सुविधा के कारण ही वह पुष्कर, द्वारिका, वृंदावन आदि स्थानों पर गर्इं।
उनकी तत्कालीन सत्ता संघर्ष में निर्णायक भूमिका रही। उन्होंने भक्ति को भी इसमें हथियार की तरह इस्तेमाल किया। विडंबना यह है कि अपनी तयशुदा धारणाओं के प्रतिकूल होने के कारण इन तथ्यों को इन विमर्शकारों ने अनदेखा कर दिया। उनकी भक्ति भी अलग है।
यह सांचों-खांचों की भांति नहीं है। यह अर्जित भक्ति है। इसकी किसी से तुलना नहीं हो सकती। इसका ढंग और मुहावरा एकदम अलग है। यह धारणा गलत है कि विवाह से पूर्व मीरां भावुकतापूर्ण ईश्वर भक्ति में लीन युवती थीं। यदि ऐसा होता तो राणा सांगा अपने उत्तराधिकारी पुत्र के लिए उनका चुनाव कभी नहीं करते। राणा सांगा अपने समय में उत्तर भारत के सबसे बड़े साम्राज्य का स्वामी यों ही नहीं थे।
वह योद्धा होने के साथ चतुर कूटनीतिज्ञ भी थे। निरंतर विपरीत परिस्थितियों में रहने के कारण उन्हें लोगों के अच्छे-बुरे होने की पहचान और समझ थी। कलह, षडयंत्र और दुरभिसंधियों के माहौल में वह मेवाड़ के भावी शासक के लिए केवल भक्ति भाव में डूबी रहने वाली पगली-दीवानी युवती का चयन कैसे कर सकते थे?
मीरा में अपने समय की राजनीति, मर्यादाओं और आदर्शों की भी अच्छी जानकारी रही होगी। यही सब देखकर सांगा ने उसको अपनी बहू बनाने का निर्णय लिया होगा।
मीरा को लेकर किया आपका शोध, मार्क्सवादी आलोचकों की मान्यताओं के विपरीत जाता है। आपको उनकी असहमतियों से कोई दिक्कत नहीं?
शोध सांचों-खांचों को ध्यान में रखकर नहीं होता। यह किसी के समर्थन या विरोध के लिए भी नहीं होता। आपकी दृष्टि वस्तुपरक और तटस्थ होनी चाहिए। यही कोशिश इस काम में है। हमारे कुछ जड़ मार्क्सवादियों की मुश्किल यह है कि वे कमोबेश उसी तरह से सोचते हैं जिस तरह से उपनिवेशवादी सोचते थे।
पहले यूरोपीय उपनिवेशवादी और बाद में जड़ वामपंथी सोच ने हमारे बुद्धिजीवी वर्ग के मन में कई अंतर्बाधाएं खड़ी कर रखी हैं। विडंबना यह है अभी तक हम न तो चेतना के उपनिवेशीकरण से मुक्त हो पा रहे हैं और न जड़ वामपंथी अंतर्बाधाओं से उबर पा रहे हैं। इन अंतर्बाधाओं के चलते अपनी परंपरा और विरासत की ठीक पहचान नहीं हो पा रही है। इसका लाभ पुनरुत्थानवादी उठा रहे हैं।
वे इसकी मनमानी व्याख्याएं कर रहे हैं। अपने देश भाषा स्रोतों के लिए हमारे ज्यादतर बुद्धिजीवियों में हिकारत का भाव है, जब कि उनके बिना हम अपने समाज को अच्छी तरह से नहीं समझ सकते। हमारा समाज अलग तरह का है। यहां सांस्कृतिक वैविध्य और गतिशीलता बहुत है।
सार्वदेशिक और सार्वकालिक सांचों-खांचों में इसकी पहचान हो ही नहीं सकती। आप जिसे सामंतवाद कहते हैं, उसके भी हमारे यहां कई रूप हैं और ये निरंतर बदलते भी रहे हैं। आप सबको एक लाठी से नही हांक सकते, जबकि लोग अभी तक यही करते आ रहे हैं।
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